सहिष्णुता ,धर्मनिरपेक्षता सिर्फ सियासी जुमले है ?
महामहिम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बार बार सहिष्णुता और अनेकता में एकता की महान परम्परा को याद दिलाकर यह बताने की कोशिश कर रहे है कि हम इस देश की मौलिक पहचान को भुला रहे है। यही बात हमारे कुछ इतिहासकार ,कुछ अकादमी सम्मान से सामनित लेखक ,वैज्ञानिक ,अभिनेता भी अपना सरकारी तमगा लौटाकर बताने की कोशिश कर रहे हैं कि इसके लिए सिर्फ मोदी सरकार जिम्मेदार है। लेकिन इन तमाम बहस के बीच जम्मू कश्मीर सरकार का हलफनामा हमारे सेक्युलर सोच और सहिष्णुता की अवधारणा और निष्ठां पर सवालिया निशान लगा देता है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा देकर जम्मू कश्मीर सरकार ने माना है कि साढ़े चार लाख निर्वासित पंडितो में सिर्फ एक परिवार अबतक कश्मीर लौटा है। २५ वर्षो से अपने ही मुल्क में निर्वासित जीवन जी रहे लाखो परिवार अगर घर लौटने की हिम्मत नहीं जुटा रहा है तो माना जायेगा कि सहिष्णुता ,धर्मनिरपेक्षता सिर्फ सियासी जुमले है ,इस मुल्क की सियासत इसके लिए कभी चिंतित नहीं हुई है।
यह वही कश्मीर है जहाँ महात्मा गांधी को आशा की किरण दिखाई दी थी। यह वही कश्मीर था जहाँ भारत -पाकिस्तान विभाजन के दौर में भी हिन्दू -मुसलमान अपनी शानदार परंपरा को धूमिल नहीं होने दिया था लेकिन १९८८ के बाद ऐसी हालत क्यों बनी जिसके कारण अल्पसंख्यक पंडितो को अपना बसा बसाया घर छोड़ना पड़ा ,अपने हजारो अजीजो को खोना पड़ा। तो क्या इसके लिए तत्कालीन हुकूमत जिम्मेदार नहीं है ? क्या सिर्फ पाकिस्तान की साजिश का बहाना देकर हमारे राजनेताओ ने कश्मीर के कट्टरपंथियों के आगे घुटने नहीं टेके थे ? क्या सिर्फ अब्दुल्लाह खानदान की सियासत को अक्षुण्ण रखने के लिए हमारे राजनेताओ ने लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता , सहिष्णुता के साथ घिनौना खेल नहीं खेला ? यानी राजनीति में इन तमाम आदर्शो को हमारे उन्ही सियासी लीडरों ने जुमला बना दिया जो इसे आज आदर्श बता रहे हैं।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की अंग्रीजा दा और उनके स्वनिर्मित समाजवादी छवि की आड़ में कांग्रेस ने अपने लिए एक औरा बनाने में कामयाबी पायी थी ,जिसमे उनके बनाये गयी व्यवस्था ही देश की परंपरा और संस्कृति माना गया । विविधता से भरे इस देश के लोगों ने न तो सहिष्णुता और न ही धर्मनिरपेक्षता राजनेताओ से सीखी न ही इस देश ने कभी यह जानने की कोशिश कि की कांग्रेस के लीडरान ने अनेकता में एकता के लिए क्या सन्देश दिया है। ये यहाँ की मिटटी में है लोगों के डी एन ए में है। जातीय हिंसा ,धार्मिक उन्माद सदियों से होते रहे है। यह भारत की ही नहीं अमेरिका जैसे सभ्य समाज के ऊपर भी बदनुमा दाग है। भारत में हिन्दू मतों को मानने वाले लोगों के बीच दंगे होते रहे हैं ,जातियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई यहाँ कविलाई शान के रूप में परिभाषित हुई है। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि हमारे आदर्श चिंतक इसके लिए अपना पदक लौटा दिया हो या देश टूटने का खतरा बताया हो। इस मुल्क ने अल्पसंख्यको को दिए गए विशेष क़ानूनी अधिकार पर कभी सवाल नहीं उठाया। देश की सर्वोच्च अदालत इस परम्परा को घातक बता रही है फिर उसी देश के विधान और कानून में बीफ को लेकर प्रतिवंध को लेकर मौलिक अधिकार की बहस क्यों है।प्रधान मंत्री मोदी के विचारो से असहमति हो सकती है ,उनके शासन और नीति की निंदा की जा सकती है लेकिन अगर हम मोदी की निंदा और उन्हें खतरनाक इसलिए बता रहे है कि वे नेहरू स्कूल से नहीं आते है या फिर अंग्रेजी दा मणिशंकर अय्यर जैसे लोग एक ""चायवाला" को प्रधानमंत्री की कुर्शी पर बैठे नहीं देख सकते तो इस देश को यह तय करना पड़ेगा कि असहिष्णु कौन है ?
यह वही कश्मीर है जहाँ महात्मा गांधी को आशा की किरण दिखाई दी थी। यह वही कश्मीर था जहाँ भारत -पाकिस्तान विभाजन के दौर में भी हिन्दू -मुसलमान अपनी शानदार परंपरा को धूमिल नहीं होने दिया था लेकिन १९८८ के बाद ऐसी हालत क्यों बनी जिसके कारण अल्पसंख्यक पंडितो को अपना बसा बसाया घर छोड़ना पड़ा ,अपने हजारो अजीजो को खोना पड़ा। तो क्या इसके लिए तत्कालीन हुकूमत जिम्मेदार नहीं है ? क्या सिर्फ पाकिस्तान की साजिश का बहाना देकर हमारे राजनेताओ ने कश्मीर के कट्टरपंथियों के आगे घुटने नहीं टेके थे ? क्या सिर्फ अब्दुल्लाह खानदान की सियासत को अक्षुण्ण रखने के लिए हमारे राजनेताओ ने लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता , सहिष्णुता के साथ घिनौना खेल नहीं खेला ? यानी राजनीति में इन तमाम आदर्शो को हमारे उन्ही सियासी लीडरों ने जुमला बना दिया जो इसे आज आदर्श बता रहे हैं।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की अंग्रीजा दा और उनके स्वनिर्मित समाजवादी छवि की आड़ में कांग्रेस ने अपने लिए एक औरा बनाने में कामयाबी पायी थी ,जिसमे उनके बनाये गयी व्यवस्था ही देश की परंपरा और संस्कृति माना गया । विविधता से भरे इस देश के लोगों ने न तो सहिष्णुता और न ही धर्मनिरपेक्षता राजनेताओ से सीखी न ही इस देश ने कभी यह जानने की कोशिश कि की कांग्रेस के लीडरान ने अनेकता में एकता के लिए क्या सन्देश दिया है। ये यहाँ की मिटटी में है लोगों के डी एन ए में है। जातीय हिंसा ,धार्मिक उन्माद सदियों से होते रहे है। यह भारत की ही नहीं अमेरिका जैसे सभ्य समाज के ऊपर भी बदनुमा दाग है। भारत में हिन्दू मतों को मानने वाले लोगों के बीच दंगे होते रहे हैं ,जातियों के बीच वर्चस्व की लड़ाई यहाँ कविलाई शान के रूप में परिभाषित हुई है। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि हमारे आदर्श चिंतक इसके लिए अपना पदक लौटा दिया हो या देश टूटने का खतरा बताया हो। इस मुल्क ने अल्पसंख्यको को दिए गए विशेष क़ानूनी अधिकार पर कभी सवाल नहीं उठाया। देश की सर्वोच्च अदालत इस परम्परा को घातक बता रही है फिर उसी देश के विधान और कानून में बीफ को लेकर प्रतिवंध को लेकर मौलिक अधिकार की बहस क्यों है।प्रधान मंत्री मोदी के विचारो से असहमति हो सकती है ,उनके शासन और नीति की निंदा की जा सकती है लेकिन अगर हम मोदी की निंदा और उन्हें खतरनाक इसलिए बता रहे है कि वे नेहरू स्कूल से नहीं आते है या फिर अंग्रेजी दा मणिशंकर अय्यर जैसे लोग एक ""चायवाला" को प्रधानमंत्री की कुर्शी पर बैठे नहीं देख सकते तो इस देश को यह तय करना पड़ेगा कि असहिष्णु कौन है ?
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