2019 क्या सल्तनत और संविधान के बीच चुनाव है ?
क्या 2019 सल्तनत बनाम संविधान की लड़ाई है जैसा प्रधानमंत्री मोदी मानते हैं । क्या 2019 सिर्फ भीड़ को सामने रखकर जातिगत फॉर्मूले से सत्ता पाने का जुगाड़ है। क्या नरेंद्र मोदी को सिर्फ जातीय समीकरण के बल पर रोका जा सकता है ? राहुल गांधी की कांग्रेस को महज दो सीट देकर क्या सपा -बसपा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के लायक नहीं माना है ? अगर उत्तरप्रदेश से ही दिल्ली का रास्ता है फिर कांग्रेस के लिए दिल्ली अभी दूर है ? आज़ादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी क्षेत्रीय क्षत्रपों ने क्या मतदाताओं को सिर्फ भीड़ नहीं माना है? लेकिन सबसे अहम् सवाल क्या हमारा लोकतंत्र इन वर्षों में जातीय और धार्मिक गठजोड़ से आगे नहीं बढ़ पाया है ? कई बार उत्तर प्रदेश ने इस सवाल का जवाब दिया है। अगर उत्तर प्रदेश को 2017 में सपा और कांग्रेस का साथ पसंद नहीं आया तो यकीन मानिये 2019 में भी बुआ और बबूआ का साथ पसंद नहीं आएगा। अखिलेश जी मानते हैं कि उन्होंने यू पी फतह का फार्मूला बीजेपी से सीखा है। मायावती कहती हैं कांग्रेस का वोट ट्रांसफर नहीं होता है इसलिए उसके साथ गठबंधन का कोई मतलब नहीं है। लेकिन बहिन जी भूल जाती हैं प