क्या आप पत्रकार हैं ,मैं तो नहीं हूँ
न्यूज़ २४ के एक तथाकथित संपादक पिछले दिनों अपने एक ब्लॉग पोस्ट पर अख़बारों के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त कर रहे थे । संपादक महोदय ने दर्जनों अख़बारों को खंगाला ,पन्ना पलटा लेकिन उन्हें किसी पेज में संपादक का नाम नहीं दिखा । अख़बारों के प्रिंट लाइन से संपादक का नाम गायब हो जाना वे एक खतरनाक संकेत मानते है । मुझे नहीं मालूम कि बैग फ़िल्म के इस वरिष्ट संपादक का अख़बार से क्या सरोकार रहा है या यूँ कहे कि मीडिया से किस प्रकार का नाता रहा है क्योंकि न्यूज़ २४ की समाचार प्रस्तुति में ऐसा कभी कुछ नही दिखा जिस पर गर्व किया जाय और मेरे जैसे लोग कुछ सीख सके । प्रिंट मीडिया को नशिहत देने से पहले इन तथाकथित संपादको से यह निवेदन होगा कि वे अपने गिरेवान झांके तो उन्हें शायद यह एहसास होगा कि इसके लिए जिम्मेदार इलेक्ट्रानिक्स मीडिया ही है । अखबार पहले संपादक के नाम से जाना जाता था । मुझे याद है कि टाईम्स ऑफ़ इंडिया को गिरिलाल जैन के नाम से नहीं जानते थे बल्कि दिलीप पदगोंकर के नाम से जानते थे । एशियन एज को आज तक मै एम् जे अकबर के नाम से ही जानता हूँ । ये अलग बात है कि कुछ वर्ष पहले तक दिलीप पदगोंकर जैसे संपादक को हटाने के लिए मनाज्मेंट को भरी मशकत करनी पड़ती थी आज एक झटके में एम् जे अकबर जैसे संपादक की सेवा ख़तम हो जाती है । कभी अख़बार के संपादक की भूमिका विपक्षी लीडर के समतुल्य समझा जाता था । सरकार जितना संसद में उठने वाली आवाज से नहीं घबराती थी उससे ज्यादा अख़बारों की सुर्खियों से परेशान होती थी । लेकिन क्या आज ऐसी हालत हैं ? इसका उत्तर प्रिंट लाइन में संपादक के नाम ढूंढने से नही मिलेगा । इसका जवाब आज बाज़ार के पास है । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अख़बार के अस्तित्वा पर सवाल उठाया तो अख़बार मालिकों ने संपादक ढूंढने के बजाय मार्केटिंग मेनेजर को ढूंढा। पहले पेज से लेकर आखरी पेज तक रंगीन हो गए । समाचार की जगह चटपटी खबरे , रहस्य रोमांच ,सेक्स ,खान पकवान और फिल्मों ने ले ली । एक राष्ट्रीय दैनिक ने अपने पहले पेज को फ़िल्म का पोस्टर ही बना दिया । ख़बरों के लिए जगह कम कर दी गई और मसाले दार फीचर को तरजीह मिली । इस हालत में बताये अख़बारों को संपादक की क्या जरूरत होगी ? अख़बारों को अपनी प्रशंगिगता साबित करनी थी और बाज़ार की जबरदस्त उछाल ने अख़बारों को एक दो नही दर्जनों एडिशन निकालने के लिए प्रेरित किया ।
। "खिचो न कमानों को न तलवार निकालो ,जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो "यह कहाबत पुराणी हो गई ,अकबर इलाहबादी जैसे शायर भी पुराने हो गए । पत्रकारिता ने सेवा का चोंगा उतारकर धंधे का रूप ले लिया । यानि जौर्नालिस्म मिशन नही प्रोफ़ेस्सिओन हो गया । जब धंधा ही है तो एथिक्स क्या ? हमारे बुजुर्ग पत्रकारों ने जो ख्याति अर्जित की थी उसीका चोगा पहनकर हम पत्रकार बन गए और शाशन को डराने लगे लेकिन जल्द ही हमारी पोल खुल गई कि ये नकली है।। कुर्ता पैजामा की जगह हमने टी शर्ट और जींश धारण कर लिया । यानि नव्धनाध्य के हाथों आई मीडिया की डोर ने पत्रकारों की एक नई किस्म पैदा की । इस दौर में बिल्डर से लेकर प्रोपर्टी डीलर तक नेता से लेकर अभिनेता तक मीडिया की ताकत को पहचान कर उसे अपने लिए एक हथियार बनाया यानि पत्रकार का परिवर्तन मार्केटिंग एजेंट के रूप में हो गया ।
एन डी टीवी से रुखसत करने के बाद अपनी व्यथा कथा मे तत्कालीन ओउतपुट हेड अविनाश लिखते है कि पत्रकारिता सिर्फ़ एक धंधा बनकर रह गया है जिसे पत्रकारों का एक सिंडिकेट चला रहा है । नर्म दिल के इंसान अविनाश जी भूल गए है की जब देश ही सिंडिकेट चला रहा हो , पॉलिटिकल पार्टी सिंडिकेट के दम पर चल रही हो .तो मिडिया हाउस को सिंडिकेट चला रहा है तो इसमे आश्चर्य की क्या बात हो सकती है । अविनाश इतने आहात हुए है कि उन्होंने मीडिया से तौबा कर लिया है । अविनाश पत्रकार बनने आए थे , संपादक भी बन गए लेकिन खेल में शामिल नही हो सके । यही वजह है कि वे इस खेल से बाहर भी हो गए । उन्हें इस बात की पीडा थी कि एन डी टीवी सरकार का भोंपू हो गया । उन्हें इस बात की पीडा थी कि ख़बर के बदले वे प्रोपगंडा कर रहे है ।बीबीसी के एक मशहूर संपादक अपने यहाँ उसी को रिपोर्टर के लिए उपयुक्त मानता था ,जिसकी हॉबी पढ़ाई में हो , यानि जिस रिपोर्टर के हाथ में वे किताब नही देखते थे उसे वे रिपोर्टर मानने के लिए तैयार नहीं होते थे । लेकिन अपने मुल्क में हम जिस तरह की ख़बर देखते है क्या उसके लिए किसी किताब की जरूरत है ? "तीन घंटे में हो जाएगा ओसामा का सफाया ,ओसामा को जवाहिरी ने किया सम्मोहित ,फिजा के घर से चाँद गायब " प्राइम टाइम की खबरों में अगर ऐसी ख़बरों से ही हमें दो चार होना पड़े तो बताईये चैनल चलाने वालों को अविनाश की क्या जरूत है ।
हम अक्सर पाकिस्तान की मीडिया को उसे सरकारी भोंपू होने के लिए कोसते रहते है । लेकिन क्या हमारे पास ऐसे कोई उदहारण है जो साहस जीओ टीवी ने दिखाया है । भारतीय सैनिक के तोप की सुरक्षा कबच में कारगिल की रिपोर्टिंग करके हमारे कई पत्रकारों ने सुर्खियाँ बटोरी है । लेकिन क्या हमारे सामने मूसा खान खेल जैसा कोई आदर्श है जिसने तालिबान के कब्जे वाली स्वात वेळी में न केबल तालिबान के खिलाफ रिपोर्टिंग की बल्कि पाकिस्तानी फौज से भी दुश्मनी मोल ले ली । मूसा खान मारा गया लेकिन पाकिस्तान मेंआज कई मूसा खान पत्रकारिता के आदर्श को आगे बढ़ने के लिए संकल्पित है । अजमल आमिर कसब को पाकिस्तानी हुकूमत पहचानने के लिए भी तैयार नहीं थी लेकिन वहां के पत्रकारों ने दुनिया को दिखाया कि पाकिस्तान की हुकूमत झूठ बोल रही है । कह सकते हैं कि वर्षों से उपेक्षीत पाकिस्तानी मीडिया ने अपनी जगह बनने के लिए अपना जी जान न्योछाबर कर दिया है । वो कहते है कि हमारे पास खोने के लिए कुछ भी नही है । लेकिन मैं इसके आगे और कुछ इसलिए नही लिख रहा हूँ क्योंकि खोने का डर हमें लक्ष्मण रेखा पार करने की इजाजत नही देता .....
। "खिचो न कमानों को न तलवार निकालो ,जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो "यह कहाबत पुराणी हो गई ,अकबर इलाहबादी जैसे शायर भी पुराने हो गए । पत्रकारिता ने सेवा का चोंगा उतारकर धंधे का रूप ले लिया । यानि जौर्नालिस्म मिशन नही प्रोफ़ेस्सिओन हो गया । जब धंधा ही है तो एथिक्स क्या ? हमारे बुजुर्ग पत्रकारों ने जो ख्याति अर्जित की थी उसीका चोगा पहनकर हम पत्रकार बन गए और शाशन को डराने लगे लेकिन जल्द ही हमारी पोल खुल गई कि ये नकली है।। कुर्ता पैजामा की जगह हमने टी शर्ट और जींश धारण कर लिया । यानि नव्धनाध्य के हाथों आई मीडिया की डोर ने पत्रकारों की एक नई किस्म पैदा की । इस दौर में बिल्डर से लेकर प्रोपर्टी डीलर तक नेता से लेकर अभिनेता तक मीडिया की ताकत को पहचान कर उसे अपने लिए एक हथियार बनाया यानि पत्रकार का परिवर्तन मार्केटिंग एजेंट के रूप में हो गया ।
एन डी टीवी से रुखसत करने के बाद अपनी व्यथा कथा मे तत्कालीन ओउतपुट हेड अविनाश लिखते है कि पत्रकारिता सिर्फ़ एक धंधा बनकर रह गया है जिसे पत्रकारों का एक सिंडिकेट चला रहा है । नर्म दिल के इंसान अविनाश जी भूल गए है की जब देश ही सिंडिकेट चला रहा हो , पॉलिटिकल पार्टी सिंडिकेट के दम पर चल रही हो .तो मिडिया हाउस को सिंडिकेट चला रहा है तो इसमे आश्चर्य की क्या बात हो सकती है । अविनाश इतने आहात हुए है कि उन्होंने मीडिया से तौबा कर लिया है । अविनाश पत्रकार बनने आए थे , संपादक भी बन गए लेकिन खेल में शामिल नही हो सके । यही वजह है कि वे इस खेल से बाहर भी हो गए । उन्हें इस बात की पीडा थी कि एन डी टीवी सरकार का भोंपू हो गया । उन्हें इस बात की पीडा थी कि ख़बर के बदले वे प्रोपगंडा कर रहे है ।बीबीसी के एक मशहूर संपादक अपने यहाँ उसी को रिपोर्टर के लिए उपयुक्त मानता था ,जिसकी हॉबी पढ़ाई में हो , यानि जिस रिपोर्टर के हाथ में वे किताब नही देखते थे उसे वे रिपोर्टर मानने के लिए तैयार नहीं होते थे । लेकिन अपने मुल्क में हम जिस तरह की ख़बर देखते है क्या उसके लिए किसी किताब की जरूरत है ? "तीन घंटे में हो जाएगा ओसामा का सफाया ,ओसामा को जवाहिरी ने किया सम्मोहित ,फिजा के घर से चाँद गायब " प्राइम टाइम की खबरों में अगर ऐसी ख़बरों से ही हमें दो चार होना पड़े तो बताईये चैनल चलाने वालों को अविनाश की क्या जरूत है ।
हम अक्सर पाकिस्तान की मीडिया को उसे सरकारी भोंपू होने के लिए कोसते रहते है । लेकिन क्या हमारे पास ऐसे कोई उदहारण है जो साहस जीओ टीवी ने दिखाया है । भारतीय सैनिक के तोप की सुरक्षा कबच में कारगिल की रिपोर्टिंग करके हमारे कई पत्रकारों ने सुर्खियाँ बटोरी है । लेकिन क्या हमारे सामने मूसा खान खेल जैसा कोई आदर्श है जिसने तालिबान के कब्जे वाली स्वात वेळी में न केबल तालिबान के खिलाफ रिपोर्टिंग की बल्कि पाकिस्तानी फौज से भी दुश्मनी मोल ले ली । मूसा खान मारा गया लेकिन पाकिस्तान मेंआज कई मूसा खान पत्रकारिता के आदर्श को आगे बढ़ने के लिए संकल्पित है । अजमल आमिर कसब को पाकिस्तानी हुकूमत पहचानने के लिए भी तैयार नहीं थी लेकिन वहां के पत्रकारों ने दुनिया को दिखाया कि पाकिस्तान की हुकूमत झूठ बोल रही है । कह सकते हैं कि वर्षों से उपेक्षीत पाकिस्तानी मीडिया ने अपनी जगह बनने के लिए अपना जी जान न्योछाबर कर दिया है । वो कहते है कि हमारे पास खोने के लिए कुछ भी नही है । लेकिन मैं इसके आगे और कुछ इसलिए नही लिख रहा हूँ क्योंकि खोने का डर हमें लक्ष्मण रेखा पार करने की इजाजत नही देता .....
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