प्यार करो या नफरत मुद्दा आडवानी ही है
क्या यह चुनाव लाल कृष्ण आडवानी के लिए जनमत संग्रह है ?हो सकता है कि आपका जवाब ना में भी हो । लेकिन चुनाव प्रचार और नेताओं के बयानों का लेखा जोखा करे तो सबसे ज्यादा बयान आडवानी जी को लेकर ही दिया गया है । आम तौर चुप रहने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जब भी कभी बयान दिया है आडवानी पहला और अन्तिम मुदा रहा है । तो यह मान लें कि बगैर किसी मुद्दे के इस अनोखे चुनाव में मुद्दा सिर्फ़ अडवानी हैं ।
पहले चरण का चुनाव संपन्न हुआ । नक्सल के रेड कोरिडोर में शांतिपूर्ण चुनाव के दावे को नक्सालियों ने बेमानी साबित कर दिया । चुनाव के दौरान सुरक्षा में लगे २९ जवान मारे गए । मुंबई हमले में मारे गए जवानों से दो गुना ज्यादा । लेकिन न तो नक्सल हिंसा मुद्दा बना न ही देश में जड़ जमा चुका आतंकवाद, यानि मुद्दा आडवानी ही है । बाबरी मस्जिद गिराने का तोहमत आडवानी पर लगा कर प्रधान मंत्री ने चुनाव प्रचार की शुरुआत की थी । आज भी चुनाव प्रचार में सोनिया हो या राहुल , लालू हों या रामविलास मुद्दा सिर्फ़ आडवानी है ।
१९८४ के लोक सभा के चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्वा में बीजेपी चुनावी मैदान में उतरी थी और महज दो सीटों के साथ लोकसभा पहुँची थी । १९८९ के चुनाव से लेकर २००४ तक बीजेपी के नेता भले ही वाजपेयी जी रहें हो लेकिन चुनाव में बीजेपी को ले जाने वाले सारथी आडवानी ही रहे है । यह माकूल तर्क हो सकता है बीजेपी की संख्या बढ़ाने में भले ही आडवानी कामयाब रहे हों लेकिन सरकार बनाने के सवाल पर आडवानी की छबि हमेशा उन्हें प्रधान मंत्री बनने से रोकती रही है । और आम सहमती के सवाल पर वाजपेयी हमेशा शीर्ष पद पाने में कामयाब रहे हैं। राम विलास पासवान कभी कहा करते थे कि "वे आडवानी को वाजपेयी की तुलना में ज्यादा पसंद करते हैं । उनका मानना था आडवानी बेलाग बोलते है ,ज्यादा सुलझे हुए है और जो बोलते है वही करते है "। ये अलग बात है कि राम विलास जी आज बिहार में अपना चुनावी मुद्दा आडवानी को ही बना लिया है । नीतिश कुमार की आलोचना के लिए उनके पास मुद्दे नहीं है । लेकिन वे muslim मतदाताओं को यह कह कर डरा रहे हैं कि नीतिश कुमार आडवानी को प्रधान मंत्री बना रहे हैं ।राम विलास जी को मालूम है कि लालू प्रसाद ने इसी आडवानी और बीजेपी का खौफ दिखाकर बिहार में १५ साल अपना कब्जा बरक़रार रखा । यानि आडवानी का खौफ वोट बैंक का दरकने से बचा सकता है । इस तरह फ्रंट कोई भी हो सबके निशाने पर आडवानी है । लेफ्ट फ्रंट का दावा है कि आडवानी ने कांग्रेस के प्रधानमंत्री के उमीदवार को टीवी पर खुली बहस की चुनौती देकर अमेरिकी प्रणाली की शाशन व्यवस्था की पहल की है । १९८४ के बाद यह पहला मौका था जब देश के सामने दो प्रधानमंत्री का नाम सामने आया था । पिछले २० वर्षों में यह चुनाव ड्राइंग रूम और क्लबों में ही होते रहे है । आम वोटरों ने अपने प्रधान मंत्री का नाम तब जाना जब मीडिया के सामने उन्हें लाकर यह बताया जाता है कि यही देश के प्रधानमंत्री होंगे ।
पछले लोक सभा चुनाव में कांग्रेस ने अपनी जीत का सेहरा अपने नारे को दिया था । यानि "कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ "ने बीजेपी के "शायनिंग इंडिया "के मुहीम पर पानी फेर दिया था । इस चुनाव में आम आदमी के लिए काम करने का कांग्रेस के कई दावे हैं ,रोजगार गारंटी स्कीम से लेकर कर्ज माफ़ी तक ,परमाणु बिजली से लेकर बुनियादी आधार मजबूत करने तक । ऐसे कई दावे है जिस पर कांग्रेस इतरा सकती थी । आतंकवाद के मुद्दे पर कांग्रेस भले ही नाकामयाब रही हो लेकिन अपने पारंपरिक वोट बैंक को दुरुस्त करने में कांग्रेस कोई कसर नही छोड़ी थी ,लेकिन फ़िर भी कांग्रेस को अपने नेता को सीधे चुनाव में उतरने और विकास के नाम पर सार्ब्जानिक बहस से परहेज क्यों थी । क्यों कांग्रेस के ये मुद्दे गौण हो गए और सीधा निशान आडवानी बन गए । प्रधानमंत्री कहते है कि आडवानी भाषण कला में उनसे ज्यादा दक्ष है लेकिन काम करने के मामले में वे काफी आगे है । प्रधानमंत्री यह जानते है कि टीवी के इस दौर में सौंड बाईट ही मुद्दा बना रहा है । कह सकते है टीवी ने आज अमेठी में भाई के लिए चुनाव प्रचार कर रही प्रियंका को राष्ट्रीय नेता बना दिया है । तो महज कुछ सौंड बाईट के जरिये वरुण गांधी बीजेपी के पोस्टर बॉय बन गए । यानि इस बार चुनाव नेता नही लड़ रहे है बल्कि मीडिया उन्हें मसाला दे रहा है और मुद्दे भी । चुनाव आयोग की एक और जिम्मेदारी बढ़ गई है और सेंसर बोर्ड की नई भूमिका में चुनाव आयोग नेताओं के बयानों पर कभी कैची चला रहा है तो कभी अधिकारी से ऍफ़ आई आर दर्ज करबा रहा है । कोई नही कह सकता कि कौन किसको उलझा रहा है । राजनितिक पार्टियों के मोटी मोटी मनिफेस्टो धूल खा रही है और नेता आडवानी के पक्ष और विपक्ष में सौंड बाईट दे रहे है । ८१ वर्ष पार कर चुके आडवानी अपने ५६ साल के राजनितिक जीवन का निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं । लेकिन देश की बदली परिस्थिति और मिजाज़ को जितना आडवानी ने समझा है उतना शायद कोई नही समझ पाया । आडवानी यह जानते हैं कि यह यांग इंडिया है ,यह एक सशक्त मध्यम वर्ग का मजबूत भारत है । आई टी की ताक़कत को उन्होंने पहचाना तो मीडिया की किचेन तक की पहुँच को उन्होंने अपने लिए इस्तेमाल किया । और इस मामले में वे कामयाब रहे हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी की बीजेपी से उन्होंने वाजपेयी का नाम पुरी तरह से हटा दिया है । आज बीजेपी की यह मजबूरी नही है कि वे अपने भूतों को याद करे । बीजेपी के पास जो कुछ भी है वर्त्तमान है । हो सकता है कि भविष्य के लिए उसके पास कोई राहुल नही है लेकिन मोदी नही तो वरुण नही तो कोई और आडवानी बनने के लिए कोई और चेहरा सामने आ सकता है । आप मानिये या न मानिए आडवानी को खारिज तो कतई न ही कर सकते । आप चाहे घृणा कीजिये या प्यार आडवानी इस चुनाव में आपके दिलों तक जरूर उतर आया है ।
पछले लोक सभा चुनाव में कांग्रेस ने अपनी जीत का सेहरा अपने नारे को दिया था । यानि "कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ "ने बीजेपी के "शायनिंग इंडिया "के मुहीम पर पानी फेर दिया था । इस चुनाव में आम आदमी के लिए काम करने का कांग्रेस के कई दावे हैं ,रोजगार गारंटी स्कीम से लेकर कर्ज माफ़ी तक ,परमाणु बिजली से लेकर बुनियादी आधार मजबूत करने तक । ऐसे कई दावे है जिस पर कांग्रेस इतरा सकती थी । आतंकवाद के मुद्दे पर कांग्रेस भले ही नाकामयाब रही हो लेकिन अपने पारंपरिक वोट बैंक को दुरुस्त करने में कांग्रेस कोई कसर नही छोड़ी थी ,लेकिन फ़िर भी कांग्रेस को अपने नेता को सीधे चुनाव में उतरने और विकास के नाम पर सार्ब्जानिक बहस से परहेज क्यों थी । क्यों कांग्रेस के ये मुद्दे गौण हो गए और सीधा निशान आडवानी बन गए । प्रधानमंत्री कहते है कि आडवानी भाषण कला में उनसे ज्यादा दक्ष है लेकिन काम करने के मामले में वे काफी आगे है । प्रधानमंत्री यह जानते है कि टीवी के इस दौर में सौंड बाईट ही मुद्दा बना रहा है । कह सकते है टीवी ने आज अमेठी में भाई के लिए चुनाव प्रचार कर रही प्रियंका को राष्ट्रीय नेता बना दिया है । तो महज कुछ सौंड बाईट के जरिये वरुण गांधी बीजेपी के पोस्टर बॉय बन गए । यानि इस बार चुनाव नेता नही लड़ रहे है बल्कि मीडिया उन्हें मसाला दे रहा है और मुद्दे भी । चुनाव आयोग की एक और जिम्मेदारी बढ़ गई है और सेंसर बोर्ड की नई भूमिका में चुनाव आयोग नेताओं के बयानों पर कभी कैची चला रहा है तो कभी अधिकारी से ऍफ़ आई आर दर्ज करबा रहा है । कोई नही कह सकता कि कौन किसको उलझा रहा है । राजनितिक पार्टियों के मोटी मोटी मनिफेस्टो धूल खा रही है और नेता आडवानी के पक्ष और विपक्ष में सौंड बाईट दे रहे है । ८१ वर्ष पार कर चुके आडवानी अपने ५६ साल के राजनितिक जीवन का निर्णायक लड़ाई लड़ रहे हैं । लेकिन देश की बदली परिस्थिति और मिजाज़ को जितना आडवानी ने समझा है उतना शायद कोई नही समझ पाया । आडवानी यह जानते हैं कि यह यांग इंडिया है ,यह एक सशक्त मध्यम वर्ग का मजबूत भारत है । आई टी की ताक़कत को उन्होंने पहचाना तो मीडिया की किचेन तक की पहुँच को उन्होंने अपने लिए इस्तेमाल किया । और इस मामले में वे कामयाब रहे हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी की बीजेपी से उन्होंने वाजपेयी का नाम पुरी तरह से हटा दिया है । आज बीजेपी की यह मजबूरी नही है कि वे अपने भूतों को याद करे । बीजेपी के पास जो कुछ भी है वर्त्तमान है । हो सकता है कि भविष्य के लिए उसके पास कोई राहुल नही है लेकिन मोदी नही तो वरुण नही तो कोई और आडवानी बनने के लिए कोई और चेहरा सामने आ सकता है । आप मानिये या न मानिए आडवानी को खारिज तो कतई न ही कर सकते । आप चाहे घृणा कीजिये या प्यार आडवानी इस चुनाव में आपके दिलों तक जरूर उतर आया है ।
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