नक्सली समस्या की जड़ दिल्ली है
नक्सल आतंक के खिलाफ पिछले साल से जोरदार हमले की तैयारी थी . ऑपरेशन ग्रीन हंट की तैयारी मीडिया के द्वारा छन छन कर लोगों के बीच आ रही थी . नगारे बज रहे थे मानो फाॅर्स बस्तर के जंगल में घुसेंगे और गणपति से लेकर कोटेश्वर राव तक तमाम आला नक्सली लीडरों को कान पकड़ कर लोगों के बीच ले आयेंगे . लेकिन भारत सरकार यह अबतक यह नही तय कर पायी की इस जंग की कमान किसके हाथ मे होगी ?.अभियान के कप्तान गृहमंत्री चिदंबरम को पार्टी और पार्टी से बाहर लगातार नशिहते मिल रही थी कि नक्सली पराये नही है वे पार्टी के लिए पहले भी हितकर रहे है और उनका उपयोग कभी भी चुनाव मे हो सकता है .यही वजह है कि चिदम्बरम साहब नक्सल के खिलाफ जंग भी लड़ना चाहते है लेकिन सामने नही आना चाहते .वो राज्य सरकारों को मदद दे रहे, वे ४० से ५० बटालियन सी आर पी ऍफ़ नक्सल प्रभावित राज्यों को भेज रहे .लेकिन लड़ाई की जिम्मेदारी राज्य सरकार पर छोड़ रहे है .लेकिन राज्य सरकार चाहती है कि यह लड़ाई चिदम्बरम खुद लड़े. यह देश का सवाल नही है वोट का सवाल है .बेचारा नीतीश कुमार कल तक नक्सल के खिलाफ सख्त बयानवाजी के कारण चिदंबरम को नशिहत दे रहे थे .वे यह मान रहे थे कि बिहार मे नक्साली कोई बड़ी समस्या नही है और वे अपने लोग है .नीतीश यह बात इसलिए कह रहे थे क्योंकि लालू यादव नक्सल के खिलाफ किसी जंग या अभियान के खिलाफ थे .लेकिन नक्सलियों ने बिहार पुलिस के जवानों और अधिकारियो को अगवा करके नीतीश को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया .
भारत सरकार यह तय नही कर पायी है कि बिहार की यह समस्या नीतीश की है या देश की ?खुद गृह मंत्री कहते है कि यह बिहार सरकार को तय करना है कि इस स्थिति से कैसे निपटे .यानी देश की संप्रभुता के खिलाफ लड़ रहे नक्सलियों के साथ इस देश की सियासत उनके साथ है .नक्सालियों के गिरफ्त से पुलिस ऑफिसर अतिन्द्र्नाथ दत्त को बाहर निकलने के लिए पशिम बंगाल सरकार को अकेली मसक्कत करनी पड़ी थी . अतिन्द्र्नाथ के बदले में पश्चिम बंगाल सरकार को २३ नाक्सालियो को छोड़ना पड़ा था । इस रिहाई को नक्सली नेता कोटेश्वर राव डंके के चोट पर अंजाम दे रहे थे और बेवस सरकार हाथ पर हाथ धरे नक्सालियों के हर आदेश का पालन करती रही । मालूम हो कि भारत सरकार ने ऐसे मामले मे किसी तरह का समझौता नही करने का प्रण लिया था और होस्टेज पालिसी के नाम पर देश को एक कड़े कानून भी गिफ्ट मे दिए गए थे लेकिन हर बार सरकार बेवस ही नज़र आई .ऐसा पहली बार हुआ कि नक्सालियों राजधानी एक्सप्रेस को अगवा करके राज्य सरकार को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया था .ट्रेन मे सवार ५०० से ज्यादा लोगों को घंटो तक नक्सलियों के रहमो करम पर छोड़ दिया गया था .उस वक्त भी नक्सलियों ने अपनी बात मनवाली थी ,ये अलग बात है इस अगवा मे शामिल लोगों को राजनीतिक समर्थन खुद रेल मंत्री दे रही है .ये पश्चिम बंगाल सरकार का आरोप है लेकिन पी सी पी ऐ के रैली मे शामिल होकर ममता ने यह साबित कर दिया है कि नक्सालवाद भले ही इस मुल्क की समस्या हो लेकिन बंगाल की सत्ता मे लौटने के लिए उन्हें नक्सालियों की बन्दूक ही सबसे बड़ा सहारा हो सकती है .क्योंकि लेफ्ट की बाहूबली फौज से मुकाबला करने के लिए ममता दीदी को किसी और बाहुबली की ताकत का दरकार है . .लेकिन वोट की सियासत झारखण्ड के पुलिस इंसपेक्टर फ्रांसिस इन्दिवेर साथ नही थी इसलिए यहाँ होस्टेज पालिसी काम कर गयी ..नक्सलियों की बात नही मानी गयी तो बदले मे नक्सलियों ने इन्दीवर को गला रेत कर मार डाला था ।
प्रधान मंत्री बार बार कह चुके है कि नक्सली आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है लेकिन पार्टी के आलाकमान और दुसरे कद्दावर नेता नक्सलियों से नरमी बरतने पर जोर देते है . प्रधानमंत्री कोई सियासी जोखिम नही उठाना नही चाहते है और नही ऐसा कोई जोखिम गृह मंत्री लेना चाहते है सो बिहार पुलिस के अगवा मामले मे केंद्र सरकार हर मदद का भरोसा देती है लेकिन करवाई के नाम पर चुप कर बैठी है .सवाल यह है कि इस मामले के लिए ट्रेंड एस पी जी ,ब्लैक कैट कमांडो और सेना का अगर उपयोग नही होता है तो यह माना जायेगा कि केंद्र सरकार सिर्फ तमाशा देखना चाहती है । ..इस साल की बात करे तो ४०० से ज्यादा पुलिस कर्मी मारे गए है ३०० से ज्यादा आम आदमी नक्सल हमले के शिकार हुए है फ़िर भी यह कहा जा रहा है कि नक्सली सिर्फ व्यवस्था परिवर्तन की बात करते है देश की संप्रभुता पर कोई आंच नही पंहुचा रहे है तो यह माना जायेगा कि ऐसे लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नक्सालियों की मदद कर रहे है .
६ अप्रैल २०१०, दंतेवाडा . भारत के आतंक विरोधी अभियान का कला दिवस माना जा सकता है नक्सली हमले मे .एक नहीं दो नहीं ७६ से ज्यादा सुरक्षा वल मौत के घाट उतार दिए गए .नक्सली आतंकियों द्वारा किया गया यह सबसे बड़ा हमला था लेकिन केंद्र सरकार की जांच कमीशन इस के लिए मारे गए सुरक्षा जवानों को दोषी ठहराते है .इसे एक मजाक ही कहा जा सकता है कि जंगल मे नक्सलियों से जूझने के लिए ऐसे जवानों को भेजा जाता है जिनका न तो जंगल से सरोकार है न ही गुरिल्ला वार से लेकिन उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है . ..यकीन मानिये अबतक नक्सल विरोधी अभियान मे २००० से ज्यादा जवानों की मौत हो चुकी है .लेकिन भारत सरकार की यह जिद है कि यह लड़ाई राज्य सरकारे लड़ेगी केंद्र सरकार सिर्फ उन्हें सहायता देगी .सियासत ऐसी कि नक्सल के खिलाफ अभियान को राज्यों मे ऑपरेशन ग्रीन हंट का नाम दिया जा रहा है लेकिन हमारे गृह मंत्री ऐसे किसी ग्रीन हंट ऑपरेशन से इनकार करते है
पश्चिम बंगाल मे नक्सालियों का हमला होता है तो ममता दीदी नक्सालियों से तुरंत बात करने की सलाह देती है .खुद गृह मंत्री जब तब राज्य सरकार को निकम्मा साबित करने से नहीं चुकते. . हमला बिहार मे हो तो केंद्र सरकार राज्य पुलिस व्यवस्था को लचर बताती है .यही हमला छत्तीसगढ़ मे हो तो बीजेपी सरकार की अकर्मण्यता सामने आती है ..यानि हर सरकार के सामने नक्सली वो तुरुप के पत्ते है जिसका इस्तेमाल अलग अलग राज्यों की सरकार अपने सियासी फायदे और नुक्सान को देखकर कर रही है .और केंद्र सरकार विपक्षी सरकार को नकारा साबित करने में लगी है .
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.देश के तकरीबन १४ राज्यों में नक्सलियों का दबदवा कायम है .पिछले साल नक्सलियों ने १५०० से ज्यादा वाकये को अंजाम देकर ७०० से ज्यादा लोगों की जान ले ली थी ,जिसमे ३०० से ज्यादा सुरक्षाबलों ने अपनी जान की कुर्वानी दी है .अरबों खरबों रूपये के निवेश नक्सली सियासत की भेट चढ़े है बिहार सरकार नक्सली साजिश से जूझ रही है लेकिन उसी बिहार मे राहुल गाँधी की भव्य रैली निकाली जा रही है .उड़ीसा मे नक्सली वेदांता का विरोध करते है तो कांग्रेस इस जनमानस का विरोध मानती है और आन्दोलनकारियों के सामने राहुल गाँधी को पेश किया जाता है .उनकी सरकार निवेश को बढ़ावा देने के लिए पूरी तत्परता दिखा रही है लेकिन राहुल को समाजवादी बनाकर पेश किया जा रहा है .कह सकते है कि .नक्सली आतंक का समर्थन दिल्ली से मिल रहा है न कि बस्तर के आदिवासी इलाके से . ,बुधिजीबी और मानवाधिकार संगठन के सियासी खेल का ताना बना इसी दिल्ली से रचा जाता है .जाहिर है नक्सल समस्या की जड़ दिल्ली है न कि बस्तर और झारखंड के जंगल ..
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