शिक्षा के मामले में बिहार हो या कश्मीर सियासत एक जैसी है ?

हर साल जून में बिहार की शिक्षा पर जबरदस्त बहस होती है। हरबार कोई 12 वी का अजूबा  टॉपर मीडिया के सवालों के घेरे में होता है।लेकिन हर साल बिहार से सैकड़ो बच्चे आई आई टी से लेकर आई ए एस की परीक्षा में हंगामेदार उपस्थिति दर्ज करते हैं लेकिन उसकी चर्चा मीडिया में कही नहीं होती। पहलीबार कश्मीर में 18 नौजवानो ने आई ए एस के इम्तिहान में कामयाबी दर्ज की है। आज इसकी चर्चा हर जगह है।  क्योंकि कश्मीर में स्कूल जलाये जा रहे हैं ,नौजवान पत्थर चला रहे हैं फिर ये टॉपर्स कहाँ से आये ? यह कोई पूछने वाला नहीं है कि बिहार में स्कूल  तो 90 के दशक में जला दिए गए ..  ,शिक्षा का तो सिर्फ ढांचा खड़ा है।केंद्रीय फंड की लूट ने पूरी  शिक्षा व्यवस्था को ढेकेदारों के हवाले कर दिया है।  फिर ये सैकड़ो बच्चे आई आई टी और आई ए एस के इम्तिहान में कैसे कामयाब हो रहे हैं। 

सवाल ज्यादा है लेकिन जवाब सिर्फ यह है कि इस दौर में कश्मीर हो या बिहार बच्चों के माता पिता ने जान लिया है की ज्ञान से ही सब कुछ हासिल किया जा सकता है। गरीबी से निजात पाने के लिए आज  शिक्षा ही एक मात्र  माध्यम है.  इन राज्यों में ज्ञान और करियर के लिए अपना गाँव अपना शहर  छोड़ना पड़ता है। कई माता पिता अपने बच्चो के लिए बिहार से बाहर नौकरी ढूंढ लेते हैं और अपनी जमीन से पलायन कर जाते हैं। दिल्ली हो या कोटा  बिहार के अधिकांश लोग यहाँ सिर्फ बच्चो के बेहतर शिक्षा के लिए ही छोटी मोटी नौकरी कर के गुजारा कर रहे हैं। कश्मीर में किसान हो या कारोबारी या सरकारी कर्मचारी  अगर स्थिति थोड़ी सी बेहतर है तो वे अपने बच्चो को कश्मीर से बाहर  जरूर भेजते हैं।2009 में आई ए एस टॉपर शाह फैज़ल ने एक सिलसिला शुरू किया और हर साल कश्मीर से 10 -11 नौजवान आई ए एस में उत्तीर्ण होने लगे। 

नेहरू जी से लेकर इंदिरा जी तक केंद्र के टॉप ब्यूरोक्रेटस  में कश्मीर के पंडितों का बोलबाला था। रियासत में भी बड़े अफसरों की सूची में पंडितो की भूमिका अहम् थी। 90 के दशक में आतंकवाद /अलगाववाद ने पहला निशाना पंडितों को और वहां के स्कूलों को बनाया। खौफ के साये से निकलकर लाखों पंडित दिल्ली और दूसरे शहर पलायन कर गए लेकिन शिक्षा में अपनी धाक नहीं बना पाए। हालाँकि कुछ राज्यों ने उनके बच्चों को सहूलियत देकर बेहतर शिक्षा की जरूर व्यवस्था की। लेकिन इस खालीपन को वहां के संपन्न मुसलमानो ने भरना शुरू किया, शिक्षा ने उन्हें कश्मीर में एक नए फ्यूडल क्लास का दर्जा दिया । स्कूल तो वहां आज भी जलाये जा रहे हैं लेकिन तालीम की रौशनी में वादी के गरीब बच्चे भी आज मुकाम हासिल कर रहे हैं तो यह भारत के विकास की गाथा है।  

लेकिन बिहार की कहानी कुछ अलग है 90 के दशक में बिहार में लालू यादव की हुकूमत ने  पहला निशाना शिक्षा को ही बनाया। अस्तव्यस्त बिहार में उनके गुंडे ने अपहरण को उद्योग बनाकर बिहार के शिक्षकों और डॉक्टर्स को ही लूटना शुरू कर दिया । 90 के दशक तक पटना, इंजीनियरिंग और मेडिकल कोचिंग का केंद्र हुआ करता था। यहाँ के नामी गिरामी शिक्षकों की पुरे देश में तूती बोलती थी लेकिन एक के बाद एक जैसे ही उनपर जानलेवा हमला शुरू हुआ ,खौफ के कारण वे बिहार से भागने लगे । इस दौर में कई नामी प्रोफेसर \डॉक्टर्स और इंजिनीयर्स मारे गए। लेकिन लालू यादव बिहारियों के ज्ञान की ललक को ख़तम नहीं कर पाए। आज राजस्थान के  कोटा में देश के लाखों बच्चे  कोचिंग करने जाते हैं उनके अधिकांश शिक्षक बिहारी ही हैं। बिहार के माता पिता की जिद ने लालू की साजिश को नाकाम कर दिया। लालू की यह ग़लतफ़हमी थी कि बिहार में सिर्फ अपर कास्ट के बच्चे ही पढ़ते हैं ,या फिर वे पढ़ा लिखा नस्ल चाहते ही नहीं थे। आज अपरकास्ट से ज्यादा बिहार में पिछड़े तबके के बच्चे शिक्षा में ज्यादा कामयाब हो रहे हैं और उनकी  हालत भी शिक्षा ने ही बदला है। आज  उन्हें इस बात का यकीन है कि सिर्फ लालू जी जैसे नेताओं के अनपढ़ बच्चे ही बगैर शिक्षा  के हर जगह कामयाब हो सकते हैं।वे यह भी जानते हैं कि लालू जी हो या फिर गिलानी अपने राज्य में शिक्षा क्यों नहीं चाहते हैं ।   विनोद मिश्रा 

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