संत कबीर दास जयंती पर विशेष : मीडिया में एक अदद कबीर की जरुरत है

संत कबीर की जयंती ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को जून में मनाई जाती है। एक ऐसा उपदेशक जिसने हर धर्मों में व्याप्त रूढ़ियों की निंदा की  ,कुरीतियों के खिलाफ मुखर आवाज बने लेकिन कबीरदास जी को हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही संप्रदायों में बराबर का सम्मान मिला ।  गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पांय ।बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय . .. कबीर को जानने के लिए उनके गुरु को जानना भी जरुरी है। हालाँकि हमने भारत की गुरु शिष्य परम्परा को ही  नज़रअंदाज कर दिया है इसलिए न तो कबीर हमें याद आते हैं न हमें अपनी संस्कृति।  कबीर के गुरू स्वामी रामानंद थे। आठ साल की अवस्था में रामानंद का यज्ञोपवीत कराया गया। विद्वान ब्राह्मणों नें पलास का डंडा देकर उन्हें काशी पढ़ने  जाने के  लिए कहा और कुछ वक्त  बाद लौटने की भी नशीहत दी । लेकिन बालक रामानन्द लौटकर आने के लिए तैयार नहीं  हुए।  एक बार डंडा और कमंडल पकड़ी फिर सांसारिक माया में लौटने का कहाँ कोई सवाल रहा गया था। काशी में  महर्षि राघवानन्द जी ने उन्हें राम मंत्र की दीक्षा देकर विधिवत संन्यास की दीक्षा दी । रामानन्द जी काशी के पंच गंगा घाट पर तपस्या करने लगे।  रामानंद जिस युग में हुए वह भारत के इतिहास में धर्म, संस्कृति तथा समाज के घोर पतन  का काल था... 
लेकिन रामानंद ने 11 वी  शदी में एक बार फिर प्रभावी तथा अद्भुत शिष्य परंपरा का निर्माण किया। भारतीय सन्दर्भ में  वह एक संक्रमण काल था। भारतीय संस्कृति निरंतर पतन की ओर जा रही थी  लेकिन इन चुनौतियों के बीच  किसी भी व्यक्ति ने उतने श्रेष्ठ तथा समर्पित शिष्यों का निर्माण नहीं किया जितना रामानंद ने कर दिखाया । रामानंद के बारह प्रसिद्ध शिष्य भक्ति आंदोलन के मुख्य प्रचारक बने। उनकी शिष्य मंडली में जहां एक ओर कबीरदास, रैदास, सेन नाई और पीपा,धन्ना ,सेनाचार्य ,सुरसरी ,पद्मावती ,सुखानंद,नरहरि दस ,भवानन्द आदि हुए। जिन्होंने  जात-पात, छुआछूत,  कर्मकांड, मूर्तिपूजा के विरोधी निर्गुणवादी परंपरा को आगे बढ़ाया  तो दूसरे पक्ष में अवतारवाद के पूर्ण समर्थक और चराचर में राम को ही व्याप्त मानने वाले सगुण उपासक भी थे। उनकी रामभक्ति की धारा दो प्रवाहों में विभाजित हुई थी। एक निराकार निर्गुण रामभक्ति में तथा दूसरी साकार सगुण अवतारी रामभक्ति में। एक का प्रतिनिधित्व किया कबीर ने तथा दूसरे को व्यापक स्वरूप प्रदान किया तुलसी ने।

भारत की चेतना को जगाने में कबीर दास ने अद्भुत काम किया और धार्मिक पाखण्ड को हतोत्साहित किया। लेकिन बदले दौर में जब मस्जिद और मंदिरो पर लाउडस्पीकर लगाने की बढ़ती चलन और इसके लिए धार्मिक आग्रह का जोर दिया जाता है तो फिर अचानक कबीर ही याद आते हैं। यह उस कबीर के देश में हो रहा जिसने कठ्ठमुल्लाओं को चुनौती देते हुए कहा करते थे "कंकर पत्थर जोड़ी के मस्जिद लई  बनाई ,तो चढ़ी मुल्ला बांग दे ,क्या बहरे हुए खुदाय। कबीर हिन्दुओ को भी कहते थे पत्थर पूजे हरी मिले तो मैं पुजू पहाड़ ....भक्ति और आस्था ,जाति  और मजहब में बटे समाज को आईना दिखाकर कबीर ने  भारतीय संस्कृति में भक्ति और मोक्ष के लिए सबको आसान रास्ता बताया। आजतक किसीने कबीर की जात और मजहब नहीं पूछा। आज कल  कुछ विद्वान कहते हैं उन्हें बहुसंख्यकवाद पसंद नहीं हैं। मैं कहता हूँ  उन्हें सच बोलने का साहस नहीं है या उन्होंने इस देश की कबीर परंपरा को समझा नहीं है। .सच बोलने की उनमे अगर माद्दा नहीं है तो उनसे अच्छा  भाँट है जो चारणगीत को अपना रोजगार मानता है लेकिन विदवान होने का दम्भ नहीं भरता । यह कबीर थे जिन्होंने पूरी जिंदगी काशी में बितायी लेकिन जिंदगी के आखिरी दौर में वे मोक्ष के लिए काशी में रुकने के बजाय मगहर चले गए। मगहर ,आज के संतकबीर नगर का इलाका है जिसके बारे में मान्यता  थी कि यहाँ मरने वालों को मोक्ष नहीं मिलता।

 अगर कोई बुद्धिजीवी अपने को सेक्युलर राइटर होने का दम्भ भरे तो उसे यह पूछा जाना चाहिए कि केरल और पश्चिम बंगाल की हालात पर वह खामोश क्यों है ? अगर उन्हें सारा अवगुण सनातन परंपरा में ही दीखता है तो उन्हें आलोचक होने का अधिकार किसने दिया। आज इस देश को कबीर जैसे सच बोलने वाले लेखक /पत्रकार की जरूरत है आज इस देश में नारद ज की भी जरूरत है जो सत्ता और समाज के बीच सीधा संवाद को आसान बनाये। एक बार फिर लौट आओ कबीर जो मुल्क के तथाकथित सेकुलरिज्म \ कम्युनिलिजम ,आदर्श ,लिबरल  को आईना दिखा सके।


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