शिक्षा का अधिकार : सबसे बड़ा अप्रैल फूल


आज से हर बच्चे को होगा शिक्षा का अधिकार ,यानी कोई भी बच्चा या उसके माता पिता शासन से अपने बच्चो की पढाई लिखाई की व्यवस्था करने को कह सकता है . और शासन की यह जिम्मेदारी होगी कि उन बच्चो के लिए स्कूल की व्यवस्था कराये .शिक्षा बच्चों का मौलिक अधिकार होगा ,यानि इस अधिकार को लागू करवाना सरकार की वाध्यता होगी . लेकिन मेरे एक मित्र का फोन ने इस क्रन्तिकारी खबर पर एक ही पल मे पानी फेर दिया था .
राजधानी दिल्ली मे जिस वक्त प्रधानमंत्री इस एतिहासिक फैसले का एलान कर रहे थे ठीक उसी वक्त दिल्ली से महज ६ कि मी दूर गाज़ियाबाद ,शालीमार गार्डेन के तकरीबन २५० अभिवाक /माता -पिता अपने अपने बच्चो के स्कूल से निकाले जाने की खबर के साथ घर वापस लौट रहे थे .उनकी यह चिंता है कि अब अपने बच्चो का दाखिला कहाँ दिलावे . बच्चो के माता पिता का कहना है कि उन्होंने खेतान पब्लिक स्कूल के अनाप सनाप फ़ीस बढ़ोतरी का विरोध किया था ,लेकिन प्रबंधन ने अपना सख्त रबैया अपनाते हुए विरोध के स्वर को ही दबा दिया .मै जिस इलाके की बात कर रहा हूँ उस इलाके की आवादी ३ लाख से ज्यादा होगी लेकिन इस पुरे इलाके मे एक भी सरकारी स्कूल नहीं है .एक भी सरकारी अस्पताल नहीं है .रही बात स्कूलों की तो विकास प्राधिकरण की मेहरवानी से पार्को और सरकारी ज़मीन पर स्कूल बनाने की छूट कुछ पुजीपतियो ने ले ली लेकिन गरीब बच्चो के ओर से इन स्कूलों ने अपना मुह मोड़ लिया .आज अगर दिल्ली के आस पास इलाके मे शिक्षा को लेकर शासन और व्यवस्था का यह आलम है तो आप प्रधानमंत्री के इस क्रन्तिकारी फैसले के भविष्य का आकलन कर सकते है .
इस समय तकरीबन २२ करोड़ बच्चे है जिसे प्राथमिक शिक्षा की जरूरत है .इसमें से ४ करोड़ से ज्यादा बच्चे शिक्षा की इस कड़ी को तोड़कर मजदूरी मे लगे हुए है .यानि ४ करोड़ से ज्यादा बाल मजदूर अपने और परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी उठाये हुए है .लेकिन सरकार की यह जिद है कि इन तमाम बच्चो को स्कूल वापस लाये .यानी जिन परिवारों के रोजी रोटी का जरिया बाल मजदूर बन गए है उन्हें पहले भूख से आज़ादी दिलाये .लेकिन तमाम कड़े कानूनों के वाबजूद अगर बाल मजदूरी तेजी से फल -फूल रहे तो यह माना जायेगा की सरकार का यह क्रन्तिकारी फैसला भी एक दिन पानी मांगने लगेगा .

एक अनुमान के मुताबिक शिक्षा के इस अधिकार की बात को जमीन पर उतरने के लिए सरकार को तकरीबन २ लाख करोड़ रूपये जुटाने होंगे .इस मद मे वित् आयोग ने २५००० करोड़ रूपये राज्यों को देने की बात की है ताकि इस कानून को सख्ती से लागु किया जा सके .लेकिन सवाल यह उठता है कि सरकार के पास स्कूल है नहीं .स्कूल है तो अध्यापक नहीं है फिर इस कानून का क्या होगा .जहाँ सरकारी स्कूल नहीं है लेकिन कुकुर मुत्तो की तरह प्राइवेट स्कूल खुले है लेकिन गरीब के बच्चो के लिए उनके पास जगह नहीं है .अगर मौजूदा कानून इन प्राइवेट स्कूलों मे गरीब के बच्चो का नामांकन नहीं दिलवा पाया तो क्या शिक्षा के अधिकार के जोर पर खेतान ,डीपीएस ,गोयनका ,जेविर्स ,टगोर जैसे नामी गिरामी स्कूल अपने दरवाजे गरीब बच्चो के लिए खोल देंगे इसमें शक है .आज तमाम बड़े उद्योग पतियों के लिए स्कूल एक बड़ा कारोबार है .जिसके जरिये इनके  स्कूल शिक्षा नहीं, ख्वाब बेचते है .जहाँ माता पिता को यह आश्वस्त किया जाता है कि तुम पैसे दो बदले मे तुम्हारे  बच्चे को गाड़ी और बंगले वाली नौकरी मिलेगी .हमारे एक सहयोगी भुवन पन्त अपने तनख्वाह का  आधी से अधिक हिस्सा अपने एक बच्चा पर खर्च करता है .इस उम्मीद से कि अंग्रेजी स्कूल से पढ़कर उनका बच्चा एक हैसियत वाली नौकरी जरूर पा लेगा .पन्त जी को आरक्षण का पेंच पता है सो वो सरकारी नौकरी का ख्वाब नहीं देखते है लेकिन उन्हें इस बात का एहसास है कि अंग्रेजी की ताक़त से वह सम्माननीय जिन्दगी जरूर जी लेगा .औसतन भारतीय के इसी सम्मानीय जिन्दगी की चाहत को प्राइवेट स्कूलों ने  कैश किया है .गाँव से लेकर शहरों तक तथाकथित अंग्रेजी स्कूलों की बाढ़ आ गयी लेकिन गरीब बच्चो के लिए स्कूल नहीं खुल सके .
मिड डे मील की सरकारी योजना ने ग्रामीण इलाके मे बच्चो को स्कूल आने के लिए प्रेरित किया लेकिन नक्सल प्रभावित राज्यों मे यह योजना भी दम तोडती नज़र आई .सरकारी प्रयास से केबल बस्तर इलाके मे लगभग १.५० लाख बच्चो को स्कूल लाया गया .लेकिन पिछले साल इन बच्चो मे से ७५ हजार बच्चे स्कूल छोड़ चुके थे यानी दो पहर का भोजन का आकर्षण भी बच्चो को स्कूल नहीं बाँध पाया .या फिर यह भोजन सिर्फ कागजों पर परोसे जाते रहे और बच्चे भूखे रहे .यह योजना तब कामयाब हो सकती थी जब पके पकाए भोजन के बदले बच्चो को अनांज मिले जिस से बच्चे के साथ उनके माता पिता की भी भूख मिटे .जाहिर है भूख से आहात माँ बाप अपने बच्चे को अनाज लेन के लिए ही सही लेकिन उन्हें स्कूल जरूर भेजेंगे .लेकिन सरकार यह नहीं करेगी क्योकि इस योजना मे गरीबों से ज्यादा स्वार्थ दलालों के है यानि बगैर दलाली के योजना चल नहीं सकती .
सवाल यह है कि देश का संविधान हर किसी के मौलिक अधिकार की रक्षा की पूरी गारंटी देता है .भारत के न्यायलय जागरूक पहरेदार की तरह इन अधिकारों की रक्षा के लिए तत्पर है तो क्या कल लोग अपने बच्चो के स्कूल दाखिले के लिए अदालत के दरवाजे खटखटाएंगे .क्या जो लोग भूख के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद नहीं कर पाए वे लोग अब अपने बच्चो के स्कूल के लिए आवाज उठाएंगे ?ऐसा सोचना भी निरर्थक होगा .फिर इसका समाधान क्या हो ? इसका समाधान कभी रूस ने ढूंढा था ,वहां सभी बच्चे सरकारी स्कूलों मे पढ़ते है .वहां हर बच्चे का एक ही स्कूल ड्रेस है ,एक ही पाठ्यक्रम है .यानि प्रतिभा को उभारने का प्रयास हर को मिला हुआ है .सरकार अगर शिक्षा के अधिकार से सबको खुश करना चाहती है तो क्या  हर को समान अवसर की गारंटी देगी .क्या जिन बच्चो ने सरकारी स्कूलों मे तालीम ली है उसे कभी प्राइवेट स्कूलों के समक्ष खड़ा कर पायेगी .शिक्षा मे आमूल चूल परिवर्तन लाने के कपिल सिब्बल के इरादे पर शंका नहीं जाहिर किया जा सकता लेकिन सिबल  साहब के साथ दिक्कत यह है कि उन्होंने शहरी चकाचोंध और प्राइवेट स्कूलों की शिक्षा देखी है ,उन्होंने उन हजारो बच्चो का दर्द नहीं देखा है जिन्होंने ४-५ कि मी दुरी रोज तय करके स्कूली शिक्षा पूरी की है ,जिन्होंने आधे पेट खाए अपनी पढाई जारी रखी. लेकिन इस पढाई के बाद भी अगर ये एक छोटी नौकरी लेने के लायक नहीं हो पाए तो इसमें उनका क्या दोष था .क्या इस व्यवस्था की खामियों को कपिल सिबल  दूर करेंगे .अगर वो ऐसा नहीं करते है तो यह कहा जायेगा की उनकी सरकार सिर्फ राजनीती कर रही है और लोगों को मुर्ख बना रही है .  

टिप्पणियाँ

हां सच है. इससे बड़ा मज़ाक और क्या हो सकता है? क्या खूब तारीख चुनी शिक्षा-विभाग ने भी.
वीनस केसरी ने कहा…
विधेयक पास करवाना अगल बात है और सही तरीके से लागू होना अलग

देखते है सरकार इस टेढी खीर को कैसे निगलती है

तीन साल में इतनी बड़ी व्यवस्था को बदल पाना बहुत मुश्किल लगता है
Udan Tashtari ने कहा…
राजनीती जो न करवाये इनसे!!

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