बिहार के गाँव का अर्थशास्त्र :सामाजिक न्याय के साथ विकास ?
मुझे आज भी याद है फोचाय मरर का गीत "कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ "इसी गीत से गाँव की सुबह की शुरुआत होती थी.. .फोचाय मरर के इस गीत के साथ शुरू होती थी कई आवाजे ..... मवेशियों के गले में बंधी घंटिया ,किसानो की चहल पहल ... दूर से आती धान कूटती ढेकी की आवाज ... उखल समाठ की आवाज ढप ढप ... अल सुबह की ये सारी आवाजे मिलकर एक मेलोडी बना रही थी. कह सकते हैं कि बिहार के गाँव की यह सास्वत पहचान थी . सामाजिक सरोकार का विहंगम यह दृश्य बिहार के हर गाँव मे मौजूद था . जहाँ हर आदमी और उसका श्रम समाज की दैनिक जरूरतों में शामिल था . अपने इसी गाँव को तलाशने मैं काफी अरसे के बाद गाँव पंहुचा था .फोचाय मरर के कखन हरब दुख मोर हे भोला नाथ सुनने के लिए मैं सुबह से ही तैयार बैठा था ... लेकिन न तो फोचाय मरर की आवाज सुनाई दी न ही कही से मवेशियों की घंटी की आवाज ,न ही कही किसानो की चहल पहल .. ढेकी और उखल न जाने कब के गायब हो चुके थे. गाँव का नैशार्गिक नैचुरल एम्बिएंस कहीं खो गए थे ..या यूँ कहें की गाँव पूरी तरह से निशब्द हो गया था। मायूसी के साथ मैं उठा उस एम्बिएंस को तलाशने जो