जीत कर भी क्यों हारते हें कश्मीर में
गुन्नार मिर्डल ने लिखा था कि इंडिया एक सॉफ्ट स्टेट है । कसौटी पर परखें तो आपको जरूर लगेगा कि भारत शक्ति ,वैभव, ज्ञान के मामले में भले ही अपनी पहचान बनाए हो लेकिन स्टेट के रूप में उसे हमेशा उसे एक लचर , ज्यादा विवेकशील , कुछ ज्यादा ही धैर्यवान शाशक से पाला पड़ा है। १९४७ से लेकर आजतक कश्मीर के मामले में हुक्मुतों के फैसले ने इस मुद्दे को सुलझाने के वजाय उलझाया ही है। जम्मू कश्मीर में मौजूदा सूरते हाल के लिए हुकूमत की अदूरदर्शिता ने ही छोटे से विवाद को तील का तार बना दिया है ।
अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ४० एकड़ जमीन दिए जाने के मामले को जिस तरीके से प्रचारित किया गया इसमें हुकूमत कि नाकामयाबी ही सामने आती है। पुरे मामले को लेकर श्रायण बोर्ड लडाई लड़ रही थी और राज्य कि सरकार चुप चाप तमाशा देख रही थी । पिछले साल कश्मीर में यह प्रचारित किया गया कि यात्रियों कि भारी भीड़ के कारण वातावरण प्रदूषित हो रहे हैं । प्रदुषण का तर्क देने वाले वही लोग थे जिन्होंने ७० किलो मीटर में फैले दल लेक को २ किलो मीटर में तब्दील कर दिया था । यात्रा के विरोध में उतरने वाले लोगों ने हिंदू पोलुशन , muslim पोलुशन के रूप में एक नई बहस छेड़ने कि कोशिश कि और सरकार चुप रही। श्रायण बोर्ड यह बार बार हवाला दे रहा था कि अव्लौंच प्रोन इलाके में बनने वाले इस अस्थायी शेड से यात्रियों कि मुश्किलें कम कि जा सकती है। याद हो कि १९९८ में उसी इलाके में २५० से ज्यादा लोग मारे गये थे । पिछले १५० साल से चलने वाली इस यात्रा में कभी स्वामी विवेकानंद भी शामिल हुए थे । जाहिर है शिव और सुंदर के आस्थावान लोगों के लिए अमरनाथ कि यात्रा जीवन कि बड़ी उपलब्धी होती है । चलते चलते यह बताना भी जरूरी है कि यह यात्रा एक ऐसी दुधारू गाय है जो बिना कुछ लिए स्थानीय लोगों के साथ साथ सरकारी खजाना को भी मालामाल करती है।
अफवाह और और कश्मीर का चोली दामन का साथ है। कुछ अलगावदी गुटों ने जब बालताल में बनने वाले अस्थायी शेड को कश्मीर कि डेमोग्राफी बदलने की साजिश करार दिया तो सरकार में शामिल पार्टी पी दी पी के साथ साथ नेशनल कांफ्रेंस भी अलगाववाद को हवा देने में कोई कसार नहीं छोड़ी । अफवाह का बाजार इतना गर्म किया गया कि लोग सड़कों पर उतर आए । ये वही लोग थे जिनकी पैदाइश ९० के बाद हुई थी । कश्मीर में अलगावबाद को खाली सिहासन दे दिया गया । नई पोध को सड़कों पर उतरे देख हुर्रियत उत्साहित थी । लेकिन क्या इस ओझी सियासत को नाकाम नही बनाया जा सकता था ? यह काम सरकार जरूर कर सकती थी लेकिन सरकार अपनी गद्दी बचने में जुट गई । आननफानन में कश्मीर के जानकर राज्यपाल एन एन वोहरा ने अमरनाथ श्र्याँ बोर्ड के अस्तित्व को ख़त्म किया ,तो सरकार ने श्रायण बोर्ड को दी गई जमीन वापस ले ली । कश्मीर के अलगाववाद जीत गयी और वहां कि कश्मीरियत हार गई । सरकार कश्मीर में फैली हिंशा को लेकर चिंतित नहीं थी उसे हर हाल में गद्दी बचानी थी । एक बार फ़िर यह संदेश दुनिया में गया कि जम्मू कश्मीर का मतलब सिर्फ़ कश्मीर से है और कश्मीर का मतलब सिर्फ़ २० फीसद सुन्नी मुसलमानों से है ।इन्ही २० फीसद में आतंकवादी भी हैं जो तथाकथित आजादी कि जंग लड़ रहे है , इन्ही में कुछ पाकिस्तान में जामु कश्मीर के विलय के लिए सियासी रूप में सक्रिय हैं । तो इन्ही में कुछ मुख्यधारा कि सियासत का दावा करते हें तो इसी २० फिषद के हाथ सरकारी इंतजामिया भी है। और हर बार बांकी ८० फीसद कि चिता को दरकिनार किया जाता रहा है। जमीन वापस लेने के क्रम में क्या सरकार ने जम्मू के हिन्दू कि चिंता की ? क्या सरकार ने कश्मीर के आदि निवासी पंडितों कि भावना कि चिंता की । क्या भारत के करोड़ों लोगों कि भावना का ख्याल रखा गया । पंडित नेहरू १ ९४८ में पाकिस्तानी फौज को कश्मीर से बाहर खदेड़ दिए जाने के बावजूद शेख अब्दुल्लाह के कहने पर संयुक्त राष्ट्र चले गए थे। राज्य के साबिक मुख्य मंत्री फारूक अब्दुल्लाह ने कहा था कि रियासत अपनी क्षमता से दो महीने भी अपनी खर्चा नहीं चला सकती । पिछले वर्षों में हमने पानी के तरह पैसा बहाया लेकिन कोशिश कभी नही हुई कि यह भारत मे बने रहने के लिए यह रिश्वत नही थी , बल्कि भारत के २८ राज्यों में एक जम्मू कश्मीर को यह फंड और पॅकेज इसलिए दिए जा रहे हें कि वह भारत का एक अभिन्न अंग है । कई अहम् फैसले लेने में हम चूक करते रहे है। यह चूक सरकार बार बार क्यों करती है? पाकिस्तान में मौजूदा हुकूमत भारत के काफी करीब है। ख़ुद कश्मीरी अलगाववादी आज कह रहे है कि उन्हें पाकिस्तान कि कोई जरूरत नहीं है । सरकार के सामने एक मौका है कि ओः चाहे तो कश्मीर के अलगाववाद को हमेश के लिए ख़तम कर सकती है । लेकिन सरकार हासिये पर चले गए अलगाववाद को जीवित कर रही है। कश्मीर के एक छोटे इलाके से हिंशा समाप्त करने के लिए सरकार ने आज पुरे देश में हिंशा फैला दिया है । इसे आप क्या कहेंगे ?
अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ४० एकड़ जमीन दिए जाने के मामले को जिस तरीके से प्रचारित किया गया इसमें हुकूमत कि नाकामयाबी ही सामने आती है। पुरे मामले को लेकर श्रायण बोर्ड लडाई लड़ रही थी और राज्य कि सरकार चुप चाप तमाशा देख रही थी । पिछले साल कश्मीर में यह प्रचारित किया गया कि यात्रियों कि भारी भीड़ के कारण वातावरण प्रदूषित हो रहे हैं । प्रदुषण का तर्क देने वाले वही लोग थे जिन्होंने ७० किलो मीटर में फैले दल लेक को २ किलो मीटर में तब्दील कर दिया था । यात्रा के विरोध में उतरने वाले लोगों ने हिंदू पोलुशन , muslim पोलुशन के रूप में एक नई बहस छेड़ने कि कोशिश कि और सरकार चुप रही। श्रायण बोर्ड यह बार बार हवाला दे रहा था कि अव्लौंच प्रोन इलाके में बनने वाले इस अस्थायी शेड से यात्रियों कि मुश्किलें कम कि जा सकती है। याद हो कि १९९८ में उसी इलाके में २५० से ज्यादा लोग मारे गये थे । पिछले १५० साल से चलने वाली इस यात्रा में कभी स्वामी विवेकानंद भी शामिल हुए थे । जाहिर है शिव और सुंदर के आस्थावान लोगों के लिए अमरनाथ कि यात्रा जीवन कि बड़ी उपलब्धी होती है । चलते चलते यह बताना भी जरूरी है कि यह यात्रा एक ऐसी दुधारू गाय है जो बिना कुछ लिए स्थानीय लोगों के साथ साथ सरकारी खजाना को भी मालामाल करती है।
अफवाह और और कश्मीर का चोली दामन का साथ है। कुछ अलगावदी गुटों ने जब बालताल में बनने वाले अस्थायी शेड को कश्मीर कि डेमोग्राफी बदलने की साजिश करार दिया तो सरकार में शामिल पार्टी पी दी पी के साथ साथ नेशनल कांफ्रेंस भी अलगाववाद को हवा देने में कोई कसार नहीं छोड़ी । अफवाह का बाजार इतना गर्म किया गया कि लोग सड़कों पर उतर आए । ये वही लोग थे जिनकी पैदाइश ९० के बाद हुई थी । कश्मीर में अलगावबाद को खाली सिहासन दे दिया गया । नई पोध को सड़कों पर उतरे देख हुर्रियत उत्साहित थी । लेकिन क्या इस ओझी सियासत को नाकाम नही बनाया जा सकता था ? यह काम सरकार जरूर कर सकती थी लेकिन सरकार अपनी गद्दी बचने में जुट गई । आननफानन में कश्मीर के जानकर राज्यपाल एन एन वोहरा ने अमरनाथ श्र्याँ बोर्ड के अस्तित्व को ख़त्म किया ,तो सरकार ने श्रायण बोर्ड को दी गई जमीन वापस ले ली । कश्मीर के अलगाववाद जीत गयी और वहां कि कश्मीरियत हार गई । सरकार कश्मीर में फैली हिंशा को लेकर चिंतित नहीं थी उसे हर हाल में गद्दी बचानी थी । एक बार फ़िर यह संदेश दुनिया में गया कि जम्मू कश्मीर का मतलब सिर्फ़ कश्मीर से है और कश्मीर का मतलब सिर्फ़ २० फीसद सुन्नी मुसलमानों से है ।इन्ही २० फीसद में आतंकवादी भी हैं जो तथाकथित आजादी कि जंग लड़ रहे है , इन्ही में कुछ पाकिस्तान में जामु कश्मीर के विलय के लिए सियासी रूप में सक्रिय हैं । तो इन्ही में कुछ मुख्यधारा कि सियासत का दावा करते हें तो इसी २० फिषद के हाथ सरकारी इंतजामिया भी है। और हर बार बांकी ८० फीसद कि चिता को दरकिनार किया जाता रहा है। जमीन वापस लेने के क्रम में क्या सरकार ने जम्मू के हिन्दू कि चिंता की ? क्या सरकार ने कश्मीर के आदि निवासी पंडितों कि भावना कि चिंता की । क्या भारत के करोड़ों लोगों कि भावना का ख्याल रखा गया । पंडित नेहरू १ ९४८ में पाकिस्तानी फौज को कश्मीर से बाहर खदेड़ दिए जाने के बावजूद शेख अब्दुल्लाह के कहने पर संयुक्त राष्ट्र चले गए थे। राज्य के साबिक मुख्य मंत्री फारूक अब्दुल्लाह ने कहा था कि रियासत अपनी क्षमता से दो महीने भी अपनी खर्चा नहीं चला सकती । पिछले वर्षों में हमने पानी के तरह पैसा बहाया लेकिन कोशिश कभी नही हुई कि यह भारत मे बने रहने के लिए यह रिश्वत नही थी , बल्कि भारत के २८ राज्यों में एक जम्मू कश्मीर को यह फंड और पॅकेज इसलिए दिए जा रहे हें कि वह भारत का एक अभिन्न अंग है । कई अहम् फैसले लेने में हम चूक करते रहे है। यह चूक सरकार बार बार क्यों करती है? पाकिस्तान में मौजूदा हुकूमत भारत के काफी करीब है। ख़ुद कश्मीरी अलगाववादी आज कह रहे है कि उन्हें पाकिस्तान कि कोई जरूरत नहीं है । सरकार के सामने एक मौका है कि ओः चाहे तो कश्मीर के अलगाववाद को हमेश के लिए ख़तम कर सकती है । लेकिन सरकार हासिये पर चले गए अलगाववाद को जीवित कर रही है। कश्मीर के एक छोटे इलाके से हिंशा समाप्त करने के लिए सरकार ने आज पुरे देश में हिंशा फैला दिया है । इसे आप क्या कहेंगे ?
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