"यही तो रोना है कश्मीर में कोई नयी बात नहीं बोल रहा है"
जीना हो तो मरना सीखो गूँज उठे यह नारा -केरल से करगिल घाटी तक
सारा देश हमारा ..एक नारा कश्मीर में सरहद पार से भी प्रायोजित हुआ कश्मीर बनेगा पाकिस्तान मीट के रहेगा हिंदुस्तान। तो क्या एक ऐतिहासिक भूल ने कश्मीर को समस्या बना दिया है और लगातार इंसानी जाने जा रही है। डॉ. श्यामाप्रसाद मुख़र्जी की रहस्मयी मौत पर दुःख व्यक्त करते हुए तात्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था जब बड़ी गलतियां की जाती हैं, तब इस उम्मीद में चुप रहना अपराध है कि एक-न-एक दिन कोई सच बोलेगा" .. और यह सच बोलने की हिम्मत श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दिखाई और बिना परमिट लिए एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान, नहीं चलेगा- नही चलेगा के नारे के साथ कश्मीर में दाखिल हो गए थे। मुश्किल यह है कि आज भी 65 साल बीत जाने के बाद भी कोई सच बोलने की हिम्मत नहीं दिखा रहा है। दिल्ली स्थित सैयद अली शाह गिलानी के घर से लौटते वक्त मुझे उनका एक रिश्तेदार मिला पूछा क्या खबर लेकर जा रहे हो ? मैंने कहा भाई पुरानी टेप और आज में कोई अंतर नहीं है। मुस्कुराते हुए उसने कहा "यही तो रोना है कश्मीर में कोई नयी बात नहीं बोल रहा है ".
सारा देश हमारा ..एक नारा कश्मीर में सरहद पार से भी प्रायोजित हुआ कश्मीर बनेगा पाकिस्तान मीट के रहेगा हिंदुस्तान। तो क्या एक ऐतिहासिक भूल ने कश्मीर को समस्या बना दिया है और लगातार इंसानी जाने जा रही है। डॉ. श्यामाप्रसाद मुख़र्जी की रहस्मयी मौत पर दुःख व्यक्त करते हुए तात्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था जब बड़ी गलतियां की जाती हैं, तब इस उम्मीद में चुप रहना अपराध है कि एक-न-एक दिन कोई सच बोलेगा" .. और यह सच बोलने की हिम्मत श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने दिखाई और बिना परमिट लिए एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान, नहीं चलेगा- नही चलेगा के नारे के साथ कश्मीर में दाखिल हो गए थे। मुश्किल यह है कि आज भी 65 साल बीत जाने के बाद भी कोई सच बोलने की हिम्मत नहीं दिखा रहा है। दिल्ली स्थित सैयद अली शाह गिलानी के घर से लौटते वक्त मुझे उनका एक रिश्तेदार मिला पूछा क्या खबर लेकर जा रहे हो ? मैंने कहा भाई पुरानी टेप और आज में कोई अंतर नहीं है। मुस्कुराते हुए उसने कहा "यही तो रोना है कश्मीर में कोई नयी बात नहीं बोल रहा है ".
जम्मू कश्मीर और लद्दाख एक मिनी इंडिया है जहां दर्जनों धार्मिक मान्यता वाले लोग 50 से ज्यादा भाषा और बोली बोलते हैं। जिनकी अपनी अलग अलग संस्कृति है और अपनी अलग पहचान लेकिन मस्कुलर पालिसी के कारण कश्मीर में कुछ लोगों ने सियासत से लेकर संसाधन पर कब्ज़ा बना लिया और बाकी हिस्से को अलग थलग छोड़ दिया। निवर्तमान मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ़्ती कहती है "हमने रेकन्सीलेशन की पालिसी पर जोर दिया और 11000 पथरवाजो को एमनेस्टी दिलाई। हमने केंद्र सरकार से एकतरफा युद्धविराम का एलान कराया। हमने हीलिंग टच पालिसी को जारी रखा ". मेहबूबा शायद ठीक ही कहती है लेकिन वो भूल गयी कि जम्मू कश्मीर का मतलब कश्मीर का चार जिला नहीं है और मसला श्रीनगर के डॉन टाउन का नहीं है। रियासत के हर पीड़ित आम अवाम का आंसू पोछना और उनके लिए हल ढूँढना उनकी जिम्मेदारी थी तो क्या उन्होंने कश्मीर से पलायन कर गए लाखो लोगों की सुध लेने की कभी कोशिश की। टेंटो और झोपड़ियो में रह रहे पी ओ के से आये हजारो निर्वासित परिवार की सुध लेने की उन्होंने कभी जहमत उठायी। रियासत के दलित परिवारों को मुख्यधारा में लाने की क्या कभी उन्होंने कोई पहल की ? उनके बच्चे शिक्षा और सरकारी नौकरी के लिए लालायित है। लेकिन अगर वो कहती है कि उन्होंने धारा 370 और धारा 35 A की रक्षा की तो माना जायेगा कि वे सिर्फ एक वर्ग और क्षेत्र की सियासत करती रही और नाकामयाब साबित हुई। जैसे डॉ फ़ारूक़ और ओमर अब्दुल्लाह हुए।
आज कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद और पूर्व केंद्रीय मंत्री सैफुद्दीन सोज पाकिस्तान को खुश कर रहे हैं तो माना जाएगा कि कश्मीर की सियासत में उनका कोई वजूद नहीं है विपक्ष में बैठा हर कश्मीरी नेता सॉफ्ट सेप्रेटिज्म को अपना लेता है । पहलीबार जम्मू से मुख्यमंत्री बने आज़ाद साहब की सरकार इसी मेहबूबा मुफ़्ती ने गिरा दी थी। उनपर जम्मू के हित में निर्णय लेने का आरोप लगाया था ,। जाहिर है कश्मीर मामले में आज के दौर के मकामी हर चेहरे बेनकाव हो चुके है। जिनके पास न तो सच बोलने का साहस है और न ही उनकी साख, वे केवल शेख अब्दुल्ला की सियासत को रिप्रेजेंट करते है और भारत पाकिस्तान के तनाव के बीच अपनी अपनी मनसबदारी को कायम रखना चाहते है।
आज कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद और पूर्व केंद्रीय मंत्री सैफुद्दीन सोज पाकिस्तान को खुश कर रहे हैं तो माना जाएगा कि कश्मीर की सियासत में उनका कोई वजूद नहीं है विपक्ष में बैठा हर कश्मीरी नेता सॉफ्ट सेप्रेटिज्म को अपना लेता है । पहलीबार जम्मू से मुख्यमंत्री बने आज़ाद साहब की सरकार इसी मेहबूबा मुफ़्ती ने गिरा दी थी। उनपर जम्मू के हित में निर्णय लेने का आरोप लगाया था ,। जाहिर है कश्मीर मामले में आज के दौर के मकामी हर चेहरे बेनकाव हो चुके है। जिनके पास न तो सच बोलने का साहस है और न ही उनकी साख, वे केवल शेख अब्दुल्ला की सियासत को रिप्रेजेंट करते है और भारत पाकिस्तान के तनाव के बीच अपनी अपनी मनसबदारी को कायम रखना चाहते है।
इसी मनसबदारी के कारण कश्मीर में आज कोई लोकप्रिय चेहरा नहीं है। पथरवाजो से लेकर मिलिटेंट संगठन का कोई नेतृत्व नहीं है। जो लोग मजहब के नाम कश्मीर को पाकिस्तान के करीब पाते हैं उन्हें बांग्लादेश क्यों अलग हुआ पूछा जा सकता है। क्यों बलूचिस्तान से लेकर सिंध और सराईकी तक पाकिस्तान से अलग होने के लिए आंदोलनरत है ? क्यों मुस्लिम मुल्को में आई एस ने नश्ले तबाह कर दी है। हिन्दुस्तान में जम्हुर्रियत की जड़े काफी गहरी है और हर मसले का समाधान भी। यह दिल्ली का कसूर है कि उसने कश्मीर में कभी जम्हूरियत को पनपने नहीं दिया और कश्मीर को मजहबी ठेकेदरों के हवाले कर दिया। देश के प्रतिष्ठित सिविल सेवा ,टेक्नोक्रैट ,फ़ौज और स्पोर्ट्स में कश्मीर के नौजवान दुनिया में भारत का नाम रौशन कर रहे हैं लेकिन सियासत की जब बात आती है तो कुछ परिवार के लोगों का ही इस पर कब्ज़ा है।
हिंदुस्तान एक संप्रभु देश है उसे आंतरिक सुरक्षा और सरहद की सुरक्षा करने का पूरा अधिकार है। कश्मीर में हिंसा के खिलाफ क्या कार्रवाई हो यह एक निर्वाचित सरकार के विवेक और इच्छशक्ति पर निर्भर है। इसमें मीडिया की सलाह बरसाती मेढक के टर्र टर्र बजाने से ज्यादा नहीं है। लेकिन इतना तय है कि सेट फॉर्मूले से कश्मीर मसले का हल नहीं हो सकता। 10 साल से गवर्नर रहे और 20 साल से कश्मीर मसले को करीब से देखने वाले एन एन वोहरा की कश्मीर डायरी अब पुरानी हो चुकी है। जिस कश्मीर से गांधी जी को उम्मीद की किरण दिखाई दी थी उस उम्मीद को ढूँढना जरुरी है और गांधी के ग्राम स्वराज को मजबूती देना है। दुनिया भर में बन्दुक का ज़माना अब लद चूका है। कुछ मच्छर पुरे समाज को हिजड़ा नहीं बना सकते। समाज को खौफ से बाहर लाकर उन्हें स्वराज दिलाना कश्मीर समस्या का सबसे बड़ा हल होगा और यही श्यामा प्रसाद मुखर्जी के तई सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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