गरीब का मसला जाति और मजहब से नहीं है...समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई...


गोरख पांडेय ने क्या खूब लिखा था "समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई...हाथी से आई, घोड़ा से आई......लाठी से आई, गोली से आई..लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद.. अदम गोंडवी ने इस समाजवाद कुछ इस तरह समझने कि कोशिश की .. "काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में ,उतरा है रामराज विधायक निवास में,पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत,इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में.आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह,जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में... गरीबी और गरीब से सियासत शुरू होती है और वही ख़तम हो जाती है लेकिन आम लोगों की स्थिति नहीं बदलती। गरीब एक बार फिर अगले चुनाव का मुद्दा हो जाता है और समाजवाद चालू आहे .... उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार भी कमोवेश उसी समाजवाद और उनकी डीएनए वाले नेताओ के रंग में रंगी लगती है।
कांग्रेस की तरह लोहिया जी के चेलों ने भी समाजवाद को पूंजीवाद के चासनी में डालकर एक अलग फार्मूला बना डाला और समाजवाद सिर्फ सत्ता हथियाने का जुगाड़ फार्मूला बन गया। पहले लोग कहते थे समजवादी और मेढक को तौलना बराबर का काम है लेकिन आज समाजवाद पूंजीवाद से सीख लेकर कांग्रेस की वंशवाद की परंपरा को आगे बढ़ा रही है और सत्ता हथियाने में फार्मूला पॉलिटिक्स का ईजाद किया है । यह उनके लिए भी आईना हो सकता है जो जाति के नाम पर सेना बनाते हैं लेकिन संवेदना के मामले में शून्य होते हैं। सुदामा पांडेय धूमिल ने इन प्रपंचो को समझने का बेहतर प्रयास किया था "जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं "
सत्ता और सिस्टम आज़ादी के 70 वर्ष बीत जाने के बाद भी यह तय नहीं कर पाया कि गरीब का मसला जाति और मजहब से नहीं है ठीक उसी तरह किसान और मजदूर का मसला एक नहीं है। सत्ता के लिए यह महज फार्मूला है। मसलन कभी समजवादी पूंजीवादी ताकतों से लोहा लेने के लिए एकजुट होते थे तो आज उनके लिए पूंजीवाद आदर्श है और हिन्दुत्वा सबसे बड़ी चुनौती बन गयी है। यानी चुनावी अंकगणित के आधार पर ये सारे पैतरे आजमाए जा रहे हैं। लेकिन पुत्र मोह/सत्ता मोह में फंसे समजवादी यह भूल जाते हैं कि अंतिम पंक्ति में खड़ा व्यक्ति भी आज अपनी बारी का इन्तजार कर रहा है।
देश के कई राज्यों में आज समाजवादियों ने सत्ता के जरिये सरकारी और गैर सरकारी संसाधनों पर कब्ज़ा करना व्यवस्था का हिस्सा मान लिया है। सरकारी बंगलों पर समजवादी अगर सिर्फ अपने बबुआ का मालिकाना हक़ समझता है तो आज जनता सब जानती है। एक सेवानिवृत ऑफिसर एस एन शुक्ला ने देश में एक नयी उम्मीद जगाई है। जनता के अरबो रूपये खर्च करके समाजवादियों ने सरकारी बंगले को अपनी निजी जागीर बना लिया था।
सिर्फ सत्ता अगर ध्येय है तो यकीन मानिये किसी भी दल का आज कोई चरित्र नहीं है। पूंजी और जातिवादी व्यवस्था ने कुछ खास लोगों को सियासत में स्थायित्व दिया हैै। एक ही चेहरे ने कई दलों से गुजरते हुए सत्ता को विचारधारा का कॉकटेल बना दिया है। उत्तर से दक्षिण तक अगर परिवार की सियासत ही परचम लहरा रही है तो माना जाएगा कि देश में नयी व्यवस्था लाने को आतुर जनता को अभी कुछ दिन और इंतज़ार करना होगा। अगर एक सन्यासी योगी उत्तर प्रदेश में चुनाव हार रहे हैं तो माना जाएगा कि व्यवस्था में जाति के बदले आम आदमी की ललक बढ़ाने में वे नाकामयाब रहे हैं।
देखना सुनना व सच कहना जिन्हें भाता नहीं
कुर्सियों पर फिर वही बापू के बंदर आ गये,कल तलक जो हाशिये पर भी न आते थे नजर, आजकल बाजार में उनके कलेंडर आ गये। . बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी , राम सुधि की झोपडी सरपंच की चौपाल में.... अदम गोंडवी... सियासत की आज यही नियति है

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