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हमारी पहचान की मैथिली हमारी डी एन ए में है : हारुण राशीद

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दिल्ली के मावलंकर हॉल में मिथिला विभूति स्मृति पर्व समारोह, मेरे लिए खास और प्रेरणादायक रहा। अखिल भारतीय मिथिला संघ के इस आयोजन की भव्यता मैथिल -मिथिला की भागीदारी से ज्यादा मंचासीन विद्वत जनो का सुनना और मिथिला-मैथिली के बारे में उनका व्यक्तिगत अनुभव मेरे जैसे अदना पत्रकार के लिए रोमंचक था। विशिष्ट अतिथि राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश जी का मिथिला को लेकर समझ और मैथिली की व्यापकता को लेकर उनका उदगार मेरे जैसे अनपढ़ मैथिल को शर्मिंदा कर रह था। हरिवंश जी वरिष्ठ पत्रकार/संपादक  रहे हैं लेकिन मैथिली भाषा में मिथिलानी के योगदान को उन्होंने एक समाजशास्त्री की तरह समझाया। बिहार विधान परिषद के सभापति हारुण राशीद ने उपस्थित दर्शक दीर्घा के बीच एक महत्वपूर्ण सवाल उछाला "के मैथिल सुपौल वाला मैथिल या दरभंगा मधुबनी वाला मैथिल "। हिन्दू मैथिल या मुसलमान मैथिल। ब्राह्मण के मैथिली या मिथिलांचल में रहनिहार के मैथिली। टूटल फुटल मैथिली बजैत हो या लच्छेदार मैथिली सब मैथिल छी। ई हमर ,हमर अंचल के मातृभाष अछि हमारा सबहक सामूहिक सामाजिक पहचान अछि।मिथिलाचल को जोड़ने के लिए हारुण साहब ने अटल बिहा

गुरुग्राम ,गली न-5 का चरवाहा विद्यालय ( विद्यादान की अनूठी परंपरा की साक्षी )

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शहरों की भागम भागम जिंदगी के बीच ,दिन रात निगेटिव ख़बरों के बौछार के बीच कभी दिल को सकून लगने वाली चीजें कम ही दिखाई देती है। लेकिन  गुरुग्राम के यूनिटेक हाउस के नजदीक सिलोखरा गांव के गली न. 5 की हलचल एक नए भारत की कहानी कहती है। शहर के ऑटो चालक ,माली ,गार्ड ,रेडी -पटरी वाले परिवरो के सपनो की  बुनियाद यह विश्वास है कि सिर्फ शिक्षा से जीवनस्तर बेहतर हो सकते हैं सरकारी अनुदानों और कर्जमाफी से नहीं  । सिर्फ शिक्षा -ज्ञान ही मानव मात्र के कल्याण का साधन हो सकता है। सिलोखरा गांव की  14 साल की  उमकी प्राइमरी एजुकेशन के बाद घर बैठ गयी थी ,छोटे मोटे काम करने को अभिशप्त हो गयी थी।  मजदूर पिता को किसी ने लोटस पेटल फाउंडेशन का नाम बताया। अगले दिन उमकी अपने स्कूल में कमल की तरह खिल  रही  थी।" प्रतिस्ठान लर्निंग" में उमकी ने शिक्षा ली और 12 वी  करने के बाद इसी लोटस के जरिये आई टी आई की ट्रेनिंग ली और आज अपने माँ बाप के सपनो को पूरा कर रही है।  स्कूल  ड्रॉपआउट  ऐसे दर्जनों बच्चो ने इस स्कूल से शिक्षित होकर गुरुग्राम के कई कॉर्पोरेटकंपनी में अपनी काबिलीयत से नौकरी पाई है। तक़रीबन 600 ब

अटल थे अटल हैं और अटल रहेंगे...

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अटल थे अटल हैं और अटल रहेंगे    .गीता का यह उपदेश  ' न दैन्यं न पलायनम् ' (   दीनता नहीं चाहिए , चुनौतियों से भागना नहीं , बल्कि जूझना जरूरी है ) यह उनके जीवन का दर्शन था। देश उनके जन्म दिन को सुशासन दिवस के रूप में मना रहा है लेकिन यह जानना भी जरुरी है क्यों अटल थे अटल हैं और अटल रहेंगे। उनके साथ 50 वर्षो तक साया की तरह रहे शिव कुमार जी बताते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर को लेकर अटल जी काफी संजीदा थे। उनकी इच्छा थी कि जनम भूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण हो। लेकिन सोमनाथ से अयोध्या की आडवाणी जी की रथ यात्रा का प्रस्ताव कार्यकारिणी में आया तो अटल जी ने इसका विरोध किया। उन्होंने कहा इससे विरोध बढ़ेगा। लेकिन कार्यकारिणी ने एक स्वर से रथ यात्रा का प्रस्ताव पारित किया। शिव कुमार जी बताते हैं कि जब आडवाणी जी की यात्रा को हरी झंडी दिखाने खुद अटल जी पहुंचे और भव्य यात्रा की शुरुआत की हरी झंडी दिखाई। उत्सुकतावस् उन्होंने अटल जी से पूछ लिया आपने जब विरोध किया था तब हरी झंडी दिखाने क्यों आये। अटल जी का जवाब था वह मेरा फैसला था और रथ यात्रा पार्टी का फैसला है ,उसे मानना मेरा कर्तव्य और धर्

नजरिये में फसी सियासत .....

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"सारी जिंदगी बैठ के खाइये सिर्फ 40 रूपये में " गली में  एक व्यक्ति जोर जोर से आवाज़ लगा रहा था। बाहर निकल कर करीब से   देखा तो वह व्यक्ति   लकड़ी का पीढ़ा बेच रहा था।(ग्रामीण पृष्ठभूमि में लोग  पीढ़े पर बैठ कर भोजन करते हैं )  हिंदुस्तान की सियासत में आम आदमी के लिए राजनेता  आज वही पीढ़ा बेच रहे हैं  । यानी नजरिये की सियासत में फसे लोग गली नुक्कड़ों में लगने वाली हर उस आवाज से प्रभावित हो रहे हैं जो उसे तात्कालिक लाभ का भरोसा देती   है। किसान कर्ज माफ़ी के लिए लालायित है ,मध्यम वर्ग ज्यादा से ज्यादा करों में छूट चाहता है ,अनाज से लेकर सारी चीजें सस्ती पाना चाहता है ,व्यापारी के लिए हर टैक्स उसके साथ धोखा   है। सरकारी कर्मचारी/अफसर अपने लिए हर सुविधा हर  चीज पक्की चाहता है ऊपरी आमदनी के साथ  । नौजवान तबका रोजगार चाहता है जो उनका हक़ है  । लेकिन इन चाहनेवालो में कोई यह चाहने की कोशिश नहीं कर रहा है कि मुफ्तखोरी से देश की बुनियाद नहीं बनती ,मुफ्तखोरी कभी अगली पीढ़ी के लिए  मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं दे सकती  । ऊपरी आमदनी कभी योजनाओं को जमीन पर नहीं उतार सकती।  लेकिन नजरिये में फसी

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा क्योंकि किसानों में आज भी अंसतोष है

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लेखक : प्रभाकर केलकर ,भारतीय किसान संघ         पिछले महीनो में देश के अनेक राज्यों में किसानों द्वारा अपनी मांगो को लेकर विधानसभा एवं संसद घेराव के मार्च का सिलसिला तेज हुआ है। किसान संगठनो की  अलग अलग सभाऐं हो रही है। जिनमें अनेक राजनैतिक दलों के झण्डे एवं नेता भी  शामिल होतें है और उत्तेजक भाषणों के साथ ये कार्यक्रम किसी अगली योजना के एलान के साथ समाप्त होते हैं... हर सभाओ में प्रमुख मुद्दे            1. कर्जमाफी  2.  पेंशन  3.  लाभकारी मूल्य  4. न्यूनतम समर्थन मूल्य ( MSP ) होते हैं ,लेकिन समाधान की पहल नज़र नहीं आती है।       विगत  30  वर्षो में अनेक सरकारें बनी    अनेक योजनाए भी सामने आयी  ,  पूरे देश में किसानों के नाम पर लगभग  3  लाख करोड़ की कर्जमाफी भी हुई लेकिन इन उपायों के वाबजूद किसानों की समस्याऐं समाप्त नही हुई । ये एक कटु सत्य है। उपरोक्त समस्याओं के उपाय पर विचार करने से पहले इसका विशलेषण करने का प्रयास करेगें कि देश के संचालन में कौन सी विचारधारा काम करती है। इसके लिये हमें देश व दुनिया में चलने वाली विचारधाराओं पर भी विचार करना होगा। सामान्यतः तीन प

प्रधानमंत्री नहीं पटवारी बदलिए राहुल जी !

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राजधानी दिल्ली में अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का किसान मुक्ति मार्च कई मामले में ऐतिहासिक रहा। सवालों की  बौछारों के बीच समाधान का सूत्र न तो मंचासीन राजनेताओ  ( एम पी निवास  के किसान नेता ) की ओर से आया न ही मंच सजाने  के लिए दूर दराज गाँव से आये किसान/मजदूरों से कर्जे के अलावा कोई समाधान की मांग उठी।  लेकिन मंच से राहुल गाँधी का सन्देश जरूर आया समाधान के लिए पीएम बदलना जरूरी है तो अरविन्द केजरीवाल जी ने अपना ब्रह्म वाक्य दुहराया " ये मोदी हानिकारक है "  समाधान सुझाने  वाले की दृष्टि मंच और भीड़ तक सिमित थी और किसानो की दृष्टि  अपने हजार /लाख कर्जे पर टीकी थी कि कब कर्ज माफ़ी का एलान हो जाय। लेकिन समस्या पीछ छूट गयी कि इस कर्जे के लिए जिम्मेदार कौन है ? क्या ग्रामीण अंचलों में भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबे  पटवारी/सिस्टम  इतने ताकतवर हैं  कि किसानो के फायदे की योजनाए डकार रहे हैं। और  सरकारे मूक दर्शक बनी हुई है ?  प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना देश के उन  चुनिंदा फ्लैगशिप योजनाओ में एक है जिसके बल पर प्रधानमंत्री देश और किसान की हालत  बदलने का दावा करते हैं लेकि

"मन की बात " यानी जन संवाद ,जनतंत्र का संवाद....

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"मन की बात " यानी जन संवाद ,जनतंत्र का संवाद ,लोकपरम्परा का संवाद यानी जनता  और एग्जीक्यूटिव का   टू वे कम्युनिकेशन।  क्या  जनतंत्र का  यह पहला प्रयोग है ? शायद नहीं ,प्राचीन  भारत के गणराज्यो में शासकों  से जनता का ऐसी   ही संवाद की परंपरा रही होगी। आधुनिक लोकतंत्र में पांच साल बाद जनता सिर्फ तय करती है कि सत्ता पार्टी को  जितना है या हराना है। गवर्नेंस में उसकी कोई भूमिका नहीं होती। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने   मन की बात कार्यक्रम के   50 वे एपिसोड में जोर देकर कहा  कि इस कार्यक्रम में सिर्फ आवाज़ उनकी है लेकिन भावना / विचार   देश के अवाम का है,आईडिया देश के युवाओं का है । आज़ाद भारत में   किसी प्रधानमंत्री की  संभवतः यह सम्भवतः पहली कोशिश है जिसमे संवाद को समावेशी बनाकर आम और खास के फर्क को कम किया गया है और देश के हर घर से संवाद स्थापित करने में कामयाबी मिली है। देश में ऐसे दर्जनों लोकप्रय अभियान चल रहे हैं इन  सरकार के अभियानों  के आईडिया का क्रेडिट पी एम ने युवाओ को दिया है , जिसके पास आईडिया की बड़ी पूंजी है लेकिन सरकारी सिस्टम में अबतक  उसकी कोई क़द्र नहीं थी  ,अगर आप स

जब फैक्स मशीन ने बदली कश्मीर की सियासत !

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गर्व करें या रोएं?,स्वार्थ की दौड़ में कहीं आजादी फिर से न खोएं। अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र न खोदो ,अपने पैरों आप कुल्हाड़ी नहीं चलाओ ,सत्ता की अनियंत्रित भूख...(अटल जी ) ... अटल बिहारी वाजपेयी की इस कविता ने शायद जम्मू कश्मीर के गवर्नर सत्य पाल मालिक को प्रेरणा दी और उन्होंने सत्ता पर काबिज होने की कश्मीर से उठी सियासी आंधी को फैक्स मशीन का सहारा लेकर रास्ता ही बदल दिया। राजभवन की फैक्स मशीन अटक गयी या फिर गुलाम नबी आज़ाद ने अपने 2008 के अपमान का बदला लेने के लिए मेहबूबा मुफ़्ती को भटका दिया। कभी मेहबूबा ने भी आज़ाद जी को कश्मीर में पैदल कर दिया था। क्या सही है ? कहना मुश्किल है लेकिन उधर सरकार बनाने की दो चिठ्ठी फैक्स मशीन में फंसी उधर मौजूदा विधान सभा भंग। गठबंधन की तमाम अटकले धरी की धरी रह गयी। दो साल पहले बीजेपी और पीडीपी के सत्ता समीकरण को बेमेल शादी करार देने वाले लोग ओमर अब्दुल्ला और मेहबूबा मुफ़्ती के सत्ता गठबंधन  को आदर्श शादी करार दे रहे थे। पीडीपी और बीजेपी की तथाकथित बेमेल शादी को लेकर बीजेपी मुल्क में एक आदर्श स्थापित करने की बात कह रही थी , कुछ लोग कश्मीरियत की शानद

मीडिया का स्वर्णिम काल ::आज़ादी तो शायद कुछ ज्यादा ही मिल गयी है !

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राष्ट्रीय प्रेस दिवस के मौके पर अपने भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने  कहा कि आज के समय में मीडिया पर दबाव बना पाना नामुमकिन है। इमेर्जेंसी और सेंसरशिप की बात तो सोची भी नहीं जा सकती क्योंकि बहुआयामी मीडिया प्रिंट, इलेक्ट्रनिक, वेब ,सोशल मीडिया जैसे तमाम माध्यम आज टेक्नोलॉजी की  बदौलत ओपेनियन मेकर्स की भूमिका में हैं और इसने लोगों को फ्रीडम ऑफ़ स्पीच की एक  बड़ी ताक़त दी है. हालाँकि  विश्वसनीयता (क्रेडिबिलिटी ) का सवाल कल भी था और आज भी है। लेकिन मेरा सवाल अपनी जगह दुरुस्त है क्या हमारे कुछ पत्रकारों /सम्पादकों ने जब तब इसी क्रेडिबिलिटी /शाख को नहीं बेचा है ? क्या पत्रकारों ने अपनी मार्केटिंग के जरिये क्रेडिबिलिटी नहीं बनायीं है  और उसे सियासी बाजार में जब तब  ऊँचे दामों में बेचा है ?  बड़े पत्रकारों के ऊँचे दाम की बोली दो दशक पहले नेताजी मुलायम सिंह ने लगाई थी । जब सूची बाहर आई तो कौन सूप और कौन चलनी सबके एक जैसे ही छेद और सबके जुबान  पर अलीगढ का ताला। लेकिन हम आजादी के रक्षक और चौथा स्तम्भ बने रहे। हमारे कुछ/सैकड़ो  पत्रकारों ने छोटे बड़े अख़बार लहराकर /कैमरा दिखाकर लखनऊ से दिल्ली

अयोध्या में दीपोत्सव यानी राजीव गाँधी के रामराज्य का शंखनाद !

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1989 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने अयोध्या से चुनावी रैली की शुरुआत की थी और  "रामराज्य" लाने का संकल्प दोहराया था। लेकिन पिछले वर्षो में ऐसा क्यों हो रहा है कि  जब कभी भी बात "अयोध्या" और रामलला की होती है  तो बहस सेक्युलर कम्युनल पर टीक जाती है । कौन हैं ये लोग जनमानस के राम को टीवी स्टूडियो में बैठा दिया है। पहलीबार   अयोध्या में आयोजित   भव्य दीपोत्सव में दक्षिणी कोरिया की प्रथम महिला किमजोंग सुक  मुख्य अतिथि के रूप में पधार रही हैं । आयोजन में दुनियाभर  के करीब 900 कलाकार प्रस्तुति देंगे ।  इंडोनेशिया के रामलीला के कलाकार  ओर श्रीलंका, रूस व त्रिनिदाद सहित अलग-अलग महाद्वीपों के कुल सात सौ कलाकार अपनी प्रस्तुति से भारत से अपने संस्कृति के रिश्तों की डोर मजबूत करेंगे।इस  भव्य दीपोस्तव के आयोजन में राम के घर वापसी का भाव है अयोध्यावासी की ख़ुशी में दुनियाभर से लोग पहुँच रहे हैं ।  फैजाबाद से गुजरती हुई ट्रेन में किसी यात्री ने कहा हम अयोध्या पहुंच गए हैं। सीट से जल्दी में उतरते हुए मैंने अपनी मां से पूछा था ,क्यों नीचे आ रही हो ?,माँ ने कहा था राज

15 साल जंगल राज बनाम सुशासन का 15 साल ? अब हम बिहारी नहीं हैं !

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सबसे ज्यादा अख़बार पढ़ने वाला बिहार ,अन्य राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा टीवी न्यूज़   देखने वाला बिहार, औसतन   सबसे ज्यादा मोबाइल फ़ोन धारक बिहार आज   नेतृत्व विहीन क्यों है ? ग्लोबल पावर के रूप में उभर कर सामने आया सोशल मीडिया में बिहार की उपस्थिति क्यों सिर्फ कुछ लफंगे की करतूतों को लेकर सिमट गयी है। क्यों पिछले 30 वर्षो में बिहार अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने में विफल रहा है ? क्यों कुछ    परिवार और मुठ्ठी भर लोगों के हाथों बिहार की सियासत कैद हो कर रह गयी है। क्या वजह सिर्फ चरम   जातिवाद है या प्रवासी बिहारियों का अपने राज्य के प्रति उपेक्षा ? वजह जो भी हो लेकिन इतना तय है कि देश के हर आंदलोन में अग्रणी भूमिका निभाने वाला क्रन्तिकारी   बिहार की बेबसी के लिए हम सब का जातिगत   अहंकार और लालच जिम्मेदार है।  2019 के लोक सभा चुनाव के लिए बिहार में  जीत का फॉर्मूला क्या है ? इस जीत के लिए नीतीश कुमार और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह 50 --50 पर अपनी रजामंदी दे चुके हैं ,राम विलास पासवान जी के पुरे परिवार को टिकट मिलना तय है। खबर यह भी है शायद राम विलास जी इस बार लोकसभा के प्रत्यासी न हों