CAA -NPR से लेकर इंटरनेट अगर बहस मौलिक अधिकार को लेकर है तो फेक नेरेटिव क्या है ?

किसी भी इलाके में शासन द्वारा धारा 144 लागू होने की सूचना आप सबने सुनी होगी लेकिन इसे हटा लिए जाने का ऐलान मैंने कभी नहीं सुना। शायद आपने सुना हो ! धारा 370 निरस्त किये जाने के बाद कुछ वक्त कश्मीर में मैंने भी बिताया था। आम लोगों की भीड़ में चलते हुए जहाँ कहा गया वापस जाओ रेस्ट्रिक्शन है, वापस घर लौट आया, लेकिन जुम्मा को छोड़कर घर वापस लौटने की सूरत कभी नहीं बनी। यानी जिस धारा 144 को लेकर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने लम्बी चौड़ी फेहरिस्त सरकार को थमा दिया है वैसी हालत कश्मीर मैंने कभी नहीं देखी। हालाँकि इंटरनेट एक्सेस न होने से मुझे भी अपने मौलिक अधिकार का हनन लगता था ,सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे मौलिक अधिकार ही माना है लेकिन उससे ज्यादा परेशानी इस बात की थी कि मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल सिर्फ फोन डायरेक्टरी की तरह हो गया था और बार बार किसी साहब के कमरे में बेसिक फोन से काल मिलाना पड़ता था लेकिन ऐसा कुछ नहीं था कि बोलने और लिखने के अधिकार पर पाबन्दी लगा दी गयी थी जैसा कि कांग्रेस लीडर गुलाम नबी आज़ाद और कश्मीर टाइम्स के संपादक ने कश्मीर में शासन के रेस्ट्रिक्शन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी।
ये वही गुलाम नबी आज़ाद है जिनके मुख्यमंत्री रहते गवर्नर ने 2008 में बाबा अमरनाथजी आने वाले यात्रियों के लिए टेम्पररी शेड बनाने की पहल की तो कश्मीर के तमाम सियासी लीडरान आगबबूला हो उठे एक महीने तक कश्मीर बंद रहा कई हिंसक झड़पे हुई क्योंकि धारा 370 हिन्दुओ के लिए यह इजाज़त नहीं देती थी। ग़ुलाम नबी आज़ाद भूल गए कि 2002 से कांग्रेस समर्थित एन सी ,पी डी पी की बारह साल सरकार रही है और महीनो इंटरनेट सेवा बंद रहीथी। महीनो कश्मीर बंद रहे और 2 हज़ार से ज्यादा लोग इस दौरान हिंसक झड़प में मारे गए । तब न तो किसी ने कोर्ट का दरबाजा खटखटाया और न तब कोर्ट को भी ठंढ से ठिठुरते अमरनाथ जी के यात्रियों के जीने के मौलिक अधिकार याद आयी। न ही इंटरनेट बंद होने पर कोर्ट की कोई प्रर्तिक्रिया आयी। वजह यह कश्मीर के बारे में फेक नरेटिव्स थे जिससे भारत के हर लोकतान्त्रिक संस्था प्रभावित थी। यथा राजा तथो प्रजा !
अपने हालिया फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इंटरनेट को फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन माना है ,लोगों के इसके व्यवसायिक इस्तेमाल को मौलिक अधिकार माना है यह ठीक बात है लेकिन बदले दौर में प्रतिदिन फ्री 1. 5 जी बी नेट इस्तेमाल करने वाले ग्राहकों को शायद याद भी न हो की कभी मोबाइल फोन सर्विस यह प्लान महीने भर की होती थी। १०-12 साल पहले इंटनेट आमआदमी की पहुँच से बाहर थी लेकिन सस्ते फोन और इंटरनेट सोशल मीडिया के जरिये लोकतंत्र को मजबूत किया है। सूचना पाने के लिए पहले दूरदर्शन और आकाशवाणी के समाचार का इंतजार करना पड़ता था आज ये ब्रेकिंग न्यूज़ सोशल मीडिया दे रहा है। लेकिन कुछ प्रतिबन्ध ने अगर कश्मीर में हज़ारों लोगों की जान बचाई हो तो उसे मौलिक अधिकार का हनन नहीं मानना चाहिए। कोर्ट ने भी स्वतंत्रता के साथ सुरक्षा को अहम् माना है। पीडीपी नेता मुज़फ्फर हुसैन बेग मानते हैं कश्मीर में रेस्ट्रिक्शन से बेवजह रक्तपात नहीं हुए जो ,2008 ,2009 ,2013 में अनावश्यक हिंसा हुई थी । इस दौर में पुलिस की एक गोली नहीं चली हैं ।
यानि सोशल मीडिया के जरिये कश्मीर में रयूमर और फेक नेरेटिव की बोम्बार्डिंग ने सुरक्षा व्यवस्था की चुनौती को बढ़ा दिया है।अपने हालिया रिसर्च पेपर में खालिद शाह लिखते हैं कि सोशल मीडिया की बढ़ी हलचल के बीच नए कश्मीर में मिलिटेंसी का नया चेहरा सामने आया। बुरहान वानी इस इंटरनेट क्रांति के फेनोमेनन बनकर उभड़ा और दर्जनों कश्मीरी नौजवान बन्दूक हाथ में लिए सेल्फी फेसबुक पर डालने लगे। 2019 में 20 साल का आदिल अहमद डार फिदायीन बनकर सी आर पी ऍफ़ के कॉन्वॉय में टक्कर मार कर 40 जवानो को शहीद कर दिया था। सोशल मीडिया की ट्रैनिग की यह जैश इ मोहम्मद का सबसे खतरनाक प्रयोग सामने आया।
सोशल मीडिया क्रांति में बुरहान वानी की मौत के बाद पहलीबार 200 से ज्यादा मकामी नौजवान मिलिटेंट बन गए थे. ये अलग बात है कि इस दौर में वे जितनी जल्दी आये उतनी जल्दी चले गए। लेकिन पुलवामा हमला ने सुरक्षा व्यवस्था और सोशल मीडिया की चुनौती को सचेष्ट कर दिया था। 1990 से शुरू हुए मिलिटेंसी में इंटरनेट के विस्तार ने फेक नरेटिव को विस्तार दिया साथ ही मिलिटेंट्स की आइडियोलॉजी को समाज के बीच ले जाने में भी जबरदस्त कामयाबी पाई। 2009 में ओमर अब्दुल्लाह के मुख्यमंत्री रहते 125 बच्चे पथरबाजी के दौरान आँशु गैस और फायरिंग में मारे गए थे इसके बाद हर जुम्मे के दिन पथरबाजी और फायरिंग एक रूटीन बन गयी थी। इंटरनेट ने इसे विस्तार देकर श्रीनगर के इस रोमांचक खेल को पुरे कश्मीर में लोकप्रिय किया। 80 के दशक में अफगानिस्तान के जिहाद कश्मीर में जिहाद का प्रेरणाश्रोत बना तो 2013 के बाद सोशल मीडिया के हीरो बुरहान वानी गुमराह नौजवानो के आदर्श बन गया था । पिछले 70 साल से सत्ता और व्यवस्था के बीच कश्मीर पर फैलाई जा रही नरेटिव को ही दुनिया ने सच माना। कश्मीर पर कुछ परिवारों के सियासी कब्जे ने फेक नेरेटिव जरिये यहाँ की लोकशाही को कटोरा पकड़ा दिया था ,लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्पेशल स्टेटस के नाम पर रौंदा जा रहा था।


अगर भारत सेक्युलर मुल्क है तो कश्मीर को मुस्लिम बाहुल्य होने के कारण स्पेशल स्टेटस क्यों? अगर देश में एक नागरिकता है तो कश्मीर के लिए अलग नागरिकता क्यों। आज पंचायती राज निज़ाम की बढ़ी सक्रियता ने कश्मीर में सियासी धारा का रुख बदल दिया है। लोकतंत्र मजबूत होगा तो मौलिक अधिकार भी मजबूत होंगे लेकिन अगर इंटरनेट जरुरी है ताकि जम्हूरियत में संवाद की प्रक्रिया बनी रहे। लेकिन अगर कश्मीर में सियासी बहस सिर्फ फेक नैरेटिवस को लेकर है. जिस फेक नेरेटिव को लेकर गुमराह नौजवान जिहाद की बात करते हैं, स्कूल कॉलेज के बच्चे पथरबाजी करने को प्रेरित होते हैं तो बोलने की आज़ादी को निरंतर बढ़ाने के लिए सरकार को आम लोगों के बीच संवाद स्थापित करना होगा और फेक नेरेटिव पर कड़े प्रतिबन्ध लगाने होंगे।

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