मीडिया का स्वर्णिम काल ::आज़ादी तो शायद कुछ ज्यादा ही मिल गयी है !

राष्ट्रीय प्रेस दिवस के मौके पर अपने भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने  कहा कि आज के समय में मीडिया पर दबाव बना पाना नामुमकिन है। इमेर्जेंसी और सेंसरशिप की बात तो सोची भी नहीं जा सकती क्योंकि बहुआयामी मीडिया प्रिंट, इलेक्ट्रनिक, वेब ,सोशल मीडिया जैसे तमाम माध्यम आज टेक्नोलॉजी की  बदौलत ओपेनियन मेकर्स की भूमिका में हैं और इसने लोगों को फ्रीडम ऑफ़ स्पीच की एक  बड़ी ताक़त दी है. हालाँकि  विश्वसनीयता (क्रेडिबिलिटी ) का सवाल कल भी था और आज भी है। लेकिन मेरा सवाल अपनी जगह दुरुस्त है क्या हमारे कुछ पत्रकारों /सम्पादकों ने जब तब इसी क्रेडिबिलिटी /शाख को नहीं बेचा है ? क्या पत्रकारों ने अपनी मार्केटिंग के जरिये क्रेडिबिलिटी नहीं बनायीं है  और उसे सियासी बाजार में जब तब  ऊँचे दामों में बेचा है ? 
बड़े पत्रकारों के ऊँचे दाम की बोली दो दशक पहले नेताजी मुलायम सिंह ने लगाई थी । जब सूची बाहर आई तो कौन सूप और कौन चलनी सबके एक जैसे ही छेद और सबके जुबान  पर अलीगढ का ताला। लेकिन हम आजादी के रक्षक और चौथा स्तम्भ बने रहे। हमारे कुछ/सैकड़ो  पत्रकारों ने छोटे बड़े अख़बार लहराकर /कैमरा दिखाकर लखनऊ से दिल्ली तक सैकड़ो सरकारी घर हथियाली /अपना फार्म हाउस और कंपनी बनाली क्योंकि जो सिलसिला नेताजी ने शुरू किया था उत्तर प्रदेश में वह सिलसिला मायावती ,अखिलेश तक जारी रहा। इन दिनों कुछ स्टाइल में परिवर्तन आया है अब सूचना विभाग के जरिये शासन सीधे चैनेलो /मीडिया संस्थानों को उपकृत करता है। सरकारी फिल्म के रूप में चैनल एक मोटी रकम पा लेते हैं तो अख़बारों ने इवेंट के जरिये शासन से मिलने वाली सहूलियत को लीगल बना दिया है।  यही सूरत लगभग  हर राज्य में है। राडिया जी याद है न ! उनके सम्पर्को की कहानी अभी लोगों ने भुलाया नहीं होगा? आज जिन पत्रकारों को लोकतंत्र खतरे में दिख रहा है एक दौर ऐसा भी था जब  वो केंद्र में कौन विभाग किसे मिले यहांतक कि  मंत्रियों की सूची में भी अपनी अपनी दखल रखते थे। क्योकि लोकतंत्र में चौथा स्तम्भ होने के नाते  इतनी सी जिम्मेदारी तो ये वरिष्ठ पत्रकार ले ही सकते थे ।


पाकिस्तान के वरिष्ठ संपादक खालिद अहमद ने अपनी रिपोर्ट में एक किताब के हवाले जिक्र किया है कि 90 के दशक में बेनजीर भुट्टो को सत्ता से बेदखल करने के लिए यूनुस हबीब नामके एक बैंकर्स /उद्योगपति ने तत्कालीन सद्र गुलाम इशाक खान ,,आर्मी चीफ असलम बेग ,आई एस आई चीफ दुर्रानी के बीच 14 करोड़ रूपये बांटे थे। बाद में यह मामला अदालत के संज्ञान में भी आया लेकिन पाकिस्तान में मीडिया और डेमोक्रेसी अनवरत फ़ौज के साथ जूझ रही है और पस्त होती रही है। लेकिन ठीक चुनाव से पहले एक अंग्रेजी अखबार में तख्ता पलट की खबर तो भारत में भी छपी थी तब ना  जाने उस  बड़ी खबर का क्या उद्देश्य था।

देश की आज़ादी से लेकर अबतक  प्रेस /मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पत्रकार महात्मा  गांधी जी भी रहे है , पत्रकार कई महान स्वतंत्रता सेनानी भी रहे हैं। पत्रकार अटल जी भी रहे है और इस दौर में पत्रकार हम भी है। जाहिर है एक रेखा खींचनी जरुरी है क्योंकि  उस दौर में पत्रकारिता मिशन थी आज प्रोफेशन है। यानी तपस्वियों और त्यागियो की संस्था जबसे बाजार से मुखातिव हुई प्रेस कम दूकान ज्यादा बन गयी है।लेकिन सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने आज बड़े संस्थानों के ओपेनियन मेकर्स की भूमिका को गौण कर दिया है। खबर और विश्लेषण  दोनों सोशल मीडिया पर मौजूद है। दिक्कत क्रेडिबिलिटी की है जिसे कुछ लोग लाइक /फॉलो /शेयर के लोभ में सनसनी बनाते हैं तो कुछ लोग फेक न्यूज़ का हिस्सा बनकर अपने 24 /7  आलोचना करने की अपनी सनक और अधिकार को बरकरार रखना चाहते हैं। लेकिन इतना तय है लोकतंत्र आज ज्यादा  मजबूत हुआ है आज़ादी तो शायद कुछ ज्यादा ही मिल गयी है ,बिहार और कुछ राज्यों में छेड़खानी ,बदतमीजी ,प्रतिशोध जैसी हरकतों की विडिओ सोशल मीडिया पर डाल कर हम न जाने कौन सा लोकतंत्र बना रहे हैं ।   

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