#लॉकडाउन 2 आदेश है कि अभी घर में ही रहे ......
पूरे देश में अमन चैन है लेकिन यह अखबार पुराना है। शैल चतुर्वेदी ने यह व्यंग्य क्यों लिखा यह समझना थोड़ा मुश्किल है , लेकिन वर्षों बाद लॉक डाउन की बनी स्थिति में उन्ही शैल चतुर्वेदी को पढ़ रहा हूँ आदेश है देश हमारा है। 20 दिन के ताला बंदी के बाद एक और लॉक डाउन यानी तीन मई तक इस महाव्रत का पालन और करना होगा। यानी पहली बार देश के तीन पीढ़ियों को सामूहिकता की अहमियत समझ आ रही होगी। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आकांक्षा का कोई महत्व नहीं है।कोरोना वायरस ने दुनिया के हर इंसान को अपनी हैसियत में ला दिया है… एक वायरस ने व्यक्ति के दर्शन ,विज्ञान ,विचार सबकुछ बदल दिया है. हम डर गए हैं क्योंकि हमें जीना है और दूसरे को भी जीवित रहने का हक़ देना है। नाम भले ही इसका सोशल डिस्टन्सिंग दिया गया हो लेकिन व्यवहार में यह एक त्याग है जो अपने को कैद में रखकर मानो किसी को कह रहा हो आयुष्मान भव !
एक उम्दा बनारसी संपादक राकेश पाठक कहते हैं मृत्यु का उत्सव मनाने वाली काशी भ्रम और भय के फेरे में बिला गई है। कोरोना न हुआ यह अदना वायरस बेताल हो गया और कह रहा है हलके में न लें ! बनारस के बौद्धिक जुगलबंदी का अखाडा पपु की चाय की दूकान ! मुझे लगता है अब आर्कियोलॉजियकल सर्वे ऑफ इंडिया खोजेगा, क्यों हज़ारों वर्षों बाद प्रलय की स्थिति बनी थी । बनारस की सारी ऐतिहासिक इमारतें पहली बार स्टिल फोटो में उतर रही हैं। नहीं तो सब चलती फिरती ही तो दिखती थीं बनारसी कहाँ बैठने वाले थे ? बनारस इतना रुका कभी नहीं था। न बनारसियों ने कभी रुकना सीखा था। वो चलने वाले लोग हैं और चलाने वाले। बीच का कुछ भी नहीं। पर आज ये शहर जैसे वक्त के बीचोबीच रुक गया है.". यह शहर फिर चलेगा और सरपट दौड़ेगा लेकिन शहर की जीवन शैली और परिवार नामक संस्था वर्षों बाद आमने सामने हुई है। मेरे गुरुवर डॉ एन के वैद्य ने वर्षों बाद मेरा हाल चाल पूछा और सलामती की ढेरो शुभकामनाये भी दी।
एक उम्दा बनारसी संपादक राकेश पाठक कहते हैं मृत्यु का उत्सव मनाने वाली काशी भ्रम और भय के फेरे में बिला गई है। कोरोना न हुआ यह अदना वायरस बेताल हो गया और कह रहा है हलके में न लें ! बनारस के बौद्धिक जुगलबंदी का अखाडा पपु की चाय की दूकान ! मुझे लगता है अब आर्कियोलॉजियकल सर्वे ऑफ इंडिया खोजेगा, क्यों हज़ारों वर्षों बाद प्रलय की स्थिति बनी थी । बनारस की सारी ऐतिहासिक इमारतें पहली बार स्टिल फोटो में उतर रही हैं। नहीं तो सब चलती फिरती ही तो दिखती थीं बनारसी कहाँ बैठने वाले थे ? बनारस इतना रुका कभी नहीं था। न बनारसियों ने कभी रुकना सीखा था। वो चलने वाले लोग हैं और चलाने वाले। बीच का कुछ भी नहीं। पर आज ये शहर जैसे वक्त के बीचोबीच रुक गया है.". यह शहर फिर चलेगा और सरपट दौड़ेगा लेकिन शहर की जीवन शैली और परिवार नामक संस्था वर्षों बाद आमने सामने हुई है। मेरे गुरुवर डॉ एन के वैद्य ने वर्षों बाद मेरा हाल चाल पूछा और सलामती की ढेरो शुभकामनाये भी दी।
डॉक्टर साहब एंथ्रोपोलॉजी के विद्वान हैं ,अपनी एक रिसर्च के बारे में बताते हैं कि परिवार नामकी संस्था अब कुछ ही देशों में बची है। व्यक्तिवाद और आर्थिक आज़ादी ने परिवार पर लोगों की निर्भरता कम की और यह संस्था गायब होने लगी। लेकिन लॉक डाउन की आज की स्थिति ने भारत के शहरी परिवारों में संघर्ष बढ़ा दिया है। आम तौर पर शहर में रहने वाले लोगों को परिवार के हर सदस्यों का आमना सामना एक साथ नहीं होता है। मर्द दिन भर काम के सिलसिले में घर से बहार होते हैं तो महिलाये जो घर पर हैं वे और लोगों के दिन भर की दिन चर्या में लगी होती है। बुजुर्ग अंदर बहार करते हुए अपने को बिजी रखते हैं। लेकिन इस लॉक डाउन ने घर के अंदर स्पेस को लेकर संघर्ष बढ़ा दिया है तो वैचारिक टकराव जो अभी तक मुखर नहीं था वह रिश्ते में दरार डालने लगा है लोग पसिमिस्ट होने लगे है। नौजवानो में जीवन को लेकर नजरिया बदलने लगा है तो बुजुर्ग सबसे ज्यादा हताश और निराश हो रहे हैं। लेकिन जब आप सरकारी दावे पर यकीन कर ले तो यह परेशानी आपको एक मिनट में छू मंतर होते दिखेगी।
मसलन पिछले 15 दिनों के लॉक डाउन और सोशल डिस्टन्सिंग ने भारत में आठ लाख से ज्यादा लोगों को कोरोना के संक्रमण से बचाया है। यानी जान है तो जहान है को इस देश ने आत्मसात किया तो इसे इटली और अमेरिका जैसे देशों में हो रहे कत्लेआम से बचा लिया है। हालाँकि इस अनुशासन को पालन करने के लिए एक वर्ग को काफी कुर्वानी देनी पड़ रही है तो देश का भारी आर्थिक नुक्सान भी हो रहा है। लेकिन इस कोरोना के खौफ के बीच शहर ने अपने कामगार और मजदूरों की कीमत समझी है।
मसलन पिछले 15 दिनों के लॉक डाउन और सोशल डिस्टन्सिंग ने भारत में आठ लाख से ज्यादा लोगों को कोरोना के संक्रमण से बचाया है। यानी जान है तो जहान है को इस देश ने आत्मसात किया तो इसे इटली और अमेरिका जैसे देशों में हो रहे कत्लेआम से बचा लिया है। हालाँकि इस अनुशासन को पालन करने के लिए एक वर्ग को काफी कुर्वानी देनी पड़ रही है तो देश का भारी आर्थिक नुक्सान भी हो रहा है। लेकिन इस कोरोना के खौफ के बीच शहर ने अपने कामगार और मजदूरों की कीमत समझी है।
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