समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई.
समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई...हाथी से आई, घोड़ा से आई...... लाठी से आई, गोली से आई.. लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद.. गोरख पांडेय ने क्या खूब लिखा था। तब जब ये आज के समाजवादी कही चर्चा में नहीं थे। तो क्या कांग्रेस की तरह लोहिया जी के चेलों ने भी समाजवाद को पूंजीवाद के चासनी में डालकर एक अलग फार्मूला बना डाला ? तो क्या भारत में समाजवाद सिर्फ सत्ता हथियाने का जुगाड़ मंत्र बना और अपने ही भार से दब कर बिखर गया। पहले लोग कहते थे समजवादी और मेढक को तौलना बराबर का काम है लेकिन आज एक राज्य में पुत्र मोह में सरकार चली गयी तो एक राज्य में पुत्र ने सत्ता को परमानेंट बनाने के लिए पिता को ही बर्खास्त कर डाला। तो शायद गोरख पांडेय ने सही कहा था। परसों ले आई ,बरसो ले आई ,हरदम अकासे तकाई। समाजवाद उनके धीरे धीरे आई। समजवादी कभी फासीवादी ताकतों से लोहा लेने के एकजुट होते थे तो आज उनके लिए साम्प्रदायिकता सबसे बड़ी चुनौती बन गयी है। यानी ये सारे पैतरे सिर्फ वोट बैंक के लिए होता है। लेकिन बबुआ को सत्ता सौपने को आतुर समजवादी यह भूल जाते है कि अंतिम पंक्ति में खड़ा व्यक्ति भी आज अपनी बा