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कश्मीर के लीडरानो को लूट में छूट क्यों है : :नरेंद्र मोदी

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जम्मू की रैली से नरेंद्र मोदी ने क्या सचमुच एक नयी बहस की शुरुआत की है। राजनैतिक पंडित  भले ही इसे  किसी राजनेता की व्यक्तिगत राय मान ले लेकिन धारा ३७० , समान कानून और सत्ता के केंद्रीकरण पर  मोदी के सवाल लोगों को आत्म मंथन के लिए मजबूर किया है। पिछले ३ वर्षों से राज्य के ३३ हजार पंचायती राज के नुमाइंदे अपने हक़ के लिए दर दर भटक  रहे है ,लेकिन उन पंचायतों को राज्य की हुकूमत  अधिकार देने के लिए  तैयार नहीं है। वजह लाखों -करोडो रु का केंद्रीय बजट है ,वजह रियासत की सत्ता में कुछ खानदानो का वर्चश्व बनाये रखना है। हालाँकि रियासत की सरकार धारा ३७० का हवाला देकर तमाम आरोपो को खारीज करती है। तो क्या धारा ३७० कुछ नेताओं का कवच है ,या यु कहे की लूट की छूट की गारंटी देता है। नरेंद्र मोदी ने धारा ३७० पर चोट करके बहस को गरमा दिया है।  .राजनैतिक इच्छाशक्ति के आभाव में हमारे राजनेताओ ने अक्सर सोफ्ट डिप्लोमेसी का सहारा लिया और  इस मुल्क को अंतहीन मुश्किलों में उलझा दिया .आज़ादी के 65 साल बीत जाने के बावजूद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से आये 2 लाख से ज्यादा शरणार्थी  रियासत जम्मू -कश्मीर में नागरिकत

पाकिस्तान से बेहतर रिश्ते की अपेक्षा क्यों है ?

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पिछले 23 वर्षों से पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ अघोषित  हमला बोल रखा है इन वर्षों में हमारे ९०  हज़ार से ज्यादा लोगों की जान गयी है .  इस छदम युद्ध में हमारे २०  हजार से ज्यादा जवान मारे गए है .लेकिन हरबार हमने अब और नहीं कह कर सिर्फ दुसरे हमले का ही इन्तजार किया है .आज अगर बीजेपी कांग्रेस को कारवाई करने के लिए उकसा रही है तो उन्हें भी यह याद दिलाने की जरूरत है कि  "ओपेरशन पराक्रम "के नाम पर उन्होंने भी पराक्रम दिखाने की कोशिश की थी लेकिन सरहद पर महीनो तक हुंकार भरने के अलावा कुछ हासिल नहीं किया जा सका। यानी पाकिस्तान पर हमले को लेकर जो अडचने १२ साल पहले थी वही आज भी है। यह बात अलग है कि अटल जी ने इस मजबूरी को डिप्लोमेसी के चासनी में भिगोकर भारत -पाकिस्तान के रिश्तो में कुछ पल के लिए मिठास जरूर ला  दिया था।  यह बात पाकिस्तान भी जानता है भारत एक ऐसा सोफ्ट स्टेट है जिसके पास कारवाई करने की न तो कोई राजनितिक इच्छाशक्ति है न ही उनमे एक संप्रभु राष्ट्र का जज्वा  । भारत शक्ति ,वैभव, ज्ञान के मामले में भले ही अपनी पहचान दुनिया मे  बनाए हो, लेकिन स्टेट के रूप में उसे हमेशा उसे एक

सरकारों की सियासत में एक टाईगर की हत्या

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बस्तर के इस टाइगर को किसने मारा ? क्यों इस टाइगर की मौत पर जश्न मना  रहे थे नक्सली ? वह टाइगर जिसने  पिछले १०  वर्षों में  ४० बार मौत को हराया था ,वह टाइगर जिसने नक्सल के खिलाफ अपने १५ से ज्यादा अजीजो को खोया था आखिरकार नक्सली हमले का शिकार बन गया  .महेंद्र कर्मा बस्तर का यह अकेला टाइगर जिसने दंडकारण्य के रेड्कोरीडोर में माओवादी अधिपत्य की चुनौती  दी थी ,जिसने न कभी केंद्र से न ही कभी राज्य सरकार से कोई मदद की दरकार की और माओवाद की छल -प्रपंच से आदिवासियों को आगाह कराया था .लेकिन आख़िरकार सियासत के प्रपंच में उलझ कर मारा गया .पिछले दिनों जगदलपुर के दरभा घाटी में अम्बुश लगाकर नक्सालियों ने महेंद्र कर्मा सहित २८ लोगों को मौत के घाट उतार दिया    महेन्द्र कर्मा को  गोली मारने के बाद नक्सली उनकी डेड बॉडी पर नाच रहे थे। तो क्या यह नक्सल आइडियोलोजी की जीत थी या फिर केंद्र के नक्सल अभियान अभियान की हार थी .?  घटना की समीक्षा के लिए रायपुर में  आपात बैठक हुई जिसमे  प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने सीधे पूछा कि इस घटना के लिए जिम्मेदार कौन है? शायद इस यक्ष प्रश्न का उत्तर उनके पास भी नहीं था

एक भारत, पाकिस्तान में

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आज़ादी के बाद यह पहला मौका है जब पाकिस्तान की  नॅशनल असेंबली और सरकार ने अपने  पांच साल पुरे किये हैं .विरासत से मिली जम्हुरियत (लोकतंत्र ) को वहां के जमींदारों ,राजनेताओ और फौज ने मिलकर    अस्मत लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी है .लेकिन सियासी तौर पर नाकाबिल घोषित आसिफ अली जरदारी ने वह कमाल दिखाया है जो कमाल अबतक भुट्टो से लेकर नवाज शरीफ तक नहीं दिखा पाए आसिफ अली जरदारी का सद्र बनना पाकिस्तान में सबको चौकाया था .लेकिन मिस्टर १० परसेंट के नाम से मशहूर इस कारोबारी ने बड़ी चालाकी से फौजी जनरल अशफाक कयानी को 2013 तक सेवा विस्तार देकर अपनी हुकूमत को फौज के तख्ता पलट की रिवायत से बचा लिया था  .यानी सत्ता के दो केंद्र बनाकर बेनजीर भुट्टो के पति सद्र जरदारी ने  सियासी  उथल -पुथल ,अव्यवस्था ,खुनी खेल और दहशतगर्दी से लहुलहान पाकिस्तान में तथाकथित स्थायी सरकार का एहसास दिलाया  . अपने पडोसी मुल्क भारत के सियासी सूरतेहाल से सबक लेकर जरदारी ने न केवल गठ्वंधन सरकार चलाने में महारत हासिल की बल्कि सत्ता के दो केंद्र बनाकर भारत के प्रधानमंत्री  मनमोहन सिंह के प्रयोग को पूरी तरह से आत्मसात किया .लोकप्रियत

पाकिस्तान ने दिलाया हमें 19 साल पुराने संसद के संकल्प की याद

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पाकिस्तान की नेशनल असेंबली के एक प्रस्ताव ने भारत की संसद को सोते से जगाया है .पाकिस्तान की नेशनल असेंबली ने अपने एक प्रस्ताव में अफजल गुरु की फ़ासी की निंदा की है ,साथ ही संसद हमले के गुनहगार अफज़ल के डेड बॉडी को कश्मीरको सौपने  की मांग की है .पाकिस्तान असेंबली ने कश्मीर मामले में दुनिया को अपनी दखल बढाने की भी मांग की है .जाहिर है इसकी प्रतिक्रिया भारत की संसद में भी होनी थी .एक बार फिर संसद ने सर्वसम्मति से  पाकिस्तान के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पास किया है .जम्मू कश्मीर सहित पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताते हुए संसद के प्रस्ताव ने पाकिस्तान को खबरदार भी किया है .लेकिन सवाल यह है कि  संसद अपने ही 19 साल  पुराने प्रस्ताव के आन वान और शान की रक्षा अबतक क्यों नहीं कर पायी है ? संसदीय परंपरा और जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति भारत की संसद दुनिया भर में एक विशिष्ठ स्थान रखती है .बहस और तीखी नोक झोक के बीच भारतीय संसद ने कई एतिहासिक फैसले लिए है .संसद के इन्ही संकल्पों ने देश में लोकतंत्र की महत्ता को मजबूती से स्थापित किया है ,लेकिन भारतीय संसद के कई एतिहासिक संकल्पों और

सियासत के चश्मे से अफज़ल की फ़ासी को मत देखिये

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 भूख हड़ताल और प्रोटेस्ट से यासिन मलिक का सियासी सरोकार है, लेकिन इस्लामाबाद में पाकिस्तान की एजेंसियों के सहयोग से आयोजित  हंगर स्ट्राईक का कुछ अलग सियासी मतलब है । अफज़ल गुरु की फांसी पर भले ही पाकिस्तानी हुकूमत देर से रद्देअमल दिया हो, लेकिन पाकिस्तान की दहषतगर्द तंज़ीमें और आईएसआई ने इसे मौक़े के तौर पर लिया।  यासिन मलिक के लिए ये सबसे बड़ा मौक़ा था कि वो हुर्रियत के दूसरे लीडरों को बता सकें कि हाफिज़ सईद से उनकी ज़्यादा नज़दीकियां  है। अलहदगी पसंद जमातो में  सियासी रुतबके का मतलब लष्करे तैयबा से दूरी नहीं, बल्कि नज़दीकी को माना जाता है। यही वजह है कि दूसरे हुर्रियत लीडरों ने हाफिज़ सईद से चोरी छिपे मिलने का बहाना ढूंढा, लेकिन यासिन मलिक ने इस मुलाक़ात को सार्वजनिक कर दिया।२३ जमातो के आल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस में घमासान इस बात को लेकर मची है कि अफ़ज़ल की मौत को कैसे भुनाया जाय .  पार्लियामेंट हमले की साजि़ष पाकिस्तान में रची गयी थी, ये बात पूरी दुनिया को पता है। लेकिन हमले में मारे गए पांच पाकिस्तानी दहषतगर्दों के लिए कभी भी नमाज़े जनाज़ा नहंी पढ़ा गया। जैश ए  मोहम्मद के

गणतन्त्र दिवस : कश्मीर मसले में गणतंत्र की भूमिका बढाने की जरूरत है

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64 वे गणतन्त्र दिवस के मौके पर यह तय करना जरूरी है कि हमारा लोकतंत्र 64 साल का बुढा हो गया है या इस उम्र में भी 64 साल का शैशव दिखता है .गणतन्त्र के संस्थापको ने जिस जिम्मेदरी से हमें एक संविधान दिया और उसपर चलने का हमसे वचन लिया था ,क्या हम उस उम्मीद पर खड़े उतरे हैं .लोकतंत्र के  एक दो स्तंभ को छोड़कर बाकी सभी सतून दरकते नजर आ रहे है।हमारे तमाम तारीखी धरोहर पर यह आरोप लगते हैं कि उसमे नए ज़माने के साथ बदलाव की जरूरत है लेकिन हमने यह पड़ताल करने की जरूरत नहीं समझी कि बदलाव हमारे सोच में हुई है और इस सोच में मुल्क का सवाल ,मर्यादा का सवाल ,सहिष्णुता का सवाल ,भाईचारे का सवाल पीछे छूट गया है .भारत -पाकिस्तान के बीच बढे तनाव के बीच कई मुद्दे एकबार फिर चर्चा में है .यह मीडिया की समझदारी कहिये या बडबोलापन मुद्दे को भड़का कर सरकार और व्यवस्था को दोड़ने के लिए मजबूर जरूर कर देता है लेकिन ऐसे कई सवाल है जिन पर मीडिया समाज को जोड़कर एक राय बना सकता है . सरकार के सामने पहल के लिए विकल्प दे सकता है लेकिन ऐसे मुद्दे पर सशक्त चौथा स्तम्भ खामोश है .मसलन जम्मू कश्मीर में धारा 370 और संयुक्त राष्ट

धृतराष्ट्र के हस्तिनापुर में" दामिनी" के साथ इन्साफ?

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भाई साहब !बलिया कहाँ है?.औटो ड्राईवर के इस सवाल ने पहले मुझे चौकाया लेकिन उसके दिमाग में चल रहे सवालो को जानने के लिए मैंने कहा उत्तर प्रदेश में ."नाक कटने से बच गयी " ऑटो ड्राईवर ने कहा मुझे लग रहा था बलिया बिहार में है और " दामिनी " बिहार की थी .इससे पहले वह कुछ और बोलता ,मैंने उसे टोकते हुए कहा ,भाई वह देश की बेटी थी ,वैसे भी बलिया बिहार का बॉर्डर इलाका है ,भाषा और संस्कृति से एक है .जी !सब कुछ ठीक है लेकिन घर का मामला थोडा ज्यादा शर्मिंदा करता है ड्राईवर ने कहा .मै उसके जवाब से सन्न था  .16 दिसंबर की रात जब देश की बेटी (जिसे ज़माने ने "अवला " का नाम दिया था मौजूदा दौर में मिडिया ने उसे "दामिनी "निर्भय जैसे कई नाम दिए है ) मदद के लिए गुहार लगा रही थी ,आधुनिक कौरवों के चीरहरण से व्यथित पीड़ित बेटी समाज को कृष्ण बनने के लिए दुहाई दे रही थी लेकिन मदद के हाथ कही से नहीं बढे, क्योंकि  वह अपने घर की बेटी नहीं थी .यह इन्द्रप्रस्थ है आज दिल्ली बन गयी है लेकिन यहाँ कौरब कल भी थे और आज भी है सिर्फ भूमिका बदल गयी है . जाड़े की ठिठुरती रात में हमारी ब