समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई.

समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई...हाथी से आई, घोड़ा से आई......लाठी से आई, गोली से आई..लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद..   गोरख पांडेय ने क्या खूब लिखा था। तब जब ये आज के समाजवादी कही  चर्चा में नहीं थे। तो क्या कांग्रेस की तरह लोहिया जी के चेलों ने भी  समाजवाद  को पूंजीवाद के  चासनी में डालकर एक अलग फार्मूला  बना डाला  ? तो क्या भारत में समाजवाद सिर्फ सत्ता हथियाने का जुगाड़ मंत्र  बना और अपने ही भार से दब कर बिखर गया। पहले लोग कहते थे समजवादी और मेढक को तौलना बराबर का काम है लेकिन आज  एक राज्य में पुत्र मोह में सरकार चली गयी तो एक राज्य  में पुत्र ने सत्ता को परमानेंट बनाने के लिए पिता को ही बर्खास्त कर डाला। तो शायद गोरख पांडेय ने सही कहा था। परसों ले आई ,बरसो ले आई ,हरदम अकासे तकाई। समाजवाद उनके धीरे धीरे आई। 


समजवादी कभी फासीवादी ताकतों से लोहा लेने के एकजुट होते थे  तो आज उनके लिए साम्प्रदायिकता सबसे बड़ी चुनौती बन गयी   है। यानी ये सारे पैतरे सिर्फ वोट बैंक के लिए होता है। लेकिन बबुआ को सत्ता सौपने को आतुर समजवादी यह भूल जाते है कि अंतिम पंक्ति में खड़ा व्यक्ति भी आज अपनी बारी का इन्तजार कर रहा है। यू पी के समजवादी बबुआ अगर लॉ एंड आर्डर के लिए 6.5 करोड़ में मर्सडीज खरीदते है और अपने बिहार के बबुआ समजवादी सबसे बड़ा  मॉल इसलिए बनाने लगते है ताकि उन्हें एक छत के नीचे हर सुविधा मिले। लेकिन "बॉस " को यह सामजवाद पसंद नहीं आया। शायद बॉस (नीतीश कुमार ) को यह याद है कि शिवरात्रि पर चित्रकूट में लोहिया जी ने ही रामायण मेला की शुरुआत की थी जो आज भी चल रहा है उन्होंने बाजार नहीं बनाया । आज भी उस मेले में हज़ारो की तादाद में इलाके के गरीब गुरबा पहुंचते है जिनके चेहरे पर एक मुस्कान लाने की चिंता लोहिया जी करते थे। आज के '  बबुआ ' समजवादी के लिए लोहिया जी भी  सांप्रदायिक हो जाते ।  समजवादी व्यवस्था में धन सम्पति का स्वामित्व और वितरण समाज के अधीन होता है। क्या लालू और मुलायम सिंह जी आज भी लोहियावादी है ?अगर हैं तो उनकी  चल अचल करोडो -अरबो रूपये की सम्पति पर समाज का अधिकार होना चाहिए न कि सिर्फ बबुआ की। तो फिर अदम गोंडवी ने क्या  गलत कहा था ?
देखना सुनना व सच कहना जिन्हें भाता नहीं
कुर्सियों पर फिर वही बापू के बंदर आ गये,
कल तलक जो हाशिये पर भी न आते थे नजर, आजकल बाजार में उनके कलेंडर आ गये। . बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी , राम सुधि की झोपडी सरपंच की चौपाल में.... विनोद मिश्रा 

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