बड़े सम्पादको के लिए बहार है, अब न तो अखबार ढूढ़ने का संकट है न ही पाठक

आज हर कोई सुनाने को बेताब है। हर के पास सवाल है लेकिन न तो कोई सुनने के लिए तैयार है न किसी के पास जवाब लेने का धैर्य।
मैं ऐसे नामचीन एडिटरों को जानता हूँ जो अपने व्यवसायिक दायित्व के बाद  रात दिन सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं। मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जो दिन में 20 -25 ट्वीट और अपने सद्विचार सोशल मीडिया पर डालते हैं। आखिर ज्ञान की वर्षा इनदिनों क्यों तेज हो गयी है ?शायद इसलिए कि देश में बेरोजगारी बढ़ गयी है या फिर इसलिए कि गरीब की बीबी गांव की भौजाई।

पेड और अनपेड सेनानियों की फ़ौज किसी को भक्त बताकर तो किसी को राष्ट्रवादी गैंग  बताकर अपनी अहमियत को साबित करना चाहती है। इनके ट्वीट  या न्यूज़ फीड पर ट्रोल ही इनका सोशल मीडिया पर टी आर पी है। कह सकते हैं जिसका जितना ट्रोल उतना इनाम। यानी  न्यू मीडिया के दौर में कई नामी गिरामी संपादक आज अपने पाठक के पत्र नहीं ढूंढ रहे हैं बल्कि उनका ध्यान इस और होता है कि उनके सत्यवचन पर कितनी तीखी प्रतिक्रिया हुई  है। बड़े सम्पादको के लिए बहार है, अब न तो अखबार ढूढ़ने का संकट है न ही पाठक। एक घंटे के अंदर वेबसाइट खोलकर  पर बड़े  सम्पादक अपने सम्पादकीय ले कर आ सकते है। भक्त की टोली कहे या ट्रोल के भरोसे वे आसानी से राजपथ  पर अपना ट्रैक बना लेते हैं। जाहिर है चर्चा ,पर्चा और खर्चा की चिंता पहले नेताओ को होती थी आज इससे ग्रस्त पुराने सम्पादक हैं।

लोकतंत्र में चौथा स्तंभ होने का दम्भ हमने पाला है लेकिन हम अबतक यह नहीं जान पाए कि नीरव मोदी को किसी विदेशी बैंक से लोन के लिए पी एन बी क्यों गारंटी दे रहा था ? पी एन बी को इसके लिए 2 %  इंटरेस्ट मिलने का अस्वासन मिला था जबकि विदेशी बैंक 10 फीसद ब्याज नीरव मोदी से वसूल रहे थे। बैंको में इसतरह के एल ओ यु देने के क्या परंपरा रही है ? यह बात सामने तब आती है जब विजय माल्या या नीरव मोदी जैसे लोग देश छोड़ जाते हैं या फिर उनकी कंपनी सिक् घोषित कर दी जाती है । बैंको में जमा धन आमलोगों का है.  जाहिर है इस नाते बैंक एक स्वायत व्यवसायिक संगठन होने के वाबजूद रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया और वित्त मंत्रालय से निर्देशित होता है । रिज़र्व बैंक लोगों के भरोसे को कायम रखने और अर्थ नीति पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए  मॉनेटरी पालिसी पर पूरा नियंत्रण रखता है। लेकिन नीरव मोदी में ऐसा क्या था  कि महज एक डेपुटी मैनेजर की हैसियत वाला व्यक्ति अपने निजी सम्बन्धो के बिना पर पी एन बी उसे 8 बार विदेशो से लोन लेने के एल ओ यु दिया था और यह पता तब चला जब नीरव मोदी 9 वी वार एल ओ यु के लिए बैंक  से संपर्क किया लेकिन तबतक मैनेजर सेठी रिटायर हो चुके थे। यानि इतने बड़े बैंकिंग व्यवस्था में ऑडिट का यह हाल है कि 2011 से नीरव मोदी पी एन बी को चुना लगा रहा था लेकिन सिस्टम को पता तब चला जब गारंटी देने वाला अफसर रिटायर हो चूका था। पिछले 50 वर्षो में  कुछ मुठ्ठी भर लोगों ने बैंकों  के लाखो करोड़ रूपये का चुना लगाया है लेकिन सरकारे कुछ कर नहीं पायी। 50 हजार का लोन हासिल करने के लिए एक आम आदमी को अपनी पूरी सम्पति गारंटी देनी पड़ती है लेकिन सियासत में अपनी पहुंच बनाकर और भ्रष्ट बैंकिंग सिस्टम से तार जोड़ कर कुछ लोगों ने  गांरंटी को रिलेशन का नाम दिया  है। क्या देश के चौथे स्तम्भ ने कभी इस रिलेशन की पड़ताल करने की कोशिश की है ?

 80  दशक में  2000 -3000 रूपये कमाने वाले पत्रकारों में आज कई   बड़े सम्पादक है तो कई सेवा से बाहर हो जाने के बाद भी सोशल मीडिया के जरिये अपनी पत्रकरिता की धार को कमजोर नहीं होने दिया है। वैसे इस दौर में उन्हें अब जीवन यापन का संकट नहीं है सिर्फ ज्ञान धारा चलती रहे और राजपथ पर ये अनजान न दिखें सिर्फ यही जद्दोजेहद है ! लेकिन सबसे बुरा उन फेंस सेटर का हो रहा है जिसने कभी न तो नीरव मोदी को जाना और न ही विजय माल्या को उसने अपनी राय देश और समाज के हित में बनायीं है। लेकिन वर्षों से विजय माल्या और नीरव मोदी के लिए लुटियन इलाके में प्रभाव बनाने वाले लोग इस दौर में फेंस सेटर को भरमा रहे है। देश में हर दिन चुनाव नहीं हो रहे हैं किसी दिन देश के लिए भी सोचे तो बेहतर है।इसमें कोई दो राय नहीं कि देश पॉलिसी पैरलिसिस से ऊपर उठ चूका है लेकिन यह भी सच है कि भ्रष्ट नौकरशाह और लालफीताशाही इस देश को दीमक की तरह चट कर रही  है। स्वच्छ भारत अभियान में पहला झाड़ू शायद इस ओर चलता तो आज हालात और बेहतर होते। 

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