मनरेगा के बाद आदर्श गाँव.....
प्रिय
मोदी जी ,
मुझे याद है गाँव के भोर का वह राग . मवेशियों के गले मे बंधी घंटियों की आवाज़ ,किसानो की चहल पहल ... दूर से आती ढेकी की आवाज ... उखल समाठ की आवाज,मस्जिद से उठती अज़ान की आवाज़ ,मंदिरो से आती हर हर महादेव की आवाज़ ,बजती घंटिया .. सुबह की ये सारी आवाजे मिलकर एक मेलोडी बना रही थी. कह सकते है कि गाँव की यह सास्वत पहचान थी . तमाम असुविधाओं के बावजूद पिछले सैकड़ो वर्षो में गाँव न तो अपना लय खोया न ही अपनी पहचान लेकिन मॉडल विलेज के ज़माने में आज गाँव कही खो गया है। प्रधानमंत्री जी आज जिस आदर्श ग्राम की बातआप कह रहे हैं वह देश के नक्से से गायव है
सामाजिक सरोकार का विहंगम दृश्य मुल्क के हर गाँव मे मौजूद था . जहाँ हर आदमी हर की जरूरत में शामिल था . अपने इसी गाँव को तलाशने मै काफी अरसे के बाद गाँव पंहुचा था .अल सुबह एक बार फिर मै तैयार बैठा था अपने बचपन के मेलोडी को सुनने लेकिन न तो किसानो के कदम ताल की आवाज सुनाई दी न ही कही से मवेशियों की घंटी की आवाज ,न ही कोई चहल पहल .. ढेकी और उखल न जाने कब के गायब हो चुके थे . गाँव का वह नैचुरल अम्बिंस कही खो गया था ..या यूँ कहे की गाँव पूरी तरह से निशब्द हो गया था . मायूसी के साथ मै उठा उसी एम्बिएंस को तलाशने जो मेरे दिलो दिमाग में रचा बसा था .. शायद इस भ्रम में कि विद्यापति कही खो गए तो क्या हुआ, लोडिक सलहेस तो जिन्दा होगा .. आज टीवी ने गाँव की सूरत बदल दी है। अपने भाषण में आपने जिस ५००० गाँव की यात्रा की बात की है अब वह गाँव शायद ही मिले।
तेजी से पाऊं फैलाते बाज़ार ने गाँव का स्वरुप बदल दिया है .. खेत खलिहान भले ही विरान पड़े हों लेकिन मनीआर्डर ने गाँव को बाजार से सीधे जोड़ दिया है . आर्थिक विशेषज्ञ मानते है कि भारत के गाँव मे बढा उपभोक्तावाद ने भारतीय अर्थव्यवस्था में मजबूती दी है . यानि आपके मुल्क के विकास दर को बढ़ाने में गाँव बगैर किसी आर्थिक हलचल के महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। लेकिन यह अर्थशास्त्र आम आदमी की समझ से बाहर है . उद्योग के नाम पर यहाँ दूर दूर तक कोई नामोनिशान नहीं है . लेकिन हर चौक चौराहे पर देशी विदेशी शराव के ठेके मौजूद है . कोल्ड्रिंक से लेकर तमाम शहरी जीवन शैली लोगों की आम जरूरत में शामिल हो गयी है ..८० के दशक में गाँव से शुरू हुआ भारी पलायन ,ग्रामीण अंचलों में एक बड़ी त्रासदी के रूप में सामने आई . गाँव के तमाम पारंपरिक उद्योग ठप पड़ गए ,पहले मजदूरों का पलायन हुआ बाद में किसानो का ..पढ़े -लिखे लोगों ने गाँव से अपना सरोकार पहले ही खत्म कर लिया था,लेकिन इस पलायन ने गाँव की तस्वीर बदल दी ..आप जिस सांसद आदर्श ग्राम बनाने की बात कर रहे हैं उस गाँव को मनरेगा ,इंदिरा आवास योजना ,फ्री रासन जैसी योजनाओ ने भ्रष्टाचार के दल -दल में धकेल दिया है। ग्रामीण रोजगार की इन दर्जनो योजनाओं ने कुशल और मिहनतकश किसान -मजदूर को आलसी और बेईमान बना दिया है।
प्रधानमंत्री जी शिक्षा के मौलिक अधिकार का संकल्प गाँव का ३० साल पुराना स्कूल पूरा नहीं कर प् रहा है ,बच्चो की भारी तादाद के बावजूद यहाँ एक और स्कूल नहीं खुल पाया लेकिन मनरेगा योजनाओं में एक ही सड़क को दर्जनो बार मरम्मत की जा चुकी है ,आज भी एक बीमार की इलाज यहाँ दूर की कौड़ी है लेकिन मोबाइल फोन हर हाथ में है। रिचार्ज की सुविधा हर पान की दुकान में मौजूद है।आपने इस महत्वकांक्षी योजना में सांसदों की जिम्मेदारी जरूर बढ़ाई है लेकिन क्या जिस आदर्श गाँव का आपने सपना देखा है वह ग्रामीण विकास के भ्रष्टाचारी योजनाओ के सामने आदर्श बन पायेगा? ग्रामीण रोजगार के नाम पर सस्ती लोकप्रियता जरूर हासिल की जा सकती है लेकिन ये योजनाये कभी रोजगार के विकल्प नहीं हो सकते। ९० के दौर में नरसिंघ राउ की एम पी लैड स्कीम एक मजबूरी थी ,लेकिन तमाम विरोध के बावजूद सांसदों के इस तथाकथित घूस को खत्म नहीं किया सका और तो और पिछली सरकार ने इसे २ करोड़ से बढाकर ७ करोड़ रुपया प्रति वर्ष सांसद निधि से खर्च करने का फैसला लिया था। क्या इस सांसद निधि का इस्तेमाल आदर्श गाँव के लिए किया जाएगा या फिर सांसद महोदय अपने विवेक से यह पैसा खर्च करेंगे।
प्रधान मंत्री जी गाँव ने जो चमक पाई है वह अस्थायी है .देश के महानगर ,हमारे ग्रामीण श्रम का उपहास करता है ,कभी खदेड़ता है तो कभी पुचकारता है . पंजाब में खेतिहर मजदूरों की कमी हो जाती है तो हमारे सस्ते मजदूरों को गाँव से लाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किया जाता है लेकिन काम निकलते ही ये मजदूर भइया बनजाते है ..बिहारी बन जाते है . ग्रामीण रोजगार की योजनाये प्रति वर्ष ३ लाख करोड़ रूपये खर्च करके मजदूरों का पलायन नहीं रोक प् रहा है तो माना जाएगा योजनाओ का मकसद सस्ती लोकप्रियता थी। बिहार से आया एक नौजवान पूछता है कि बिहार के गाँव के एक किसान पांच- छः एकड़ के मालिक होते हुए भी दिल्ली और मुंबई में मजदूरी करता है लेकिन दिल्ली और मुंबई के एक आध एकड़ जमीन के मालिक करोड़ पति माना जाता है ... जमीन का यह अर्थशात्र हमारी व्यवस्था ने वनाई है ..पिछले ६८ साल की हमारी पंचवर्षीय योजनाओ ने सिर्फ शहरों को बनाया है ,देश के संसाधन को झोंक कर मुंबई और दिल्ली बनाया है। सरकार की गलत नीतियों ने शहरों की भीड़ बढा दी है लेकिन गाँव को तरक्की की धारा से पूरी तरह काट दिया है। सांसद आदर्श ग्राम योजना अगर गाँव से हो रहे पलायन को रोकने में कामयाब होता है तो माना जाएगा की इस इस योजना का खाका आपने दिल से बनाया है वरना सस्ती लोकप्रियता की सूची में यह दूसरा मनरेगा साबित होगा।
भवदीय
एक ग्रामीण
मोदी जी ,
मुझे याद है गाँव के भोर का वह राग . मवेशियों के गले मे बंधी घंटियों की आवाज़ ,किसानो की चहल पहल ... दूर से आती ढेकी की आवाज ... उखल समाठ की आवाज,मस्जिद से उठती अज़ान की आवाज़ ,मंदिरो से आती हर हर महादेव की आवाज़ ,बजती घंटिया .. सुबह की ये सारी आवाजे मिलकर एक मेलोडी बना रही थी. कह सकते है कि गाँव की यह सास्वत पहचान थी . तमाम असुविधाओं के बावजूद पिछले सैकड़ो वर्षो में गाँव न तो अपना लय खोया न ही अपनी पहचान लेकिन मॉडल विलेज के ज़माने में आज गाँव कही खो गया है। प्रधानमंत्री जी आज जिस आदर्श ग्राम की बातआप कह रहे हैं वह देश के नक्से से गायव है
सामाजिक सरोकार का विहंगम दृश्य मुल्क के हर गाँव मे मौजूद था . जहाँ हर आदमी हर की जरूरत में शामिल था . अपने इसी गाँव को तलाशने मै काफी अरसे के बाद गाँव पंहुचा था .अल सुबह एक बार फिर मै तैयार बैठा था अपने बचपन के मेलोडी को सुनने लेकिन न तो किसानो के कदम ताल की आवाज सुनाई दी न ही कही से मवेशियों की घंटी की आवाज ,न ही कोई चहल पहल .. ढेकी और उखल न जाने कब के गायब हो चुके थे . गाँव का वह नैचुरल अम्बिंस कही खो गया था ..या यूँ कहे की गाँव पूरी तरह से निशब्द हो गया था . मायूसी के साथ मै उठा उसी एम्बिएंस को तलाशने जो मेरे दिलो दिमाग में रचा बसा था .. शायद इस भ्रम में कि विद्यापति कही खो गए तो क्या हुआ, लोडिक सलहेस तो जिन्दा होगा .. आज टीवी ने गाँव की सूरत बदल दी है। अपने भाषण में आपने जिस ५००० गाँव की यात्रा की बात की है अब वह गाँव शायद ही मिले।
तेजी से पाऊं फैलाते बाज़ार ने गाँव का स्वरुप बदल दिया है .. खेत खलिहान भले ही विरान पड़े हों लेकिन मनीआर्डर ने गाँव को बाजार से सीधे जोड़ दिया है . आर्थिक विशेषज्ञ मानते है कि भारत के गाँव मे बढा उपभोक्तावाद ने भारतीय अर्थव्यवस्था में मजबूती दी है . यानि आपके मुल्क के विकास दर को बढ़ाने में गाँव बगैर किसी आर्थिक हलचल के महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। लेकिन यह अर्थशास्त्र आम आदमी की समझ से बाहर है . उद्योग के नाम पर यहाँ दूर दूर तक कोई नामोनिशान नहीं है . लेकिन हर चौक चौराहे पर देशी विदेशी शराव के ठेके मौजूद है . कोल्ड्रिंक से लेकर तमाम शहरी जीवन शैली लोगों की आम जरूरत में शामिल हो गयी है ..८० के दशक में गाँव से शुरू हुआ भारी पलायन ,ग्रामीण अंचलों में एक बड़ी त्रासदी के रूप में सामने आई . गाँव के तमाम पारंपरिक उद्योग ठप पड़ गए ,पहले मजदूरों का पलायन हुआ बाद में किसानो का ..पढ़े -लिखे लोगों ने गाँव से अपना सरोकार पहले ही खत्म कर लिया था,लेकिन इस पलायन ने गाँव की तस्वीर बदल दी ..आप जिस सांसद आदर्श ग्राम बनाने की बात कर रहे हैं उस गाँव को मनरेगा ,इंदिरा आवास योजना ,फ्री रासन जैसी योजनाओ ने भ्रष्टाचार के दल -दल में धकेल दिया है। ग्रामीण रोजगार की इन दर्जनो योजनाओं ने कुशल और मिहनतकश किसान -मजदूर को आलसी और बेईमान बना दिया है।
प्रधानमंत्री जी शिक्षा के मौलिक अधिकार का संकल्प गाँव का ३० साल पुराना स्कूल पूरा नहीं कर प् रहा है ,बच्चो की भारी तादाद के बावजूद यहाँ एक और स्कूल नहीं खुल पाया लेकिन मनरेगा योजनाओं में एक ही सड़क को दर्जनो बार मरम्मत की जा चुकी है ,आज भी एक बीमार की इलाज यहाँ दूर की कौड़ी है लेकिन मोबाइल फोन हर हाथ में है। रिचार्ज की सुविधा हर पान की दुकान में मौजूद है।आपने इस महत्वकांक्षी योजना में सांसदों की जिम्मेदारी जरूर बढ़ाई है लेकिन क्या जिस आदर्श गाँव का आपने सपना देखा है वह ग्रामीण विकास के भ्रष्टाचारी योजनाओ के सामने आदर्श बन पायेगा? ग्रामीण रोजगार के नाम पर सस्ती लोकप्रियता जरूर हासिल की जा सकती है लेकिन ये योजनाये कभी रोजगार के विकल्प नहीं हो सकते। ९० के दौर में नरसिंघ राउ की एम पी लैड स्कीम एक मजबूरी थी ,लेकिन तमाम विरोध के बावजूद सांसदों के इस तथाकथित घूस को खत्म नहीं किया सका और तो और पिछली सरकार ने इसे २ करोड़ से बढाकर ७ करोड़ रुपया प्रति वर्ष सांसद निधि से खर्च करने का फैसला लिया था। क्या इस सांसद निधि का इस्तेमाल आदर्श गाँव के लिए किया जाएगा या फिर सांसद महोदय अपने विवेक से यह पैसा खर्च करेंगे।
प्रधान मंत्री जी गाँव ने जो चमक पाई है वह अस्थायी है .देश के महानगर ,हमारे ग्रामीण श्रम का उपहास करता है ,कभी खदेड़ता है तो कभी पुचकारता है . पंजाब में खेतिहर मजदूरों की कमी हो जाती है तो हमारे सस्ते मजदूरों को गाँव से लाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किया जाता है लेकिन काम निकलते ही ये मजदूर भइया बनजाते है ..बिहारी बन जाते है . ग्रामीण रोजगार की योजनाये प्रति वर्ष ३ लाख करोड़ रूपये खर्च करके मजदूरों का पलायन नहीं रोक प् रहा है तो माना जाएगा योजनाओ का मकसद सस्ती लोकप्रियता थी। बिहार से आया एक नौजवान पूछता है कि बिहार के गाँव के एक किसान पांच- छः एकड़ के मालिक होते हुए भी दिल्ली और मुंबई में मजदूरी करता है लेकिन दिल्ली और मुंबई के एक आध एकड़ जमीन के मालिक करोड़ पति माना जाता है ... जमीन का यह अर्थशात्र हमारी व्यवस्था ने वनाई है ..पिछले ६८ साल की हमारी पंचवर्षीय योजनाओ ने सिर्फ शहरों को बनाया है ,देश के संसाधन को झोंक कर मुंबई और दिल्ली बनाया है। सरकार की गलत नीतियों ने शहरों की भीड़ बढा दी है लेकिन गाँव को तरक्की की धारा से पूरी तरह काट दिया है। सांसद आदर्श ग्राम योजना अगर गाँव से हो रहे पलायन को रोकने में कामयाब होता है तो माना जाएगा की इस इस योजना का खाका आपने दिल से बनाया है वरना सस्ती लोकप्रियता की सूची में यह दूसरा मनरेगा साबित होगा।
भवदीय
एक ग्रामीण
टिप्पणियाँ