इस बार हमारे जैसे पप्पू भी वोट करेंगे

पिछले एक दसक से देश की बदली सियासत पर अगर नज़र डालें तो आप यह दावे के साथ कह सकते हैं कि सरकार बनाने का जनादेश जनता ने न तो एक सियासी पार्टी को दिया न ही किसी खास व्यक्ति को । लेकिन फ़िर भी सरकार बन रही है सत्ता का खेल हो रहा है। ये अलग बात है कि इन तमाम प्रक्रियायों में जनता कहीं नहीं है । देवेगौडा से लेकर गुजराल तक वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक इन्हें प्रधान मंत्री बनाने में क्या किसी मतदाता का योगदान है तो यह बात पक्की तौर पर कही जा सकती है कि इसमे जनता का, जनता के लिए ,जनता दुआरा शासन की अवधारणा बेमानी साबित होती है । एच ड़ी देवेगौडा ,आई के गुजराल प्रधानमंत्री कैसे बने ये बात बेहतर लालू प्रसाद यादव ही बता सकते हैं । अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाने में २३ राजनितिक दलों का योगदान था । सत्ता से बीजेपी को बाहर रखने के लिए लेफ्ट और कांग्रेस ने २४ दलों का यु पी ऐ बनाया और मैडम सोनिया गाँधी को सत्ता सँभालने का आग्रह किया । लेकिन सोनिया जी ने त्याग का बेमिशाल परिचय देते हुए मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया । मनमोहन सिंह भी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में न तो इस देश के मतदाताओं का योगदान है न ही किसी सियासी पार्टी की न ही कांग्रेस की । लेकिन फ़िर भी हम इस सरकार से अपेक्षा कर ते है , महगाई के लिए , बढ़ते आतंकवाद के लिए सरकार को कोसते हैं । यह जानते हुए भी की यह सरकार वैधानिक रूप से जितने जिम्मेबार सोनिया गाँधी के प्रति हैं उतना शायद ही देश और संसद के प्रति ।
अगर राजनितिक दलों के पोलिंग फीसद को देखें तो यह साफ़ है कि इस देश के मतदाताओं ने किसी जातीय गुट को वोट किया या फ़िर किसी क्षेत्र को तरजीह दिया या फ़िर मजहब को आधार बनाया उसके जेहन में न तो देश था न ही कोई मुद्दा । यानि इस देश के मतदाताओं ने भारत में गृह युद्ध के लिए मतदान किया था । भला हो हमारे राजनेताओं का जिन्होंने ने सूझ बुझ दिखाते हुए सत्ता पर काबिज हो गए । लेकिन आदत से मजबूर हम फ़िर भी राजनेताओं को कोसते हैं ।
आज बराक ओबामा की चर्चा हर जगह हो रही है । अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव या उसके राष्ट्रपति के उमीदवार को लेकर चर्चा भारत में इस कदर आम थी मनो ओबामा भारत के किसी शहर के मुनिसिपल के उम्मीदवार हों । लेकिन अपने यहाँ न तो कभी प्रधान मंत्री की चर्चा होती न ही राष्ट्रपति की क्योंकि इसे मतदाता नहीं तय करते बल्कि इसे आलाकमान तय करते है । यानि आलाकमान हमें बताते है की हमारा राष्ट्रपति , हमारा प्रधानमंत्री ,हमारा मुख्यमंत्री कौन होगा । ६ राज्यों में विधान सभा के लिए चुनाव हो रहे हैं , चुनावी सरगर्मी जोरों पर है । बीजेपी ने अपने मुख्यमंत्री के दावेदार का एलान कर रखा है , लेकिन दूसरी पार्टियों ने ये फ़ैसला आलाकमान पर छोड़ दिया है । यानि लोग सरकार बनाने के लिए मतदान कर रहे है लेकिन सरकार के चेहरे को गुप्त रखा जा रहा है । वजह साफ़ है की जो लोग सरकार के नीतियों के खिलाफ जितनी बहस करते है , चुनावी प्रक्रिया से वे उतने ही दूर रहते है । पिछले २० वर्षों से मैंने कभी वोट नही डाला है । यानि पप्पू के श्रेणी में मैं भी अपने आपको पाता हूँ लेकिन राजनेताओं को खूब कोसता हूँ । चुनाव आयोग ने अपने एक इश्तेहार में वोट न करने वाले पप्पुओं को वोट देने की अपील की है । शायद इस बार लीडरों को कोसने के वजाय मैं भी वोट करूंगा । क्या आप भी ?

टिप्पणियाँ

Udan Tashtari ने कहा…
वोट तो देना ही चाहिये. इसे नैतिक दायित्व मानें.

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