बीजेपी को छुटा वाजपेयी का साथ कांग्रेस को मिला आम आदमी का साथ


आई पी एल और चुनावी कवरेज़ की टी आर पी को लेकर पिछले दिनों यह ख़बर आई कि लोगों ने चुनावी हल चल से ज्यादा इस बार क्रिकेट मैच को दिया । सरकार बनाने में लोगों की दिलचस्पी को समझा जा सकता था । तो क्या आख़िर कार कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ का नारा चल निकला । क्या बीजेपी का महगाई से लेकर आतंकवाद के तमाम नारे को लोगों ने अनसुना कर दिया । क्या लाल कृष्ण आडवानी मतलव बीजेपी के नए प्रयोग को लोगों ने खारिज कर दिया । ऐसे ढेर सारे सवाल अभी उठेंगे और ढेर सारी समीक्षाएं आएँगी ,लेकिन इतना तो तय है कि आम आदमी का हाथ कांग्रेस के साथ बरक़रार है। पहली बार बीजेपी वाजपेयी का चेहरा अलग करके चुनावी मैदान में आई थी । यह जानते हुए कि आज भी बीजेपी को देश में ज्यादा लोग वाजपेयी की पार्टी के तौर पर जानते है । शायद बीजेपी की यह बड़ी भूल थी कि एक कुशल रणनीतिकार आडवानी को बीजेपी का फेस बना दिया । यह जानते हुए भी कि आडवानी का लोगों से सीधा संवाद नही है । लोगों को अपनी यात्रा में आडवानी ने जरूर आंदोलित किया लेकिन नेतृत्वा के मामले में लोगों के सामने वाजपेयी की छवि थी । यह पहली बार हुआ कि बीजेपी के पूर्व घोषित प्रधानमंत्री के मुकाबले के लिए कांग्रेस को मनमोहन सिंह को आगे करना पड़ा था । यह स्वीकार करने में शायद दिक्कत होगी कि लोगों ने कांग्रेस को वोट मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए नही दिया है बल्कि यह कांग्रेस के आम आदमी के फोर्मुले को
गले लगाया है । दिल्ली के ७ सीटों पर और मुंबई में बीजेपी के सफाए से यह बात और पुख्ता हुई है कि सरकार की नाकामयाबी पर बहस करने वाले लोगों में ज्यादा तादाद उन लोगों की है जो वोट नही देते । जो वोट देते है उनके सामने बीजेपी का मुद्दा प्रभावी नही है । बिहार , झारखण्ड ,छत्तीसगढ़ ,गुजरात ,कर्नाटका ,हिमाचल में अगर बीजेपी का सिक्का चला है तो आडवानी जी भी इस जीत का सेहरा ख़ुद नही लेना चाहेंगे । यह पहली बार हुआ है कि साकार के परफोर्मेंस के मामले मे कांग्रेस की सरकार कई मुद्दे पर नाकाम रही है लेकिन शहर हो या गाँव बीजेपी इन नाकामयाबी को शायद ही भुना पाई हो । बीजेपी ने ज्यादा ध्यान आडवानी जी के इमजे को प्रचारित करने मे दिया "मजबूत नेता निर्णायक सरकार "। जिसका मतलब आम आदमी को पता ही नही था ।
मीडिया हाउस हो या राजनीतिक पार्टियाँ कांग्रेस को छोड़ कर शायद ही किसी पार्टी ने अपना ध्यान डीलिमिटेशन फैक्टर पर गौर किया । तमाम मिडिया सर्वे अगर फ्लॉप हुआ है तो इसका कारण यही है कि सबने
डीलिमिटेशन के बाद बने समीकरण को नजरअंदाज किया है । आज एक भी शहरी संसदीय सीट नही है जिसमे सिर्फ़ शहरी वोटरों का प्रभाव हो । मध्य वर्गीय लोगों की पार्टी कहलाने वाली राजनितिक पार्टियों को यह सोचना पड़ेगा और अपनी चाल ,चरित्र और चेहरे को बदलना पड़ेगा । वोटरों का अब ध्रुबिकरण नही हो सकता अगर होता तो बीजेपी को इसका फायदा जरूर मिलता । बीजेपी जिन लोगों के लिए मन्दिर और सेतु बनाना चाहती है उन्हें पहले रोटी और रोजगार चाहिए। और जिन्हें यह मुद्दा ज्यादा असरदार लगता है वो कभी मन्दिर नही जाते । मन्दिर अब लोगों के घरों मे है बाकी कसर आध्यात्मिक चैनल पुरी कर देती है ।
लेकिन इस नतीजे से यह बात भी साफ़ हुई है कि muslim वोट के लिए अब फतवे की जरूरत नही । उत्तर प्रदेश में मायावती से लेकर मुलायम सिंह, बिहार में लालू से लेकर राम विलास तक सबने मौलानाओं का समर्थन हासिल किया लेकिन नतीजे आपके सामने है । यानि काम को दाम मिलेगा । नीतिश इसका उदहारण है । लेकिन इस कामयाबी से कांग्रेस को इतराने के लिए कुछ भी नही है । कामयाबी अगर उसे उत्तरप्रदेश मे मिली है तो इसका सेहरा मुलायम और मायावती की बदजुबानी और गुंडाराज की छवि को देना चाहिए । यही नकारात्मक वोट कांग्रेस को केरल ,पश्चिम बंगाल ,पंजाब राजस्थान में मिली है इन्ही राज्यों ने कांग्रेस को सरकार बनाने की हालत मे पंहुचा दी है । इसलिए यह जरूरी है कि व्यक्ति पूजा की परम्परा से आगे बढ़कर कांग्रेस अगर एक सफल सरकार की आकांछा को पुरा करती है तो वह दिन दूर नही २६ फीसद के समर्थन के दायरे को बढाकर कांग्रेस आने वाले वक्त में अपनी पुरानी स्थिति में लौट सकती है ।

टिप्पणियाँ

मुनीश ( munish ) ने कहा…
very well said! Delimitation has played a part.
सही विश्‍लेषण ..

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