कोविड 2019 : तुम कहाँ जा रहे हो भारत उस बदले गाँव में ? कल तुम यहीं लौटोगे
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बँगले में आई है ... अब मत कहना
उसी के दम से रौनक आपके बँगले में आई है ... अब मत कहना
हमारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है अदम गोंडवी की ये कवितायें आज भी हकीकत है उस भारत की जिसकी एक आबादी महानगरों के दुत्कार और चालाक सियासतदानों के बेरहम सम्मान से दुखी बुद्ध के परम तत्व पाकर गाँव लौट चले हैं । 50 दिनों के तालाबंदी ने उन्हें सड़क पर ला दिया है या फिर बेदर्द ज़माने ने उन्हें तमाशा बना दिया है। दर्द ,मासूमियत ,जज्बात ,जिम्मेदारी की अनगिनत कहानियां व्हाट्सप्प से होते हुए सोशल मीडिया पर भावनात्मक हिलोरे ले रही है और देश का टेलीविजन उसमे भावना के 16 रंगों के साथ पुरे देश को उद्वेलित कर रहा है। ध्यान रहे इन तम्माम हृदयविदारक दृश्य की साक्षी पत्रकार कहीं नहीं है ,सिस्टम कहीं नहीं है सियासी लीडर कहीं नहीं है लेकिन हर के पर्सनल ट्वीट सलाह और चिंता से भरा हुआ है।
यकीन मानिये इस दौर में अगर व्हाट्सप्प नहीं हो तो भारत में इस लॉक डाउन के माहौल में लव अग्रवाल और कोरोना के अलावा कोई खबर नहीं है। बड़ी खबर ,बड़ी बहस वाले बड़े पत्रकार और संपादक घरों में बैठकर अपनी सुविधा से मजदूरों की कहानी बेच रहे हैं। सियासतदां अपनी सुविधा से ट्वीट करके मजदूरों की हालत पर चिंता जाता रहे हैं. बिहार के प्रतिपक्ष के नेता लॉक डाउन में कहाँ है यह लोगों को नहीं पता लेकिन बिहार के मजदूरों के सवाल पर वे नितीश कुमार को रोज इन तस्वीरों के जरिये बे पर्दा कर रहे हैं। स्थानीय प्रशासन के लिए यह समस्या इंडिया की नहीं और भारत की समस्या को लेकर वे कभी गंभीर नहीं रहे हैं। पिछले दिनों एक वर्चुअल प्रेस कांफ्रेंस ने किसी पत्रकार ने राहुल गाँधी से पूछा ,राहुल जी स्ट्रांग पीएम इस हालत में क्या कर रहे हैं राहुल गाँधी ने बगैर ट्रैप हुए जवाब दिया कि भारत को अभी स्ट्रांग डी एम और सी एम की जरुरत है न की पी एम की। लेकिन अगर स्ट्रांग सी एम् अखबार में हाथ धोने के इस्तेहार तक सीमित हो और डीएम को उनके इलाके से गुजर रहे मजदूरों की चिंता नहीं है फिर इस लोक डाउन को जमीन पर कारगर बनाने में केंद्र की शायद कोई भूमिका नहीं है। हालाँकि अख़बारों का यह विश्लेषण तो हो ही सकता है कि मजदूरों को सड़क पर होने से बीजेपी का बड़ा नुक्सान होने वाला है लेकिन अगर पिछले हफ्ते में 16 लाख मजदूर ट्रैन और बसों से अपने अपने इलाके पहुचाये गए है तो इन मजदूरों की खुसी किसके खाते में जायेगी ?
50 दिनों के इस कोरोना तालाबंदी ने हमसबको एक्स[पोज़ कर दिया है। अपनी सुरक्षा के लिए हमारे पास घरों में छुपने के अलावा कोई दूसरा कोई उपाय नहीं था। दो महीने पहले इस देश के पास एक पी पी ई किट नहीं था। 135 करोड़ की आबादी के लिए मास्क और हॉस्पिटल की बात सोचना भी बेमानी थी लेकिन आज भारत कोविद १९ की लड़ाई को पूरी मजबूत से लड़ रहा है। यह भारत के लोगों का अपने प्रधानमंत्री पर एक बड़ा एहसान था कि लोगों नो उनकी अपील पर जैसे तैसे अपने को कैद करने की कोशिश की लेकिन 70 साल की आजादी के बाद भी अगर हर घर अबतक पानी नहीं पंहुचा है उन्हें हम कैसे लम्बे वक्त तक दरबाजे के अंदर रहने के लिए मजबूर करेंगे।
प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना सही है कि मोदी 01 ने दूसरे दौर में प्रभावी भूमिका निभाया है और लॉक डाउन की हालत में भी 17 करोड़ भारतीयों के खाते में सीधे मदद भेजी गयी है। 50 लाख मीट्रिक टन अनाज गरीब लोगों के बीच बाटी गयी है। 9 करोड़ किसानो को किसान सम्मान की राशि भेजी जा चुकी है। यह संभव आधार और मोबाईल फोन के कारण सम्भव हुआ है लेकिन आज भी केंद्र की तमाम योजनाओं के वाबजूद अगर लाखों मजदूर सड़क पर है दर्जनों ने अपने साहसिक अभियान में जान गवाई है। तो जाहिर है इनके बीच पहुंचने वाले इनसे संवाद बनाने वाली व्यवस्था ने काम नहीं किया या फिर इन्होने ही मजदूरों को शहर छोड़ने के लिए मज्ब्बूर किया ,जिस शहर को इन मजदूरों ने अपनी मिहनत से खड़ा किया था उसमे रंग भरे थे.लेकिन यह शहर अपने इस साथी को छुपने के लिए एक जगह नहीं दे पाया। इसलिए बात जब भारत पुनर्निर्माण और आत्मनिर्भर भारत को 20 लाख करोड़ रूपये की मदद का एलान हुआ है लेकिन सवाल या है कि अगर यह इसी सिस्टम से होना है तो इसका अनदाजा आप लगा सकते हैं।
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