अमृतसर का हादसा और मीडिया की हताशा


शाम का वक्त ! पत्रकारों के जीवन में ऐसा कम ही मौका मिलता है जब वह अपने परिवार के साथ मार्केट में तफरी करने निकला हो। शायद मीडिया में  "खुश करो " का दर्शन से मै भी अभ्यस्त होने लगा था।  लेकिन तभी किसी चैनल के पुराने सहयोगी का फोन मुझे फिर अपनी पत्रकार की दुनिया में खींच लाया था । बलबीर का नंबर है ? कौन बलबीर मैंने पूछा ?अरे आपका पुराना मित्र  पंजाबी चैनल वाला ,तो ! मैंने कहा .. अरे भाई साहब अमृतसर ट्रेन  हादसे में दर्जनों लोग मर गए है , ट्रेन  से कटकर। कुछ और नंबर जुगाड़ कर दीजिये  ... मैने  डिटेल जानने के बजाय पहले नंबर ही ढूँढना उचित समझा। लेकिन मन में यह सवाल भी उठ रहा था कि क्या  सरकार ,प्रशासन ,पुलिस ,हॉस्पिटल की तरह मीडिया भी किसी बड़े हादसे से निपटने /रिपोर्टिंग के लिए स्किल्ड हुआ  है ? क्या प्रशासन की तरह न्यूज़  चैनल्स भी  सिर्फ खानापूर्ति ही नहीं कर रहे होते हैं ? या कभी कभी  आपाधापी में अफसर सिर्फ मीडिया को हैंडल करने में अपनी पूरी ऊर्जा वर्वाद करते नजर आते हैं। 
जून 2013 में मुझे दो बड़े हादसे /घटना को  अपनी संवेदनशीलता के चश्मे  से देखने और समझने का मौका मिला था। बस्तर में नक्सल का बड़ा हमला जिसमे प्रदेश कांग्रेस के लगभग तमाम बड़े लीडर नक्सल हिंसा के शिकार हुए थे। एक झटके  में 19 लीडरो की हत्या देश को मर्माहत कर दिया था। दूसरा हादसा उसी साल केदारनाथ धाम में बाढ़ की तबाही  के मंजर का था। तबाही में  सैकड़ो तीर्थयात्री मारे गए थे। मेरे सामने अमृतसर हादसा की तस्वीर उसी कड़ी को जोड़ रही थी। यहाँ भी 60 लोग मारे गए थे ,घायलों की संख्या सैकड़ा पार कर गयी थी। अफरातफरी में खबर को हैंडल करने में जुटा "न्यूज़ रूम" में "खबर" तानने का विकल्प सर्वस्वीकार्य से बनता है ,पीसीआर -स्टूडियो को खबर तानने का हुकुम जारी होता है लेकिन इस तैयारी में  सबकुछ होता है सिर्फ खबर नहीं होती है जिसका सरोकार आमलोगों से है ,पीड़ित परिवारों  से हैं। 

घर पहुंचते ही मैंने टीवी खोला एक चैनल के स्क्रीन पर बड़ी खबर  हादसे की वजह नवजोत सिंह सिद्धू की  पत्नी का रामलीला समारोह में देर से पहुंचना और प्रसाशन की लापरवाही बताई जा रही थी। आधे घंटे अभी हादसे के हुए होंगे चैनेल्स वजह ढूंढने में लगी है। हर जगह एंकर व्यवस्था पर सवाल दाग रहे हैं ,पियूष गोयल अमेरिका में ,दूसरी खबर उन्होंने अपना विदेश दौरा कैंसिल कर दिया है। कैप्टेन अमरिंदर सिंह का अगला दौरा रद्द। बला बला ..... सोशल मीडिया से छन छन कर आती खबरें न्यूज़ चैनल्स की ब्रेकिंग बन रही थी और एंकर का बड़ा सवाल!  लेकिन ब्रेकिंग न्यूज़ की आपाधापी में लोग यह भूल गए थे कि दूर देस में बैठे  हादसे के शिकार लोगों के परिजन अपने अपने लोगों का हाल जानने के लिए बेचैन होंगे।  अपने बच्चो के मोबाइल फोन साइलेंट मोड पर चले जाने से गांव में बैठा एक बुजुर्ग टीवी स्क्रीन पर टकटकी लगाए बैठा होगा। कुछ खबर मिल जाए .. लेकिन ऐसे पीड़ित परिवारों को बताने के लिए हमारे पास खबर होती है ,मृतकों को पांच लाख रूपये का मुआवजा और घायलों को 50 हज़ार और मुफ्त इलाज की व्यवस्था की जायेगी। 

दौड़  भाग कर खबर  जुटाने घटना पर मौजूद  चैनल /एजेंसी के लोकल  स्ट्रिंगर्स को पता है क्या बिकेगी। वे टीवी के बाज़ार के मुताबिक  खबर ढूंढने में व्यस्त थे। रिपोर्टर्स चैनल्स का लाइन समझ कर रिएक्शन के लिए फोन घुमा रहे थे लेकिन सरोकार इन आपाधापी में कराह रहा था। हमने  ऐसे हादसों में सरोकार जोड़कर ब्रेकिंग न्यूज़  के वजाय  प्रशासन को मदद करने और मदद के लिए पथराई आँखों से उम्मीद बनाये लोगों के बीच पहुंचने का अनुभव  किया है। अपनी क्षमता और सीमा में अमृतसर  हादसे में भी हमलोगों ने आम लोगों से  संवेदना के तार जोड़ने और मैसेंजर की भूमिका  निभाने का प्रयास इस हादसे में भी किया था। 

हादसे किस तरह सियासत के शिकार होते हैं और मीडिया इसमें किस तरह उलझता है यह मैंने बतौर न्यूज़ रूम का एक अदना कार्यकर्ता  होकर सीखा है। यह बात हर कोई जानता है चार दिन बाद इस हादसे में घायल लोगों को प्रशासन और परिजन के अलावा कोई सुध नहीं लेगा। सियासत फिर किसी दूसरे मुद्दे को तलाश लेगी। सिद्धू टाइप नेता फिर किसी दूसरी भीड़  में अपना वोट पक्का करने  पहुंचेंगे /पहुंचेगी  लेकिन जैसे बिहार सरकार ने घटना के 18  घंटे बाद पीड़ितों के लिए अपने अफसरों  का हेल्प लाइन जारी कर सिर्फ खानापूर्ति किया था । ठीक वैसे ही चैनल्स के मैनेजर अगले हफ्ते अपने अपने चैनेल्स के उस दिन की टी आर पी ढूंढेगे लेकिन शायद उन्हें भी इस बात का अफ़सोस होगा कि किसी की जान बचाने या किसी के आंसू पोछने में उनकी भी कोई भूमिका रही है ?

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