और कितने राज्य पहले एक देश तो बनालो
मुझे कल रात एक मित्र का फोन आया .सियासत से उनका दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है लेकिन पहलीबार उन्होंने सियासी मैदान मे कूदने की इच्छा जताई . उनके हिसाब से यह एक अच्छा मौका है .तैयारी के नाम पर उनके पास गाँधी जी का सत्याग्रह का अस्त्र है . चन्द्र शेखर राव की तरह वे आमरण अनसन पर भी जा सकते है ,अगर मिडिया उनका साथ दे . यानी उनके आमरण अनसन की पल पल की खबर देकर मिडिया उनके पक्ष में एक माहोल जरूर बना सकती है .लोग उनके साथ नहीं है तो क्या हुआ मीडिया के जरिये वे लोगों के बीच जरूर पहुँच जायेंगे . मैंने पुछा आपकी मांग क्या होगी ? उनका जवाब था मिथिला राज्य .मिथिलांचल मांगने के पीछे उनका यह तर्क था कि बिहार का यह इलाका नेतृत्वा बिहीन है ,जाहिर है तरक्की के मामले मे भी बिहार में सबसे पीछे है . मैंने उनसे पुछा कि मिथिलांचल मे आपको कोई जानता नहीं कोई पहचानता नहीं फिर आपकी बात को लोग गंभीरता से लेंगे इसमें मुझे शक है . अति उत्साहित मेरे मित्र का मानना था कि मधु कोड़ा को कौन जानता था ,अर्जुन मुंडा को कौन जानता था ,बाबू लाल मरानादी को कौन जानता था .बी सी खंडूरी को कौन जानता था ,जब अलग राज्य बना तभी तो लोग इन्हें जान पाए ,तभी तो ये मुख्यमंत्री बन पाए .
मुख्यमंत्री और सत्ता पाने की कतार में देश के तकरीबन हर हिस्से में उत्साहित लोगों के बीच हलचल तेज हुई है ,
आनन् फानन में केंद्र सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य की घोषणा की तो क़तर मे विदर्भा ,हरित प्रदेश ,बुंदेलखंड ,पूर्वांचल ,महाकोशल ,बोडोलैंड ,गोरखालैंड ,कुर्ग ,सौराष्ट्र ,भोजपुर ,मिथिलांचल जैसे अनेक राज्यों की मांग तेज हुई है ,ये अलग बात है जहाँ मायावती जैसी मुख्यमंत्री है वहा इस सियासत को हवा मिली है बांकी जगहों पर अभी धरने प्रदर्शन का सिलसिला तेज करने की पहल तेज हुई है .
१९५० मे पहलीबार देश के निति निर्माताओं को लगा था कि भारत के मानचित्र को भाषाई आधार पर सजाने की पहल होनी चाहिए .लेकिन इस बीच आन्ध्र प्रदेश की मांग तेज हो गयी .आमरण अनसन पर बैठे पोट्टी श्रीरामुलु का ५८वे दिन के बाद देहांत होगया लेकिन केंद्र की सरकार टस से मस नहीं हुई .लेकिन श्रीरामुलु ने लोगों को आन्दोलन का एक सूत्र जरूर दे गए .१९५६ में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग ने भाषा को ही आधार बनाकर कन्नड़ ,मराठी ,मलयाली को अलग अलग राज्य देने की सिफारिश की थी . लेकिन भाषाई आधार बाद में बदल गए और नेताओं ने इसकी जगह पिछड़ेपन को आधार बनाया . लेकिन सवाल यह उठता है कि जिस तेलंगना की मांग १९६९ से की जा रही थी अचानक हालत में क्या परिवर्तन आया कि यह मांग २००९ मे आखिरकार मांग ली गयी . आखिर चंद्रशेखर राव के ११ दिनों की भूख हड़ताल ने केंद्र को इतना विचलित कर दिया कि उनके पास इसके अलावा कोई समाधान नहीं था .. नेतृत्वा के मामले मे तेलंगना में लगभग हासिये पर चले गए क्या चंद्रशेखर राव दुबारा इतने ताक़तबर हो गए कि केंद्र सरकार को उनकी मांग माननी पड़ी ?क्या आंध्र मे नेतृत्वा परिवर्तन की मांग करने वाले जमातों की साजिश के सामने केंद्र के नेतृत्वा इतने असहाय हो गए कि के रसोया को बचाने के लिए उन्हें चंद्रशेखर राव की जीद को माननी पड़ी ?अगर ऐसा हुआ है तो आंद्रप्रदेश के विधायको ने इस्तीफे की झड़ी लगाकर नेतृत्वा को यह बता दिया है कि १०० जूते के साथ १मन प्याज भी खाना पड़ेगा .
लेकिन जो सबसे गंभीर सवाल है वह चर्चा से अभी भी अलग है .यानी चंद्रशेखर राव अनसन पर थे मीडिया के अलावा किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन अचानक इस आन्दोलन में जैसे ही नक्सालियों ने अपनी भागीदारी बढ़ाई आन्दोलन का स्वरुप ही बदल गया .आन्दोलन स्कूल कॉलेज से निकलकर विश्वविद्यालय पहुँच गया ,आगजनी और पथराव आन्दोलन को हिंसक बना दिया लेकिन इसके लिए न तो राज्य सरकार तैयार थी न ही केंद्र .राजशेखर रेड्डी के दौर मे जो नाक्साली लीडर तेलंगाना छोड़ कर बस्तर में पनाह लिए हुए थे उन्हें राज्य की सियासत में दखल देने का मौका मिला और उनकी रणनीति भी पूरी तरह कामयाब हुई .जिस हिंसा के डर से केंद्र ने आधी रात को आन्ध्र प्रदेश विभाजन का फैसला लिया शायद इस बात को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया कि तेलंगाना के बहाने नाक्साली ने एक और इलाका जीत लिया है . अगर तेलंगाना का गठन भी होता है तो यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि फैयदे में कौन होगा चंद्रशेखर राव या लक्षमण राव और कोटेश्वर राव (प्रमुख नक्सली लीडर )रही बात पिछड़े तेलंगाना की तो झारखण्ड उसके सामने सबसे बड़ा उदहारण है . इसमें कोई दो राय नहीं कि आँध्रप्रदेश के लीडरों ने तेलंगाना को इन ४० वर्षों में शोषण ही किया है उसके संसाधन का भरपूर उपयोग करके दुसरे अंचलों को सजाया गया सवारा गया लेकिन तेलंगना उपेक्षित रहा .ये अलग बात है कि तेलंगना के नक्सल प्रभाव के कारण भी यहाँ विकास के काम प्रभावित रहे . लेकिन इस हालत की जिम्मेवारी भी तो उन्ही लीडरों की बनती है . हर .इलाके में विकास हो इसके कई आधार हो सकते है लेकिन पिछड़े इलाके के विकास के लिए मधु कोड़ा मॉडल ही क्यों सरकार के सामने आता है . बिहार से झारखण्ड को अलग करने के समय भी यही दलील दी गयी थी इससे आदिवासियों का समग्र विकास हो सकेगा . लेकिन नतीजा आपके सामने है . बीजेपी के तत्कालीन सरकार को यह उम्मीद थी कि झारखण्ड और उत्तराखंड बनने के बाद ये दो राज्य हमेशा उनके खाते में रहेंगे .लेकिन उन्हें यह मोहभंग होते देर नहीं लगी .
इस तरह हर हुकूमत ने अपनी सुविधा और अपने तात्कालिक सियासी फायदे के लिए देश को अबतक २८ टुकड़ों में बाटा है लेकिन इन वर्षों में एक देश बनाने का संकल्प कमजोर होता गया .गाँधी जी ने कहा ग्राम स्वराज के जरिये देश में लोकतंत्र को मजबूती दी जा सकती है हमारे लीडरों ने कहा देश को टुकडो में बाट कर सत्ता पाई जा सकती है .हमें यह याद रखनी चाहिए तेलंगना कोई अंतिम नहीं है यह सिलसिला आगे भी जरी रहेगा तब तक जब तक भारत मजबूत नहीं होगा .
मुख्यमंत्री और सत्ता पाने की कतार में देश के तकरीबन हर हिस्से में उत्साहित लोगों के बीच हलचल तेज हुई है ,
आनन् फानन में केंद्र सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य की घोषणा की तो क़तर मे विदर्भा ,हरित प्रदेश ,बुंदेलखंड ,पूर्वांचल ,महाकोशल ,बोडोलैंड ,गोरखालैंड ,कुर्ग ,सौराष्ट्र ,भोजपुर ,मिथिलांचल जैसे अनेक राज्यों की मांग तेज हुई है ,ये अलग बात है जहाँ मायावती जैसी मुख्यमंत्री है वहा इस सियासत को हवा मिली है बांकी जगहों पर अभी धरने प्रदर्शन का सिलसिला तेज करने की पहल तेज हुई है .
१९५० मे पहलीबार देश के निति निर्माताओं को लगा था कि भारत के मानचित्र को भाषाई आधार पर सजाने की पहल होनी चाहिए .लेकिन इस बीच आन्ध्र प्रदेश की मांग तेज हो गयी .आमरण अनसन पर बैठे पोट्टी श्रीरामुलु का ५८वे दिन के बाद देहांत होगया लेकिन केंद्र की सरकार टस से मस नहीं हुई .लेकिन श्रीरामुलु ने लोगों को आन्दोलन का एक सूत्र जरूर दे गए .१९५६ में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग ने भाषा को ही आधार बनाकर कन्नड़ ,मराठी ,मलयाली को अलग अलग राज्य देने की सिफारिश की थी . लेकिन भाषाई आधार बाद में बदल गए और नेताओं ने इसकी जगह पिछड़ेपन को आधार बनाया . लेकिन सवाल यह उठता है कि जिस तेलंगना की मांग १९६९ से की जा रही थी अचानक हालत में क्या परिवर्तन आया कि यह मांग २००९ मे आखिरकार मांग ली गयी . आखिर चंद्रशेखर राव के ११ दिनों की भूख हड़ताल ने केंद्र को इतना विचलित कर दिया कि उनके पास इसके अलावा कोई समाधान नहीं था .. नेतृत्वा के मामले मे तेलंगना में लगभग हासिये पर चले गए क्या चंद्रशेखर राव दुबारा इतने ताक़तबर हो गए कि केंद्र सरकार को उनकी मांग माननी पड़ी ?क्या आंध्र मे नेतृत्वा परिवर्तन की मांग करने वाले जमातों की साजिश के सामने केंद्र के नेतृत्वा इतने असहाय हो गए कि के रसोया को बचाने के लिए उन्हें चंद्रशेखर राव की जीद को माननी पड़ी ?अगर ऐसा हुआ है तो आंद्रप्रदेश के विधायको ने इस्तीफे की झड़ी लगाकर नेतृत्वा को यह बता दिया है कि १०० जूते के साथ १मन प्याज भी खाना पड़ेगा .
लेकिन जो सबसे गंभीर सवाल है वह चर्चा से अभी भी अलग है .यानी चंद्रशेखर राव अनसन पर थे मीडिया के अलावा किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन अचानक इस आन्दोलन में जैसे ही नक्सालियों ने अपनी भागीदारी बढ़ाई आन्दोलन का स्वरुप ही बदल गया .आन्दोलन स्कूल कॉलेज से निकलकर विश्वविद्यालय पहुँच गया ,आगजनी और पथराव आन्दोलन को हिंसक बना दिया लेकिन इसके लिए न तो राज्य सरकार तैयार थी न ही केंद्र .राजशेखर रेड्डी के दौर मे जो नाक्साली लीडर तेलंगाना छोड़ कर बस्तर में पनाह लिए हुए थे उन्हें राज्य की सियासत में दखल देने का मौका मिला और उनकी रणनीति भी पूरी तरह कामयाब हुई .जिस हिंसा के डर से केंद्र ने आधी रात को आन्ध्र प्रदेश विभाजन का फैसला लिया शायद इस बात को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया कि तेलंगाना के बहाने नाक्साली ने एक और इलाका जीत लिया है . अगर तेलंगाना का गठन भी होता है तो यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि फैयदे में कौन होगा चंद्रशेखर राव या लक्षमण राव और कोटेश्वर राव (प्रमुख नक्सली लीडर )रही बात पिछड़े तेलंगाना की तो झारखण्ड उसके सामने सबसे बड़ा उदहारण है . इसमें कोई दो राय नहीं कि आँध्रप्रदेश के लीडरों ने तेलंगाना को इन ४० वर्षों में शोषण ही किया है उसके संसाधन का भरपूर उपयोग करके दुसरे अंचलों को सजाया गया सवारा गया लेकिन तेलंगना उपेक्षित रहा .ये अलग बात है कि तेलंगना के नक्सल प्रभाव के कारण भी यहाँ विकास के काम प्रभावित रहे . लेकिन इस हालत की जिम्मेवारी भी तो उन्ही लीडरों की बनती है . हर .इलाके में विकास हो इसके कई आधार हो सकते है लेकिन पिछड़े इलाके के विकास के लिए मधु कोड़ा मॉडल ही क्यों सरकार के सामने आता है . बिहार से झारखण्ड को अलग करने के समय भी यही दलील दी गयी थी इससे आदिवासियों का समग्र विकास हो सकेगा . लेकिन नतीजा आपके सामने है . बीजेपी के तत्कालीन सरकार को यह उम्मीद थी कि झारखण्ड और उत्तराखंड बनने के बाद ये दो राज्य हमेशा उनके खाते में रहेंगे .लेकिन उन्हें यह मोहभंग होते देर नहीं लगी .
इस तरह हर हुकूमत ने अपनी सुविधा और अपने तात्कालिक सियासी फायदे के लिए देश को अबतक २८ टुकड़ों में बाटा है लेकिन इन वर्षों में एक देश बनाने का संकल्प कमजोर होता गया .गाँधी जी ने कहा ग्राम स्वराज के जरिये देश में लोकतंत्र को मजबूती दी जा सकती है हमारे लीडरों ने कहा देश को टुकडो में बाट कर सत्ता पाई जा सकती है .हमें यह याद रखनी चाहिए तेलंगना कोई अंतिम नहीं है यह सिलसिला आगे भी जरी रहेगा तब तक जब तक भारत मजबूत नहीं होगा .
टिप्पणियाँ
--abhinandan !
हर हुकूमत ने अपनी सुविधा और अपने तात्कालिक सियासी फायदे के लिए देश को अबतक २८ टुकड़ों में बाटा है लेकिन इन वर्षों में एक देश बनाने का संकल्प कमजोर होता गया
सही मायने में देश की चिंता ही किसे रह गई है। लूटो, खसोटो आैर मौजा ही मौजां की नीति पर सभी चल रहे हैं।