कश्मीर का सच : गांधी जी को यहाँ उम्मीद की किरण दिखी थी वह 1952 में क्यों ख़त्म हो गयी ?
सुबह सुबह लाल चौक पर सन्नाटा पसरा था। अमूमन यहाँ जुम्मे को छोड़कर हर दिन 9 बजे तक हलचल रहती थी। मेरी नज़र अपने अखबार वाले स्टॉल को ढूंढ रही थी। जल्दी जल्दी में वेंडर अख़बार समेट रहा था। मैंने पूछा क्या माजरा है ? आज फैसला होने वाला है ! अख़बार समेटते हुए उसने कहा, जल्दी लो। मैंने उसके उदास चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए कहा ,यह फैसला तो कई वर्षों से हो रहा है ! अख़बार वाला तपाक से बोला भाई मेरी तीन पीढ़ी गुजर गयी अबतक नहीं हुआ अब इमरान खान जोर लगा रहे हैं। पिछले 2 महीने से कश्मीर अदृश्य खौफ और छलावे के बीच फंसा है और अपना कारोबार ठप्प कर रखा है। दिल्ली के कुछ बड़े संपादक इसे सत्याग्रह कहते हैं लेकिन शायद यह भूल गए कि कश्मीरियत की जिस रौशनी में गाँधी जी को एक उम्मीद दिखी थी वह उम्मीद जम्मू कश्मीर के स्पेशल स्टेटस मिलने के बाद 1952 में ख़तम हो गयी। सिर्फ एक समुदाय की पहचान के नाम पर यहाँ आज़ादी से लेकर ऑटोनोमी की सियासत होती रही और आम जनता मुख्यधारा से कटकर सियासत की कठपुतली बनकर रह गयी। यह एक छलावा था जिसके शिकार पाकिस्तान भी हुआ है। 9 /11 हमले के बाद पाकिस्तान ने दहशतगर्दो के ख़िलाफ़ जंग म