कहाँ है आपका गाँव पता मिले तो मुझे जरूर बताएं


मुझे याद है फोचाय मरर का वह गीत "कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ "इसी गीत से हमारी सुबह की शुरुआत होती थी .फोचाय मरर के इस गीत के साथ शुरू होती थी कई आवाजे ..... मवेशियों के गले मे बंधी घंटिया ,किसानो की चहल पहल ... दूर से आती ढेकी की आवाज ... उखल समाठ की आवाज ... अल सुबह की ये सारी आवाजे मिलकर एक मेलोडी बना रही थी. कह सकते है कि मिथिला के गाँव की यह सास्वत पहचान थी . सामाजिक सरोकार का  विहंगम दृश्य मिथिला के हर गाँव मे मौजूद था . जहाँ हर आदमी हर की जरूरत में शामिल था . अपने इसी गाँव को तलाशने मै काफी अरसे के बाद गाँव पंहुचा था .फोचाय मरर के कखन हरब दुख मोर हे भोला नाथ सुनने के लिए मै सुबह से ही तैयार बैठा था ... लेकिन न तो फोचाय मरर की आवाज सुनाई दी न ही कही से मवेशियों की घंटी की आवाज ,न ही कही किसानो की चहल पहल .. ढेकी और उखल न जाने कब के गायब हो चुके थे . गाँव का वह नैचुरल अम्बिंस खो गया था ..या यूँ कहे की गाँव पूरी तरह से निशब्द हो गया था . मायूसी के साथ मै उठा उस अम्बिंस को तलाशने जो मेरे दिलो दिमाग में रचा बसा था .. शायद इस भ्रम में कि विद्यापति खो गए तो क्या हुआ लोडिक सलहेस तो जिन्दा होगा ..  दूर से आती आवाज मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया .... निशब्द गाँव में छन छन कर आती ये आवाज मुझे उद्वेलित कर रही थी .  तेज तेज क़दमों से मुझे भागते हुए देखकर एक बुजुर्ग ने आवाज लगायी ..मोर्निग वाक् ... मैंने कहा बस ऐसा ही .. मै उस आवाज के बिलकुल करीब था .
सुबह के ७ बजे होंगे तमाशबीन की भीड़ देखकर पहले तो मै चौका लेकिन सामने आने पर नज़ारा साफ़ हो गया था . मंच पर पसीने से तरबतर १५ -१६ साल की एक नेपाली कन्या और उसके साथ झूमते दो तीन नौजवान  ...बेक ग्राउंड से आती उन्मुक्त और अश्लील भोजपुरी गीत .... किसी ने  जोर से आवाज लगायी यहाँ आये बिलकुल पास में ... ये नेपाल का  मशहूर ओर्केस्ट्रा पार्टी है .. भीड़ से बज रही सीटियों की आवाज मुझे उन्मुक्त करने के वजाय भेद रही थी ...फोचाय मरर की तलाश में मै आगे बढ़ गया ..अपने गाँव को खोजने .....
आर्थिक तरक्की ने गाँव का स्वरुप बदल दिया है .. खेत खलिहान भले ही खाली हो गए हों लेकिन मोनिओर्देरइकोनोमी ने गाँव को बाजार से सीधे जोड़ दिया है . आर्थिक विशेज्ञ मानते है कि भारत के गाँव मे बढा उपभोक्तावाद ने भारतीय अर्थव्यवस्था में मजबूती दी है . यानि रेसेसिओन के इस दौर में भी हमारी आर्थिक प्रगति ७ फीसद के करीब है तो इसका श्रेय गाँव को ही जाता है . लेकिन यह अर्थशास्त्र मेरी  समझ से यहाँ बाहर है . उद्योग के नाम पर दूर दूर तक कोई नामोनिशान नहीं है . लेकिन  हर चौक चौराहे पर देशी विदेशी शराव के ठेके मौजूद है . कोल्ड्रिंक से लेकर तमाम शहरी जीवन शैली लोगों की आम जरूरत में शामिल हो गयी है . अब यादव जी ने अपना खटाल बंद कर दिया है उनके बच्चों ने सुधा दूध का डिपो खोल दिया है ... अब भैस की जगह इनके दरवाजे पर सुबह सुबह मुजफ्फरपुर से गाडी आती है जो दूध से लेकर दही तक ,घी से लेकर लस्सी तक हर चीज लोगों को मुहैया करा जाती है ... ध्यान रहे यहाँ कोई उधार नहीं है ..एकदम नगदी वो भी कैश ....
क्या यह सबकुछ गाँव नेकुछ खोकर पाया है ...८० के दशक में गाँव से शुरू हुआ भारी पलायन ,ग्रामीण अंचलों में एक बड़ी त्रासदी के रूप में सामने आई . गाँव के तमाम पारंपरिक उद्योग ठप पड़ गए ,पहले मजदूरों का पलायन हुआ बाद में किसानो का ..
लेकिन इस पलायन ने गाँव की तस्वीर बदल दी ... लोगों के स्टाइल बदल दिए ,यहाँ की संस्कृति बदल दी ..लेकिन क्या हमने जो चमक पाई है वह स्थायी है ... कभी मुंबई तो कभी दिल्ली तो कभी पंजाब तो कभी इंदौर हमें मुहं चिढ़ता है ,हमारे श्रम का उपहास करता है ,कभी खदेड़ता है तो कभी पुचकारता है . पंजाब में खेतिहर मजदूरों की कमी हो जाती है ,उनके सीजनल उद्योग में मजदूरों की कमी होती है तो हमारे सस्ते मजदूरों के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास करते है लेकिन काम निकलते ही ये मजदूर भइया बनजाते है ..बिहारी बन जाते है . बिहार से आया एक नौजवान मुझे एक सवाल करता है कि बिहार के गाँव के एक किसान पांच छः एकड़ के मालिक होते हुए भी दिल्ली और मुंबई में मजदूरी करता है लेकिन दिल्ली और मुंबई के एक आध एकड़ जमीं के मालिक करोड़ पति बन जाते है ... जमीन का यह अर्थशात्र हमारी व्यवस्था ने वनाई है ..पिछले ६० साल की हमारी व्यवस्था ने सिर्फ शहरों को बनाया है ,देश के संसाधन को झोंक कर शहरों की भीड़ बढा दी है लेकिन गाँव को तरक्की की धारा से पूरी तरह काट दिया है ... अभी जारी है ..... 

टिप्पणियाँ

मनोरमा ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Manorma ने कहा…
Achha laga aapke blog par aakar.

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