कश्मीर मसला है.... या बकैती ?
अमरनाथ यात्रा और कश्मीर में पथ्थरबाजी का क्या कोई सरोकार है ? कश्मीर में टूरिज्म के पीक सीजन का बंद -हड़ताल से क्या कोई रिश्ता है ? फिर हर साल यह पथ्थरबाजी अक्टूबर-नवंबर और अप्रैल -मई से क्यों तेज हो जाती है ? फिर मीडिया की ख़बरों में इनदिनों इतनी उत्तेजना क्यों है ?,किसी के लिए कश्मीर टी आर पी है तो किसी के लिए सियासत का बड़ा एजेंडा ,किसी के लिए कारोबार तो किसी के लिए दुकान। सच मानिये इस देश में जितने एक्सपर्ट कश्मीर और पाकिस्तान मामले के है .. उतने एक्सपर्ट अब मार्केट में बाल काटने वाले भी नहीं मिलेंगे ? तो क्या वाकई में कश्मीर मसला है.... या बकैती ?
कश्मीर में पिछले 30 वर्षो से सियासत का केंद्र रहे फ़ारूक़ अब्दुल्ला को भारत की सियासत में बॉलीवुड स्टार गोविंदा माने तो शायद गलत नहीं होगा। महफ़िल देखकर डायलग बदलते है ,ओमर अब्दुल्लाह के दौर में महज एक वर्ष में 117 मासूम पथ्थरबाजो के शाजिश के शिकार हुए तब वे कहते थे आतंकवादियों ने मासूमो को मोहरा बनाया था आज "पथ्थरबाज अपने मिशन के लिए संघर्ष कर रहे है"। सी एम् मेहबूबा तब विपक्ष की नेता थी और हिज़्बुल मुजेहिद्दीन के आतंकवादी के मरने पर उसके घर कंडोलेंस के लिए पहुँचती थी। तब सियासतदां मेहबूबा को सॉफ्ट सेपरटिस्ट कहते थे। अब वे क्या हो गयी है ??? और केंद्र की हुकूमत चार्वाक दर्शन को मानकर अँधेरा छटने का पिछले 35 वर्षो से इंतज़ार कर रही है। इन वर्षो में मेजर मस्तगुल से लेकर जनरल मुशर्रफ़ तक आये,आतंकवाद/अलगाववाद की आंधी आयी और चली गयी। लेकिन कश्मीर न तो स्वात वैली बना न ही बजीरस्तान क्योकि जमहूरियत इसके जरे जरे में रची बसी है क्योकि कश्मीर का मतलब "आज़ादी" 95 फीसद को कभी रास नहीं आया।
आज राजनितिक पंडित और कश्मीर विश्लेषक बीजेपी -पी डी पी गठबंधन की मौजूदा सरकार को नाकाम साबित करने पर आमादा है उन्हें याद दिलाने की जरूरत है कि कांग्रेस -एन सी गठबंधन के बाद ही 80 के दौर में वादी आतंकवाद से लहूलुहान हुआ था और कश्मीर से पंडितो को भाग जाना पड़ा था। कश्मीर में सेना ने अपना काम बखूबी से निभाया है ,हर दौर में सिर्फ सियासतदां ही फेल हुए है। आज एकबार फिर कश्मीर मोदी सरकार के सामने चुनौती बनकर खड़ा है ,चुनौती इसलिए कि कश्मीर में आज लोग किसी को अपना नेता नहीं मान रहा है। बातचीत किससे हो क्योंकि अलगाववादी नेता हासिये पर चले गए है ,पथ्थरबाजो का कोई आदर्श नहीं है। 3 फीसद वोट पाकर फ़ारूक़ साहब अपनी औकात समझ चुके हैं।
बम से न गोली से बात बनेगी बोली से अटल जी ने इसे बेहतर समझा था। विश्वास बहाली आज की सबसे बड़ी चुनौती है और यह काम सिर्फ मोदी ही कर सकते हैं आज अगर जम्मू कश्मीर -लदाख के 80 फीसद लोगों ने उन्हें अपना विश्वास दिया है तो क्या वे 20 फीसद वादी का भरोसा नहीं जीत सकते ?
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