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अक्तूबर 4, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बुद्धिजीवियों के मुह बंद किए बगैर नक्सल को हराना मुश्किल

कोबाद गाँधी के लिए नक्सालियों का संघर्ष जारी है । कोबाड गाँधी सी पी आई माओवादी के पोलित ब्यूरो के अग्रिम पंक्ति के लीडर है । उन्हें पुलिस के गिरफ्त से बाहर निकलने के लिए नक्सली खून की नदियाँ बहा रहे है । और उधर रिलीज़ ऑफ़ पॉलिटिकल प्रिसोनेर्स नामकी एक फर्जी संस्था कोबाड गाँधी की रिहाई के लिए तथाकथित बुद्धिजीवियों को गोलबंद कर रही है । ध्यान रहे इसकी अगुवाई वही एस आर गिलानी कर रहे है जिनका तालूकात पुलिस ने पार्लियामेन्ट हमले से जोड़ा था । उधर लालगढ़ के खुनी आन्दोलन के नेता चक्रधर महतो की रिहाई के लिए महा श्वेता देवी से लेकर बंगाल के नामी गिरामी बुद्धिजीवी आन्दोलन पर उतारू है । ममता दीदी चक्रधर महतो को नक्सली नही मान रही है । महाश्वेता देवी उसे गरीबों के मशीहा मान रही है । ठीक उसी तरह जिस तरह डा विनायक सेन की गिरफ्तारी के विरोध में दुनिया भर के मानवाधिकार संस्था छत्तीसगढ़ सरकार की पीछे पड़ी हुई थी । यह नक्सली प्रचार का असर है या फ़िर तथाकथित बुद्धिजीवियों का नक्सली आन्दोलन से सीधे जुडाव यह बताना थोड़ा मुश्किल है । लेकिन इतना तो तय है नाक्साली को आधार दिलाने में जितना इन बुद्धिजीवियों ने भूमिक