अगला नोबेल पीस प्राइज़ क्या भारत आयेगा ?
अगला नोबेल पीस प्राइज़ क्या भारत आयेगा ? बहुत ही सरल सवाल पूछ कर सुप्रीम कोर्ट ने देश के एक जटिल सवाल की ओर लोगों का ध्यान दिलाया है। पिछले 50 वर्षो से मार्क्सिस्ट गुरिल्ला आतंक से लहुलहान कोलंबिया ने बामपंथी अतिवादियों से पीस डील करके इन्शानियत को नयी फ़िज़ा में सांस लेने का मौका दिया है। कोलंबिया में बामपंथी अतिवादियों की हिंसा में दो लाख साठ हजार लोग मारे गए और ६ लाख से अधिक ग्रामीण लोगों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा था। जाहिर है कोलंबिया के प्रेसिडेंट जॉन मानुएल सांतोस को इस महान समझौते के लिए सर्वश्रेष्ठ पीस प्राइज़ नोबेल प्राइज से सम्मानित किया गया। सुप्रीम कोर्ट का सवाल अपने आप में गंभीर है क्या जॉन मानुएल सांतोस के महान कार्य को भारत में दोहराया नहीं जा सकता ? क्या भारत के विभिन्न प्रान्तों में जारी हिंसक आंदलोनों से संवाद का तार नहीं जोड़ा जा सकता ? इस देश की व्यवस्था ,बुद्धिजीबी और जन साधारण क्या इस चुनोती को स्वीकार करेंगे ?
कश्मीर में पिछले 25 वर्षों से जारी अतिवादी हिंसा का स्वरूप माओवाद हिंसा से अलग है। कश्मीर के उग्रवाद का नियंत्रण पाकिस्तान के हाथ में है जाहिर टेप कब और किस बक्त ढीला करना है यह पाकिस्तान तय करता है ,लेकिन माओवादी हिंसा एक स्थानीय संघर्ष है जसमे गुरिल्ला जंग का उद्देस्य सिर्फ सत्ता है। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों की सनक घडी की सुई को उलटी दिशा में घुमाने की है जो जनतंत्र की जमीनी सचाई को झूठ बताकर मार्क्स और माओ को आदर्श बनाने की की जींद पर अड़े हुए हैं। लेकिन क्या दिल्ली इतना पाक साफ़ है कि सारे इल्जाम इन्ही गुरिल्लों के सिर थोप दिया जाय ?
नक्सल आतंक के खिलाफ पिछले कई वर्षों से सरकार पूरी ताकत लगा रखी है , कांग्रेस सरकार यह नही तय कर पायी की इस जंग की कमान किसके हाथ मे होगी ?. यानी यह जंग राज्य सरकार लड़ेगी या केंद्र। एलेक्शन का सवाल लगभग हर पार्टी के लिए अहम् है सो कई पूर्वर्ती सरकार सामने नही आना चाहती थी। केंद्र की चालाकी यह थी कि राज्य सरकारों को आर्थिक मदद के साथ साथ ४० से ५० बटालियन सी आर पी ऍफ़ नक्सल प्रभावित राज्यों को भेज रहे थे .लेकिन लड़ाई की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर छोड़ रहे थे। राज्य सरकार चाहती थी कि नक्सल खिलाफ लड़ाई केंद्र सरकार खुद लड़े. यह देश का सवाल नही था यह वोट का सवाल था . मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नक्सल के खिलाफ सख्त बयानवाजी करते दीखते है लेकिन करवाई के सवाल पर हमेशा पीछे हट जाने के लिए मसहूर हैं। बंगाल की पूर्वर्ती सरकार को कई टॉप नक्सली सेफ पैसेज देना पड़ा था ,अपने अफसर को आज़ाद कराने के लिए कई नक्सली कमांडर को छोड़ना पड़ा था। यही हाल ओडिशा छत्तीसगढ़ का था जहा हर होस्टेज क्राइसिस के समय राज्य सरकार नक्सली के सामने घुटने टेकते नज़र आयी।लेकिन इस सियासी दावपेंच का भारी नुक्सान हमेशा सुरक्षाबलों को उठाना पड़ा था ।
.पिछले ४ वर्ष पहले तक देश के तकरीबन १४ राज्यों में नक्सलियों का दबदवा कायम था .पिछले वर्षो में नक्सलियों ने ३ ५०० से ज्यादा हिंसक वाकये को अंजाम देकर १७००० से ज्यादा लोगों की जान ले ली है ,जिसमे २००० से ज्यादा सुरक्षाबलों ने अपनी जान की कुर्वानी दी है .अरबों खरबों रूपये के निवेश नक्सली सियासत की भेट चढ़े है .. यह दिल्ली को तय करना था लेकिन जिम्मेदारी दूसरे पर डाली जा रही थी।
मौजूदा दौर में नक्सल के खिलाफ अभियान के ढोल नगाड़े नहीं बज रहे है। .न ही किसी आपरेशन की खबर मिडिया में छप रही है। तो क्या सरकार ने नक्सल के खिलाफ अभियान को पिछे धकेल दिया है ? अभी हाल में बिहार में नक्सलियों ने घात लगा कर १० से ज्यादा सी आर ऍफ़ जवानों को शहीद कर दिया है । जाहिर है इस हमले से माओवादी केंद्र की अगली कार्रवाई और धैर्य की लीमिट परखना चाहते थे। नक्सली इस दौर में यह जान चुके है कि केंद्र अपनी जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार है सो लड़ाई आसान नहीं है।
लेकिन यह बात केंद्र को भी समझना होगा कि माओवादी हो या कश्मीर के अलगाववादी भले ही इन्होंने देश के संप्रभुता के खिलाफ मोर्चा खोला हो लेकिन जम्हूरियत में बात बोली से बनती है गोली से नहीं। एक दौर में कश्मीर में अलगाववाद और आतंक जम्हूरियत की मजबूती से कमजोर हुई थी। सेना की भूमिका इसमें न के बराबर थी। जम्हूरियत के तई भरोसा बढ़ाने को लेकर अटल जी कश्मीर में आज भी आदर्श माने जाते है ,तो क्या इस परंपरा को मोदी सरकार आगे नहीं बढ़ा सकती है? इस देश में हर समस्या का समाधान लोकतंत्र में ढूंढा जा सकता है यह समझने में मणिपुर की आयरन लेडी इरोम शर्मीला को १६ साल लगे। हो सकता है कि माओवादी और अलगाववादी को समझने में थोड़ा और वक्त लगे लेकिन सरकार इन प्रभावित इलाकों में स्थनीय निकायों में जम्हूरियत की फ़िज़ा लौटा सकती है और व्यवस्था के प्रति लोगों में भरोसा बढ़ा सकती है । करके देखिये अगला नोबेल भारत का होगा।
लेकिन यह बात केंद्र को भी समझना होगा कि माओवादी हो या कश्मीर के अलगाववादी भले ही इन्होंने देश के संप्रभुता के खिलाफ मोर्चा खोला हो लेकिन जम्हूरियत में बात बोली से बनती है गोली से नहीं। एक दौर में कश्मीर में अलगाववाद और आतंक जम्हूरियत की मजबूती से कमजोर हुई थी। सेना की भूमिका इसमें न के बराबर थी। जम्हूरियत के तई भरोसा बढ़ाने को लेकर अटल जी कश्मीर में आज भी आदर्श माने जाते है ,तो क्या इस परंपरा को मोदी सरकार आगे नहीं बढ़ा सकती है? इस देश में हर समस्या का समाधान लोकतंत्र में ढूंढा जा सकता है यह समझने में मणिपुर की आयरन लेडी इरोम शर्मीला को १६ साल लगे। हो सकता है कि माओवादी और अलगाववादी को समझने में थोड़ा और वक्त लगे लेकिन सरकार इन प्रभावित इलाकों में स्थनीय निकायों में जम्हूरियत की फ़िज़ा लौटा सकती है और व्यवस्था के प्रति लोगों में भरोसा बढ़ा सकती है । करके देखिये अगला नोबेल भारत का होगा।
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