जब फैक्स मशीन ने बदली कश्मीर की सियासत !

गर्व करें या रोएं?,स्वार्थ की दौड़ में
कहीं आजादी फिर से न खोएं। अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र न खोदो ,अपने पैरों आप कुल्हाड़ी नहीं चलाओ ,सत्ता की अनियंत्रित भूख...(अटल जी )
... अटल बिहारी वाजपेयी की इस कविता ने शायद जम्मू कश्मीर के गवर्नर सत्य पाल मालिक को प्रेरणा दी और उन्होंने सत्ता पर काबिज होने की कश्मीर से उठी सियासी आंधी को फैक्स मशीन का सहारा लेकर रास्ता ही बदल दिया। राजभवन की फैक्स मशीन अटक गयी या फिर गुलाम नबी आज़ाद ने अपने 2008 के अपमान का बदला लेने के लिए मेहबूबा मुफ़्ती को भटका दिया। कभी मेहबूबा ने भी आज़ाद जी को कश्मीर में पैदल कर दिया था। क्या सही है ? कहना मुश्किल है लेकिन उधर सरकार बनाने की दो चिठ्ठी फैक्स मशीन में फंसी उधर मौजूदा विधान सभा भंग। गठबंधन की तमाम अटकले धरी की धरी रह गयी। दो साल पहले बीजेपी और पीडीपी के सत्ता समीकरण को बेमेल शादी करार देने वाले लोग ओमर अब्दुल्ला और मेहबूबा मुफ़्ती के सत्ता गठबंधन  को आदर्श शादी करार दे रहे थे। पीडीपी और बीजेपी की तथाकथित बेमेल शादी को लेकर बीजेपी मुल्क में एक आदर्श स्थापित करने की बात कह रही थी , कुछ लोग कश्मीरियत की शानदार परंपरा को जिवंत करने की शानदार पहल बता रहे थे । वहीं पीडीपी ,एन सी के गठबंधन की प्रेरणा कश्मीर में मायावती -अखिलेश के "बुआ -बबुआ" के आदर्श  सियासी प्रेरणा बन रही थी तो 2015 में नीतीश -लालू जी की सियासी धोबिया पछाड़ की तरकीब को कुछ नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं ने कश्मीर में भी आजमाने की कोशिश की थी। वहीं बीजेपी को चित करने के लिए कुछ भी करेगा की नीति अपनाते हुए कांग्रेस ने कर्नाटका की तर्ज एन सी और पी डी पी के साथ होली। यानी खानदानी रूलिंग पार्टियों की जमात आज अपने लिए बीजेपी को सबसे बड़ा खतरा मान रही है और यही महागठबंधन का आदर्श है।
2019 और महागठबंधन का भूत राहुल गाँधी के सलाहकारों पर इस तरह हावी है कि वे भूल गए कि ऐसी ही नेक सलाह इन सलाहकारों ने 1984 में राजीव गाँधी को दी थी और राजीव गाँधी -फ़ारूक़ अब्दुल्लाह के बीच गठबंधन कराकर कश्मीर में ऑपोजिशन की सियासत के लिए पाकिस्तान परस्त जमाते इस्लामी को खुला सियासी मैदान दे दिया था । सैयद अली शाह गिलानी से लेकर हिज़्बुल मुजाहिदीन के सरबरा सैयद सलाहुदीन की सियासत इसी दौर में अपनी जड़ें ज़माने में कामयाब हुई थी। यह वही दौर था जब फ़ारूक़ अब्दुल्लाह अपने परिवार के साथ लन्दन भाग खड़े हुए थे। स्थानीय सियासी कार्यकर्ताओ ने आतंकवादियों की गोली खायी ,भारत की अस्मिता के लिए संघर्ष करते रहे लेकिन अपना संकल्प नहीं छोड़ा। लेकिन शेख परिवार पर आये संकट को देख कर राजीव जी ने फ़ारूक़ अब्दुल्लाह को उसी तरह स्थापित करने की कोशिश की जैसे कभी नेहरू जी ने शेख अब्दुल्लाह को बार बार कश्मीर में स्थापित किया था । सज्जाद लोन और पीडीपी के नेता मुज़फ्फर हुसैन बेग ने एक बार फिर इस खानदानी सियासत को चुनौती दी तो सेक्युलर सियासत का दम्भ भरने वाली कांग्रेस कश्मीर की सियासत को साम्प्रदायिक बना दी और सत्ता के इस समीकरण से जम्मू और लद्दाख को बाहर कर दिया।
पीडीपी के नेता इमरान अंसारी ने कश्मीर के दो खानदानो कि सियासी वर्चस्व को चुनौती देते हुए कहा है कि कश्मीर समस्या की वजह खानदानी सियासत है जिसमे कुछ परिवारों ने सत्ता और व्यवस्था पर कब्ज़ा जमा लिया है। इमरान अंसारी ,यासिर जैसे पीडीपी नेताओं का मानना है कि जम्मू कश्मीर में दो खानदानो का पावर शेयरिंग फार्मूला ने कश्मीर को उलझा दिया है। यह वक्त का तकाजा है कि कश्मीर के नेतृत्व में नए चेहरे सामने आये जो रियासत के आम अवाम की मुश्किलात को समझे।यासिर जैसे सैकड़ों लोग होंगे जो मानते हैं कि पिछले वर्षों में भारत सरकार ने अरबो रूपये कश्मीर मे इसलिए दिया है कि विकास की रफ़्तार के सामने अलगाववाद की आवाज धीमी पड़ जायेगी । लेकिन ऐसा नही हुआ । पैसे की बौछार से कश्मीर में रियल स्टेट में बूम जरूर आया है । कस्बाई इलाके में भी शोपिंग मौल खुल गए हैं । कश्मीर की सड़को पर महगी कारो की भरमार है। लेकिन जब भी अलगाववादी कश्मीर में अफवाह की आग भड़काती है तो जीवे जीवे पाकिस्तान की आवाज सड़कों पर गूंजने लगती है.... ।
भ्रष्टाचार के आकंठ मे डुबे कश्मीर के खानदानी सियासतदान कभी भी यह स्वीकार नही करते है कि मकामी लोगों का भरोसा उन्होंने खोया है बल्कि हर बार वे कश्मीर के लिए राजनैतिक पैकेज की दलील देते है और नाकामयाबी का सेहरा केंद्र के सर फोड़ देते है। लेकिन स्थानीय निकाय और पंचायतो के चुनाव में नए चेहरे सामने आने से लोगों में लोकतंत्र के प्रति आस्था बढ़ी है। पीडीपी -एन सी के चुनाव बायकाट के वाबजूद 75 फीसद लोगों ने मतदान में हिस्सा लिया है। अलगाववादी और मुख्यधारा की सियासत आज भी कश्मीर में कुछ परिवारों तक ही सिमित है। इनकी खानदानी सियासत के दर्शन को लोगों ने पर्दाफाश कर दिया है
क्योंकि इस देश में सिर्फ सियासत ही बहस का मौजू है ! सियासत और सिर्फ सियासत ही लोग मीडिया में सुनते हैं ।लेकिन यह सियासत अब तक लोगों को समझ नहीं आयी थी कि जो अलगाववादी भारत के संविधान को नहीं मानते ,वो सुप्रीम कोर्ट में संविधान की धारा 35 A को बरक़रार रखवाने के लिए लाखो रूपये फीस देकर दिल्ली में बड़े वकील क्यों रख रहे हैं ? क्या कांग्रेस ,क्या एन सी क्या पी डी पी क्या हुर्रियत कांफ्रेंस आर्टिकल 35A और धारा 370 को अपने लिए अपने वजूद का सवाल बना लिया है। वजूद के लिए लड़ने वाले इन तमाम नेताओं के दिल्ली सहित देश के बड़े शहरो में आलिशान मकान और बड़े कारोबार है। बच्चे देश में कही भी ऊंची तालीम और नौकरी ले सकते हैं लेकन भारत का कोई व्यक्ति कश्मीर में झोपडी नहीं डाल सकता। यही आर्टिकल 35 A है जिसे देश के सबसे विद्वान प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने प्रेसिडेंशियल आर्डर के जरिये स्पेशल अधिकार दिलवाया था। जो आर्डर बगैर संसद के सहमति से संविधान का हिस्सा बन गया था। लेकिन संसद खामोश है ,अबतक न्यायलय खामोश रहा है। देश बदल रहा है जाहिर है कश्मीर की सियासत भी बदल रही है भले यह क्रेडिट इस बार फैक्स मशीन को ही मिला है।

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