ओमर अब्दुल्ला की नाकामी बनी देश की परेशानी

कश्मीर आज जल रहा है .अलगाववाद एक बार फिर कश्मीर मे हावी है .आज वहां आतंकवादियों की पकड़ ढीली हो चुकी है लेकिन अलगाववाद ने फिनिक्स की तरह फिर से समाज मे अपना आधार बना लिया है लेकिन सवाल यह उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है .पिछले दिनों एक के बाद एक हुई घटना मे १० से ज्यादा बच्चे और नौजवान मारे गए है .यानि बन्दूक वरदारों की जगह पत्थर वाजों ने ले ली है .पत्थरवाजों के हाथों पिटते जम्मू कश्मीर पुलिस के जवानों देखकर यह कहा जा सकता है पत्थर वाजों को लेकर सरकार मे अभी यह तय होना बांकी है इन हुडदंगियों से कैसे निपटे .जब    कोई नौजवान सी आर पी ऍफ़ की करवाई मे मारा जाता है तो रियासत की हुकूमत यह दावा करती है कि इस फाॅर्स पर उनका कोई कंट्रोल नहीं है .यानी कश्मीर मे सी आर पी ऍफ़ बेलगाम है .जबकि सच यह है कि सी आर पी ऍफ़ बगैर राज्य पुलिस की इजाज़त के एक कदम भी मूव नहीं कर सकता .लेकिन सियासत ऐसी की सरकार कभी इन पत्थर वाजों को भारत दर्शन टूर के लिए प्रोग्राम बनाती है तो कभी इन पत्थर वाजों को पुचकारने के लिए आर्थिक पाकेज का ऐलान करती है .लेकिन पिछले वर्षों मे अलगाववाद की सियासत को इन पत्थर वाजों ने हैजक कर रखा है और सरकार को इनसे निपटने के लिए कोई रणनीति नहीं है .
.भारत सरकार का मानना है कि इन पत्थर वाजों के पीछे आतंकवादियों का खेल है .यानी इस समस्या से निपटने मे अक्षम सरकार बहाना ढूंढ़ रही है .राज्य पुलिस  यह मान रही है कि वादी मे आतंकवादियों का असर समाप्ति के दौर मे है फिर इस फेस लेस आतंक से लड़ने के लिए सरकार के पास क्या रणनीति है इसका खुलासा होना बांकी है .
गृह मंत्री इन बवाल के पीछे लश्कर ऐ तोइबा का हाथ मान कर समस्या से मुहं मोड़ रहे है तो राज्य के मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्लाह हर वाकये के बाद इसलिए परेशान हो जाते है कि इसका सियासी फायदा कही पी डी पी के महबूबा न ले जाय .ओमर अब्दुल्ला मानते है कि श्रीनगर के कुछ इलाके सोपोर और बारामुला के शहरी इलाके मे सिर्फ यह फसाद है लेकिन शायद वह भूल जाते है कि इन तमाम इलाकों से उनकी पार्टी नेशनल कांफेरेंस ही चुनाव जीती है .यानि यह एन सी का इलाका है लेकिन यहाँ सियासत अलगाववादियों की चलती है तो फिर यहाँ ओमर अब्दुल्ला किस काम के है महज १०० २०० के पत्थर वाजों की टोली ने लाखों कश्मीरियों के उम्मीदों पर पानी फेर दिया है .
 गौर करने वाली बात यह है कि १.५ साल पहले इसी  कश्मीर मे चुनाव हुए थे जिसमे ६५ फिसद से ज्यादा लोगों ने वोट डालकर भारत के तई अपना भरोसा जताया था लेकिन आज आज़ादी के हक मे नारे लगा रहे है यानी मजबूरी मे सज्जाद गनी लोन जैसे अलगाववादी नेता चुनावी मैदान मे उतरे थे तो माना जा सकता है कि कश्मीर मे अलगाववादी लीडरों ने लोगों के बीच अपना आधार खो चुके थे . लेकिन वही अलगाववादी नेता आज नौजवानों के आदर्श है .. भूल हुकूमत से हुई है .हुकूमत ने कश्मीर मे बदले मिज़ाज को पहचाना नहीं .जाहिर है यह कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री ओमर ओब्दुल्ला फ्लॉप शो साबित हुए है .
याद कीजिये ओमर अब्दुल्ला का वह जोशीला भाषण । विश्वास प्रस्ताव पर संसद में महज दो मिनट के भाषण से वे मिडिया के हीरो बन गए थे ।अलगाववाद की भाषा बोलकर ओमर अब्दुल्ला  कश्मीर में नौजवानों के बीच अपनी पहचान बनाई थी . उन्हें लोगों ने हाथो हाथ लिया था । कांग्रेस के आलाकमान इस भाषण से इतने प्रभावित हुए थे कि जब बारी मुख्यमंत्री चुनने की आई तो उन्होंने सिर्फ़ ओमर अब्दुल्ला के लिए हामी भरी । लेकिन इस अब्दुल्ला ने जल्द ही सबको निराश किया ।
पिछले ६० वर्षों में भारत सरकार ने जितना तब्बजो कश्मीर को दिया है .उतना ध्यान शायद ही कोई राज्य आपनी ओर कर पाया हो । कश्मीर में इन वर्षों में जो माहौल बना है उसके लिए इस देश को भारी कुर्बानिया भी देनी पड़ी है । पैसे का हिसाब किताब आप भूल जाए । महज इन  वर्षों में कश्मीर को ६०००० करोड़ रूपये से ज्यादा केंद्रीय सहायता मिले है । सबसे बड़ी बात यह कि कश्मीर में अमन पाने के लिए हमने २०००० से ज्यादा जवानों को शहीद किया है । और जब अमन के इस माहोल को आगे ले चलाने की बात आती है तो  अब्दुल्ला के अलावा और कोई चारा क्यों नही होता है ? कश्मीर मे अस्सेम्ब्ली सत्र के दौरान यह पूछा जाता है कि मुख्यमंत्री कहाँ है ?तो जाहिर है यही सवाल कश्मीर के लोग भी पूछ रहे है कि ओमर अब्दुल्ला किसका मुख्यमंत्री है ?अगर नौजवान मुख्यमंत्री से लोगों का संवाद नहीं है तो कहा जा सकता है कि ओमर अब्दुल्ला न केवल रियासत का बल्कि इस देश का भी भारी नुकसान कर रहे है .कश्मीर मे अमन लौटने और माहोल बनाने के लिए हमारे हजारो जवानों ने कुर्वनिया दी है .यह कुर्वानी इस लिए नहीं दी गयी थी राजगद्दी ओमर अब्दुल्ला को मिले .
कांग्रेस का समर्थन ओमर अब्दुल्ला को अगर इसलिए है कि वह राहूल के दोस्त है तो यह हमें नही भूलना चाहिए कि कभी इस देश ने पंडित नेहरू और शेख अब्दुल्ला की दोस्ती के कारण काफ़ी नुकशान सहा है । ये परेशानी आज तक पीछा नही छोड़ रही । अगर इसी दोस्ती के नाम पर यह सिलसिला जारी रहा तो कश्मीर में पाने के वजाय हम ज्यादा खोएंगे ।

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