बुद्धिजीवियों के मुह बंद किए बगैर नक्सल को हराना मुश्किल
कोबाद गाँधी के लिए नक्सालियों का संघर्ष जारी है । कोबाड गाँधी सी पी आई माओवादी के पोलित ब्यूरो के अग्रिम पंक्ति के लीडर है । उन्हें पुलिस के गिरफ्त से बाहर निकलने के लिए नक्सली खून की नदियाँ बहा रहे है । और उधर रिलीज़ ऑफ़ पॉलिटिकल प्रिसोनेर्स नामकी एक फर्जी संस्था कोबाड गाँधी की रिहाई के लिए तथाकथित बुद्धिजीवियों को गोलबंद कर रही है । ध्यान रहे इसकी अगुवाई वही एस आर गिलानी कर रहे है जिनका तालूकात पुलिस ने पार्लियामेन्ट हमले से जोड़ा था । उधर लालगढ़ के खुनी आन्दोलन के नेता चक्रधर महतो की रिहाई के लिए महा श्वेता देवी से लेकर बंगाल के नामी गिरामी बुद्धिजीवी आन्दोलन पर उतारू है । ममता दीदी चक्रधर महतो को नक्सली नही मान रही है । महाश्वेता देवी उसे गरीबों के मशीहा मान रही है । ठीक उसी तरह जिस तरह डा विनायक सेन की गिरफ्तारी के विरोध में दुनिया भर के मानवाधिकार संस्था छत्तीसगढ़ सरकार की पीछे पड़ी हुई थी । यह नक्सली प्रचार का असर है या फ़िर तथाकथित बुद्धिजीवियों का नक्सली आन्दोलन से सीधे जुडाव यह बताना थोड़ा मुश्किल है । लेकिन इतना तो तय है नाक्साली को आधार दिलाने में जितना इन बुद्धिजीवियों ने भूमिका निभाई है उतनी भूमिका नाक्साली गुर्रिलाओं की भी नही है । छत्तीसगढ़ में नक्सली उत्पात के ख़िलाफ़ जब स्थानीय आदिवासी समूह ने सलवा जुडूम का अभियान तेज किया तो मानवाधिकारवादियों ने इसका जमकर विरोध किया । सलवा जदूम को बदनाम करने के लिए बुद्धिजीवियों ने एक अभियान छेड़ दिया । नक्सलियों के हाथों ४०० से ज्यादा सलवा जदूम के लोग मारे गए लेकिन कही भी उनके इन्शानी हकूक की चर्चा नही हुई । पिछले पाँच साल तक केन्द्र की कांग्रेस सरकार यह तय नही कर पायी कि नक्सल उत्पात से कैसे निपटा जाय । पूर्व गृह मंत्री शिवराज पाटिल इन्हे अपना भाई कहते थे और इस समस्या को कानून व्यवस्था से जोड़ते थे । शिवराज पाटिल के दौर में नक्सल हिंसा के शिकार मुख्यतया गैर कांग्रेसी राज्य थे , इसलिए गृह मंत्री अलग अलग सुर में बात करते थे । लेकिन उनके दौर में ७ राज्यों के ८० जिले नक्सल हिंसा से प्रभावित थे ,आज १३ राज्यों के २०३ जिले पर नक्सालियों का दबदबा है । आज कई राज्यों में नक्सालियों ने अपना रेड कोरिडोर बना लिया है । जहा सिर्फ़ नक्सल की हुकूमत है । आतंकवाद से प्रभावित जम्मू कश्मीर मे हिंसा का ग्राफ लगातार गिरता जा रहा है । इस साल अबतक जहा आतंकवादी हमले में १० लोगों की जाने गई है वही ७२ आतंकवादी मारे गए है जबकि आतंकवादियों के हमले में २० जवान शहीद हुए है । जबकि देश में हुए नाक्साली हमले में इस साल ३५० लोगों की जान गई है । वही २५५ सुरक्षवल के जवान मारे गए है । जबकि १३० नाक्साली को मारे जाने का दावा किया जा रहा है । नाक्साली हमले को लेकर सरकार की गंभीरता को इस तरह समझा जा सकता है ' गढ़चिरोली में नाक्साली हमले में १८ पुलिसकर्मी मारे गए । एक घायल पुलिसकर्मी यह सवाल करता है कि' मुंबई के २६/११ हमले मे शहीद होने वाले पुलिसकर्मी और ओफ्फिसर्स को आप हीरो बनाकर पेश करते हो वह एक अकेली घटना थी लेकिन गढ़चिरोली मे रोज पुलिस वाले नक्सली हमले में मारे जा रहे है लेकिन घायलों को अस्पताल पहुचाने के लिए सरकार समय पर हेलीकॉप्टर की भी व्यवस्था नही कर पाती है । झारखंड के पुलिस ऑफिसर फ्रांसिस इन्दीवर को नक्सलियों ने गला रेत कर हलाक कर दिया । वजह नक्सली हर हाल में कोबाद गांधी और छात्र्धर महतो की रिहाई चाहते थे । लेकिन फ़िर भी कोबाड के लिए चक्रधर महतो के लिए तथाकथित बुधिजिवियो ने अभियान छेड़ रखा है । गढ़चिरोली में नक्सालियों ने कोबाद गाँधी की रिहाई के लिए जगह जगह पर पोस्टर चिपका रखे है ,उनके समर्थन में पुलिस वालों की हत्या कर रहे है लेकिन हमें यह बताया जा रहा है कि नक्सली सर्वहारा के लिए आन्दोलन कर रहे है । सरकार आर पार की लड़ाई का रोज रोज खुलासा का रही है । मिडिया को सरकारी सूत्रों के हवाले यह बताया जा रहा है कि २५ हजार पारमिलितारी फाॅर्स को इस ज़ंग में उतरा जाएगा । एयर फाॅर्स अरिअल स्ट्राइक की पर्मिस्सिओन मांग रहे है उन्हें आत्म रक्षा के लिए करवाई करने की इजाजत मिल रही है । रक्षा मंत्री के हवाले से यह बताया जाता है कि इस अभियान में आर्मी की कोई भूमिका नही होगी । यानि ज़ंग का ट्रेलर साउथ और नॉर्थ ब्लाक में ऐ सी चैंबर बैठे बाबू लोगों को मीडिया के जरिये हमें दिखा रहे है । इन्हे पूछा जाना चाहिए की लालगढ़ के ओपरेशन ग्रीन हंट का क्या हुआ ? बस्तर के जंगलों में कोबरा फाॅर्स के पहले अभियान मे कितने नक्सली मारे गए । आख़िर क्यों यह ऑपरेशन बंद हुआ और अब किस योजना के साथ हमारे जवान मैदान में उतर रहे है । याद रहे कि गढ़चिरोली मे पिछले दिनों राज्य के एलिट फाॅर्स को ही भेजा गया था । जिन्हें ३०० से ज्यादा नक्सली से सामना करना पड़ा और १८ लोगों ने व्यवस्था की नासमझी के कारण अपनी जान कुर्बान कर दी । यानि सरकार की पुरी तैय्यारी है लेकिन जंगल की खुफिया जानकारी के नाम पर उसके पास कुछ भी नही है । ग्रामीण इलाके में नक्सली आम लोगों का अपना ढाल बना रहे है तो शहरी इलाके में तथाकथित बुद्धिजीवी नक्सालियों के लिए माहोल बना रहे है । प्रचार प्रसार के मामले मे आज भी पाकिस्तान की खबरे प्रमुखता से छप रही है मीडिया के लिए आतंकवाद टी आर पी है ,लेकिन नाक्साली हमले मीडिया में शायद ही कोई जगह बना रही है । यानि शहरी आतंकवाद और ग्रामीण आतंकवाद को लेकर सरकार भी फर्क कर रही है और मिडिया भी । और इसका फायदा नाक्साली उठा रहे है । नक्सल के हर प्रोपेगंडा को ग्रामीण इलाके में सच माना जा रहा है ।बस्तर के एक छोटे से गाँव मारिकोदर में एक युवक की हत्या किसीने गोली मार कर करदी थी । गोली उसके पीठ में लगी थी । जाहिर है भागने के प्रयास में लगा उस युवक को दूर से गोली मारी गई थी । लेकिन अगले दिन इलाके में यह ख़बर फैली की पुलिस ने मंगलू को गोली मार कर हत्या कर दी है । पन्द्रह साल के मंगलू से पुलिस की क्या दुश्मनी हो सकती थी यह बताने के लिए कोई तैयार नही था लेकिन हर कोई दावे के साथ कह रहा था की यह हत्या पुलिस ने ही की है । वही २ किलो मीटर दूर पुलिस का एक नाका ,इन बातों से पुरी तरह अनभिज्ञ है । उसे इस घटना की कोई जानकारी नही है । और न ही पुलिस जंगल के इन आदिवासी इलाकों में इन वारदातों के लिए फिक्रमंद है । क्योकि यह नक्सल प्रभावित इलाका है और मौत यहाँ कोई बड़ी घटना नही है । लेकिन १५ दिन बाद उस गाँव में एक नया खुलासा सामने आता है । १४ अगस्त को जंगल से घर लौटे चार युवक ने बताया कि दरअसल उन्हें नक्सलियों ने अगवा कर घने जंगल के बीच ले गए थे । लेकिन मंगलू ने उन्हें चकमा देकर भागने की कोशिश की तो नक्सली ने उसे गोली मार दी । उनके लोगों ने गाँव में यह ख़बर फैलाई की पुलिस ने मंगलू को गोली मारी है । नक्सली मीडिया का विस्तार यहाँ तक़रीबन हर इलाके में है । मास मीडिया का इससे बेहतर उपयोग शायद ही हुकूमत कर सकती है जैसा नक्सली कर रहे है । दूसरी घटना कांकेर की है जहाँ से यह ख़बर आई कि नक्सलियों ने एक परिवार के आठ लोगों को जिन्दा जला दिया । मरने वालों में चार साल का बच्चा भी था । ख़ुद राज्य के मुख्यमंत्री ने इसके लिए खेद व्यक्त किया था । कांकेर पुलिस को जिस व्यक्ति ने यह सुचना दी थी ,बाद में वह व्यक्ति सीन से गायब हो गया । पुलिस इस ख़बर को हर हाल में पुष्टि करना चाहती थी । घटना स्थल पर जाने का मतलव था खतरे का बुलावा ,सो पुलिस फूंक फूंक कर कदम रख रही थी । दो दिन बाद पता चला कि यह फर्जी रिपोर्ट थी । इस बीच हत्या की ख़बर देने वाले रामायण विश्नुकर्मा भी पुलिस के गिरफ्त में आ गए । उन्होंने यह खुलासा कर के सबको लगभग चौका दिया था कि ऐसी रिपोर्ट पोलिस थाने में लिख्बने के लिए उन्हें नक्सलियों ने प्रेरित किया था । लेकिन महाराष्ट्र के गढ़चिरोली में पुलिस ने ऐसी साबधानी नही बरती और एक महिला के ग़लत सुचना के आधार पर कारवाई करने पहुँची पुलिस पार्टी के १८ जवान सहित एक ऑफिसर मारे गए । ये नक्सली प्रचार का असर है कि सात राज्यों के ग्रामीण और जंगल के इलाके में नक्सली अपना दबदवा बरक़रार रखते हुए अपना पैर दुसरे राज्यों में फैला रहा है । नक्सालियों के खुफिया तंत्र कितना मजबूत है इसका अंदाजा लालगढ़ ऑपरेशन से लगाया जा सकता है । केन्द्र सरकार की यह ताजा पहल लगभग बेकार साबित हुई है । राज्य सरकार के निकम्मेपन की मार केंद्रीय फाॅर्स को भी झेलनी पड़ी । वेस्ट मिदनापुर के तक़रीबन १०००० गाँव में फैले नाक्साली प्रभाव को नाकाम इसलिए नही बनाया जा सका क्योंकि आम लोगो के बीच सरकार से कोई संवाद नही था । पारा मिलिटरी फाॅर्स खुफिया जानकारी के बगैर पुरे महीने इधर उधर हाथ पैर मरती रही लेकिन न तो कोई नाक्साली कमांडर पकड़ा गया न ही सुर्क्षवालों को नाक्साली ठिकाने का पता लग पाया । नाक्साली हिंसा लाल गढ़ में जारी है । साफ़ है की नक्सल प्रचार के सामने सरकार बेवस है । बस्तर इलाके में लोक सभा चुनाव हुए विधान सभा चुनाव हुए लेकिन आज तक कोई उमीदवार नक्सल प्रभावित इलाके का दौरा नही कर पाया । आखिर इन इलाके के लोगों का कौन जनप्रतिनिधि है । अबुज्मार के जंगली इलाकों में रहने वाली एक बड़ी अवादी को नक्सालियों के अलावा आज तक सरकार के एक व्यक्ति से नही मिला है । इस हालत में कल्पना की जा सकती है एक केरल जैसा हरियाणा जैसे राज्य के भूभाग पर नक्सालियों का कब्जा सरकार कैसे हटा सकती है ?नक्सली बन्दूक से नही हारेंगे क्योंकि उन्होंने आदिवासी वस्तियों को अपना कबच बना लिया है । सड़क मार्गों पर नक्सालियों ने लैंड मैंस बिछा रखा है । लोगों से सरकार का संपर्क नही है। इस हालत में खुफिया जानकारी मिलना मुश्किल है । नक्सल के ख़िलाफ़ हमले से पहले गाँव से लेकर शहरों तक उसके प्रचारतंत्र को तोड़ना जरूरी है । पहलीबार केन्द्र सरकार ने माओवाद को लेकर अपनी गंभीरता दिखायी है । लालगढ़ ऑपरेशन से केन्द्र ने यह भी खुलासा किया है की नक्सल के खिलाफ्फ़ बल प्रयोग करने में कोई कोताही नही बरती जायेगी । लेकिन सवाल यह है कि ३० साल के बाद यह बात सरकार को समझ में आती है कि नाक्साली देश की संप्रभुता के लिए खतरा है और नाक्साली संगठन को आतंकवादी संगठन की फेहरिस्त मे रखा जाता है । वजह साफ़ है कि माओवाद को समझने और उसके प्रचार को हमने बहुत हलके में लिया है ।
टिप्पणियाँ
आज विदेशी शक्तियों को घुसपैठ में उतनी दिलचस्पी नहीं रही है,क्योंकि इन नक्सल तथा अन्य विभिन्न "वादियों" के रूप में उनके पास ऐसी शक्तियां उपलब्ध हैं,जिसने सहारे वे अधिक प्रभावशाली ढंग से देश को तोड़ पा रहे हैं...इसलिए कश्मीर में ध्यान देने की बाजे वे इन शक्तियों को सशक्त कर रहे हैं....उन्हें यह भी पता है कि खोखली बातों की गोली (हम आर पार की लड़ाई लडेंगे) चलने वाली हमारी सरकार कभी भी इन हिंसक समूहों को मिटने के लिए प्रतिबद्ध नहीं होगी ...इसलिए इस तरह से निश्चिंत होकर अपना काम कर रहे हैं...
आपने बिलकुल सही कहा बुद्धिजीवियों का एक बहुत बड़ा भाग इन्हें मजबूत करने का हर संभव प्रयास कर रहा है,राजनेताओं की बात तो छोड़ ही दीजिये...ऐसे हालत में हमारा कर्तब्य बनता है कि हम भी मुखर हो स्थिति को सबके सामने रखें...
मुझे समझ नहीं आता कि आज तक मैंने एक भी घटना ऐसी नहीं सुनी जिसमे नक्सलियों(तथाकथित मजलूमों को ) को किसी भ्रष्ट राजनेता,सरकारी अफसर या भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ हल्ला बोलते सुना हो...
पिछडे इलाकों को विकास से पूरी तरह काटकर ये कौन सी क्रांति लाना चाहते हैं,समझ से बाहर है...
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