सी एम अखिलेश की मन की बात


देश के सबसे कम उम्र और  सबसे बड़े प्रदेश के सीएम अखिलेश यादव को इस बात का मलाल है कि उनके ही प्रदेश के गांवों में रहने वाले लोग उन्हें नहीं पहचानते। युवा मुख्यमंत्री  अखिलेश ने कहा, "गांव के लोग तो मुझे पहचानते तक नहीं हैं।" मुख्यमंत्री कहते हैं कि कई मौके पर उन्हें इस कड़वी हक़ीक़त का सामना करना पड़ा है। आखिर इस रहस्योद्घाटन के पीछे सी एम का चिंतन क्या है यह समझने की जरुरत है। 
१. क्या गाँव के लोग इतने भोले हैं कि वे अपने सी एम तक  नहीं पहचानते ?
२. क्या सी एम अखिलेश अपना दर्द  बताना चाहते हैं कि वो जिनके लिए इतना कर रहे है वे उन्हें जानते तक नहीं ?
३. या फिर सी एम अखिलेश यह बताना चाह रहे हैं कि समाजवादी सरकार का असली मुखिया मुलायम सिंह यादव है. वे सिर्फ नेताजी के आदेश पालक हैं। 

राज्य के विपक्षी पार्टिया जब सी एम अखिलेश पर यह तंज करती है कि उत्तर प्रदेश में साढ़े चार मुख्यमंत्री है तो अखिलेश के हिस्से में आधा ही आता है। ।क्या इस स्थिति के लिए स्वयं नेताजी ,प्रो रामगोपाल ,शिवपाल यादव और आज़म खान जिम्मेदार है ? यकीनी तौर पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन सवाल, पहचान की संकट नहीं जिसे अखिलेश बताना चाह रहे हैं , यहाँ सवाल उनकी सरकार के इक़बाल को लेकर है।
दिल्ली के ग्रामीण इलाके में अपनी चुनावी यात्रा के दौरान हरकिशन लाल भगत ने एकबार अपनी लोकप्रियता की जांच करनी चाही। पानी भरी मटकी लिए आती कुछ महिलाओ को उन्होंने रोका और विनम्रता से कहा मैं भगत ,वोट मांगने आया हु। महिलाओं ने तीखा सवाल किया। क़े भगत ? नहीं जानती किसी भगत को। दिल्ली के चर्चित और मशहूर कांग्रेसी नेता हर किशन लाल भगत मायुूस जरूर हुए लेकिन हार नहीं मानी। महिलाओ को पुनः रोकते हुए कहा अरे ! कांग्रेस वाला हरकिशन लाला भगत। एक बुजुर्ग महिला आगे बढ़ कर सामने आई और भगत से पूछा इंदिरा की पार्टी से हो ! भगत ने सर हिलाया। महिलाओं ने आस्वस्त किया कि वोट उन्हें ही मिलेगा। पहचान की इसी संकट के कारण लाल कृष्ण आडवाणी ने पार्टी अध्यक्ष का पद अटल जी को सौप दिया था। जनता पार्टी के विघटन के बाद जनसंघ से बनी बीजेपी के सामने बड़ा सवाल अध्यक्ष पद का था। दक्षिण भारत के दौरे पर गए आडवाणी को किसी ने पूछा आप बाजपेयी की पार्टी से हैं। आडवाणी को अटल जी की लोकप्रियता समझते देर नहीं लगी थी। । 
१८ करोड़ की आवादी वाली उत्तर प्रदेश केंद्र की सत्ता की कुंजी अपने पास रखती है। ऐसे में अगर प्रदेश के मुख्यमंत्री को पहचान की संकट आन पड़ी है तो माना जाना चाहिए कि प्रदेश की जनता का कुछ भी भला नहीं होने वाला है। एन डी ए के दौर में आंध्रप्रदेश  के मुख्यमंत्री चन्द्र बाबू नायडू ने सरकार के समर्थन की भरपूर कीमत वसूली लेकिन पिछले दस वर्षो में यू पी ए को समर्थन देने वाली उत्तर प्रदेश की सरकारों ने सिर्फ अपने व्यक्तिगत मुकदमो का ही निपटारा किया। प्रदेश को कुछ नहीं मिला जो मिला ओ भ्रष्टाचार की भेट चढ़ गया। सी एम अखिलेश अभीतक व्यक्तिगत मुकदमे से दूर है व्यक्तिगत छवि भी सपा और बसपा के नेताओ से अलग है फिर भी अभीतक अखिलेश लोकभाषा की कहानी में शामिल नहीं हुए है तो माना जायेगा कि उनके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ नहीं है जो लोग उन्हें लोककथा के रूप में पेश कर सके। हर दौर में  राजा और शासक की अपनी अलग छवि और व्यक्तित्व ही इतिहास बना है वरना उनका नाम क्रोनोलॉजी के रूप में ही दर्ज होता है।
 आज देश के प्रधान मंत्री ,गृह मंत्री ,रक्षा मंत्री और न जाने दर्जनो संघीय मंत्री उत्तर प्रदेश से हैं और प्रदेश के मुख्यमंत्री पहचान संकट से जूझ रहे है तो यह भी माना जायेगा कि अखिलेश पी एम मोदी फोबिया से ग्रस्त है। यू पी में अपने बदौलत नरेंद्र मोदी ने ७३ लोकसभा सीटें जीती तो माना गया कि मोदी इस दौर में सबसे ज्यादा लोकप्रिय नेता हैं।  २०१२ में समाजवादी पार्टी जब पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई तो लोगों ने इसका श्रेय अखिलेश को ही दिया था। अगर आम अवाम ने २०१२ में अपना खेवन हार मान कर अखिलेश को एक उम्मीद से सत्ता पर काबिज किया था वही अवाम उन्हें २०१७ में कुर्षी से उतार भी सकते हैं लेकिन ऐसा इशारा अवाम ने अभी नहीं दिया है। सारे उपचुनाव अखिलेश ने जीते है फिर उन्हें जनता से कौन दूर कर रहा है? अखिलेश बार -बार अपनी घटती लोकप्रियता के लिए मिडिया को जिम्मेदार ठहराते हैं. वे दावा करते हैं कि उन्होंने सबसे ज्यादा  काम किया है लेकिन प्रचार नहीं हुआ है। लेकिन उन्होंने शायद पहलीबार स्वीकार किया है कि लोग उन्हें नहीं पहचानते। . 
वो कैसी पहचान चाहते है ? इसका खुलासा सी एम अखिलेश ने अभीतक नहीं किया है अगर सी एम अखिलेश नौकरशाह के हाथ में सत्ता सौप कर अपनी पहचान कायम रखना चाहते हैं तो शायद वे बड़ी भूल कर रहे हैं ,अगर वो सिर्फ मोदी को दिन रात निंदा कर अपनी पहचान चाहते हैं तो यह कभी संभव नहीं हुआ है , गाली देने वाला पीड़ित ही समझा जाता है। अगर वे वाकई अपनी पहचान चाहते हैं तो नेताजी और चाचाओं के खड़ाऊ ढोने के वजाय अपनी अलग पहचान बनाये जो नौकरशाह के कंधो पर लदे न दिखे।  वक्त ने अखिलेश को मौका दिया है यह अब उन्हें तय करना है कि आने वाली पीढ़ी उन्हें मुलायम सिंह के बेटे के रूप में याद करती है या फिर अखिलेश के रूप में। 

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