कश्मीर मसला या पावर शेयरिंग फार्मूला

यह सवाल आम हिंदुस्तानी के मन में जरूर उठता है कि कश्मीर का मसला क्या है। जितना मैं समझ पाया हूँ कि वर्षो पहले कुछ नेताओं ने जो गांठ हाथों से लगायी थी मौजूदा पीढ़ी को वह गांठ दातों से खोलना पड़ रहा है। भारत के सबसे प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थ राजतरंगनी के रचयिता कल्हण को भी शायद इस बात का इल्म नहीं रहा होगा कि जिस कश्मीर के चश्मे से वे भारत की सामजिक और राजनितिक व्यवस्था को झांक रहे हैं वह कश्मीर कभी अपने को अलग सामाजिक संरचना मानकर भारत की अस्मिता पर सवाल उठाएगा । या फिर 14 वी शदी के ऋषि परंपरा में कश्मीर के शेख उल आलम या नुंद ऋषि हो या फिर लल डेड या लल्लेश्वरी। भारत को आध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत करके कश्मीर के महान सूफी संतो और ऋषियों ने मजहबी दकियानूसी को हमेशा ख़ारिज किया। फिर वह कौन सा दौर था जिसमे कश्मीर की हजारो साल की परंपरा गौण हो गयी और व्यक्तिगत महत्वाक्षा ने कश्मीर को मसाला बना दिया।
हालात यह है कि जावेद अहमद डार ,औरंगजेब ,उमर फ़ैयाज़ जैसे दर्जनों कश्मीरी नौजवान देश की अस्मिता की रक्षा में जान दे रहे हैं वही उसी कश्मीर में कुछ नौजवान बुरहान वानी बन बन्दुक उठा रहे है तो कुछ नौजवानो ने पथरवाजी से सिस्टम को डराने का मन बनाया है। इसी कश्मीर में जश्ने बारामुल्ला में सैकड़ो नौजवान "आर्मी और अवाम" फेस्ट को कामयाब बना रहे है। वही पड़ोस के कुलगाम में दुख्तरान ए मिल्लत (हिज्बुल मुजाहिदीन की महिला शाखा )की सरबरा आसिया अंद्राबी की गिरफ्तारी के विरोध में तीन नौजवान सुरक्षाबलों पर पथरवाजी करने के दौरान मारे जाते हैं।
कौन है ये कश्मीरी नौजवान जिन्होंने इस्लाम को जाना नहीं लेकिन उन्हें इस्लाम पर खतरा नज़र आ रहा है , उनके साथ जो पत्थर नहीं उठा रहा वह काफ़िर है ? निवर्तमान मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ़्ती कहती है हिज़्बुल मुजाहिद्दीन और जिहाद कौंसिल के सरबरा सैयद सलाहुद्दीन पिछले 30 साल से कश्मीर से बाहर हैं वैसे में इनके बच्चे जो राज्य सरकार में बड़े मुलाजिम हैं उनका क्या कसूर है ?ठीक वैसे ही जैसे गिलानी साहब आज भी बतौर साबिक एम् एल ए का पेंशन पाते हैं और कश्मीर में सक्रिय आतंकवादियों का गाइड बने हुए हैं। यानी सत्ता और रसूख के लिए तर्क गढ़े जा रहे हैं और मासूमो को बलि का बकरा बनाया जा रहा है।
पीडीपी के एम एल सी यासिर रेशी कहते है कि कश्मीर समस्या की वजह खानदानी सियासत है जिसमे कुछ परिवारों ने सत्ता और व्यवस्था पर कब्ज़ा जमा लिया है। यासिर कहते है कि जम्मू कश्मीर में दो खानदानो का पावर शेयरिंग फार्मूला कश्मीर को उलझा दिया है। यह वक्त का तकाजा है कि नेतृत्व में नए चेहरे सामने आये जो रियासत के आम अवाम की मुश्किलात को समझे।यासिर जैसे सैकड़ों लोग होंगे जो मानते हैं कि पिछले वर्षों में भारत सरकार ने अरबो रूपये कश्मीर मे इसलिए लुटाया है शायद इस भ्रम में ,विकास की रफ़्तार के सामने अलगाववाद की आवाज धीमी पड़ जायेगी । लेकिन ऐसा नही हुआ । पैसे की बौछार से कश्मीर में रियल स्टेट में बूम जरूर आया है । कस्बाई इलाके में भी शोपिंग मौल खुल गए हैं । कश्मीर की सड़को पर महगी कारो की भरमार है। लेकिन जब भी अफवाह कश्मीर में कोई आग भड़काती है तो जीवे जीवे पाकिस्तान की आवाज सबसे ज्यादा गूंजती है.... । भ्रष्टाचार के आकंठ मे डुबे कश्मीर के खानदानी सियासतदान कभी भी यह स्वीकार नही करते है कि मकामी लोगों का भरोसा उन्होंने खोया है बल्कि हर बार वे कश्मीर के लिए राजनैतिक पैकेज की दलील देते है और नाकामयाबी का सेहरा केंद्र के सर फोड़ देते है।केंद्र की ओर से लोकतंत्र को मजबूती देने के लिए कभी ठोस उपाय नहीं हुए उलटे एलक्शन में रिगिंग के जरिये कभी लोकतंत्र को बंधक बनाया गया। नतीजा सैयद सलाहुद्दीन जैसे लोग चुनौती बने हुए है।

लम्बे अरसे के बाद कश्मीर में फ्री एंड फेयर इलेक्शन के वादे को अटल बिहारी वाजपेयी ने पूरा किया था और जम्हूरियत में लोगो का भरोसा वापस लौटाया था । पहलीबार 80 -85 फीसद वोटिंग कश्मीर में हुई। लम्बे वक्त के बाद 2001 में पंचायत चुनाव हुए जिसमे बड़ी तादाद में लोगों ने शिरकत की। हालाँकि कुछ सुदूर इलाको में हालात के कारण चुनाव नहीं हो सके। लेकिन जम्हूरियत के प्रति बढ़ा विश्वास 2011 में सामने आया। आतंकवादियों के खौफ और हुर्रियत के बॉयकॉट कॉल को अनसुना करके भारी तादाद में महिला सरपंच कैंडिडेट सामने आयी । पढ़े लिखे नौजवान पंच सरपंच बने लेकिन उन्हें संवैधानिक अधिकार नहीं मिला। कइयों ने आतंकवादी खौफ के कारण इस्तीफा दे दिया तो कई मारे गए लेकिन राज्य और केंद्र की सरकारे अपने 50,000 जनप्रतिधियों को लोकतान्त्रिक व्यवस्था में स्थापित नहीं कर पायी।अमूमन सबसे अमनपसंद दक्षिण कश्मीर में अलगाववाद और हिंसा क्यों सरगर्म है जवाब इसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था की कमजोरी में ढूंढा जा सकता है। आज कश्मीरी समाज के बीच कोई नेतृत्व नहीं है। गाँव में या तो अफवाह का राज है या फिर कठमुल्लाओ का।
पंचायत यानी पांच लोगो की सभा। सदियों से इस देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ग्रामीण स्तर पर चुने हुए पंचो की सभा का मत्वपूर्ण योगदान रहा है। गांधीजी ने इसे ग्राम स्वराज का नाम दिया था। उनका मानना था कि ग्रामीण विकास और ग्रासरूट डेमोक्रेसी सिर्फ पंचायती राज से मजबूत हो सकती है। अपने हालिया कश्मीर दौरे पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने लोकल बॉडी और पंचायत चुनाव का एलान किया है। उम्मीद की जा सकती है यह चुनाव सितम्बर में हो। कहते हैं कि देर आयद दुरुस्त आयद। जम्मू कश्मीर के पंचायतो को भी देश के दूसरे राज्यों की तरह अधिकार और संसाधन मिले। कश्मीर में सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो ,कुछ खानदानो के बजाय सैकड़ो खानदान मुख्यधारा की राजनीती में जगह बनाये। यही कश्मीर समस्या का सबसे बड़ा समाधान होगा।

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