'इस्लामोफोबिया' को लेकर चल रही सोशल मीडिया की बहस में अजय पंडिता की बेटी के सवाल पर ख़ामोशी क्यों ? '

कोरोना महामारी से जूझ रही वादी में दहषतगर्दों का कायराना हमला जारी है। इस दौर में सीमा पार के प्रायोजित आतंकवाद में कोरोना वारियर पुलिस ,सी आर पी ऍफ़ ,सामाजिक कार्यकर्त्ता और सरपंच को दहशतगर्दों ने इस महामारी के दौर में भी सॉफ्ट टारगेट बनाया है। लेकिन वादी ए कश्मीर के अनंतनाग के एक गाँव लुखभान के सरपंच अजय पंडिता की हत्या रोंगटे खड़ा कर देती है। अजय पंडिता मुस्लिम बहुल गाँव में एक मात्र हिन्दू परिवार था जिसने 90 के दौर में भी वादी नहीं छोड़ा। अजय पंडिता अपना परिचय अजय भारती कह कर देता था यानी हिमालय के उस सुदूर वादी में वो फक्र से अपने को भारत का पुत्र भारती के नाम से जाना जाता था।
समाज सेवा उसकी जिंदगी का मकसद था। पिछले चुनाव में उसे कांग्रेस पार्टी से सरपंच के लिए टिकट मिली तो वह ग्रामीणों के समर्थन से भारी मतों से चुनाव जीत गया। कोरोना महामारी के बीच अपनी जान की परवाह किये बगैर अजय भारती लोगों को राशन से लेकर बाहर से आये लोगों को कोरेन्टाइन का इंतजाम दिन रात करता रहा फिर भी उसकी हत्या कर दी गयी ? यही सवाल चीख चीख कर अजय पंडिता की बेटी पूछ रही है जब मेरे बाप का इस इलाके में कोई दुश्मन नहीं है वह रात दिन अपने मुस्लिम भाइयों के लिए काम करता था फिर उसे क्यों मारा ? क्योंकि वह पंडित था ?
उसके बूढ़े पिता द्वारिका पंडिता को अपने बेटे भारती पर गर्व है वो कहते हैं देश होगा तभी हम होंगे। उन्होंने अपने बेटे से कई बार पूछा था आपने अपना नाम भारती क्यों रखा तो अजय कहता था पहले देश है फिर हम पंडित या मुसलमान।
पिछले दिनों दक्षिणी कश्मीर के अनंतनाग में आतंकियों ने कश्मीरी पंडित समुदाय के सरपंच अजय पंडिता की गोली मारकर हत्या कर दी। जम्मू कश्मीर के पंडित समुदाय में इस हत्या को लेकर काफी रोष है और इस जघन्य हत्या ने उनकी पुरानी काली रात की याद ताजा कर दी है। उनका अंतिम संस्कार जम्मू के शक्ति नगर में हुआ और पलायन के दर्द झेल रहे जम्मू स्थित पंडित समुदाय के लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी । 1989 तक कश्मीर में 75000 पंडितो की फैमिली अपने 3 लाख 25 हजार लोगों की आबादी के साथ पुरे वादी में गाँव से लेकर शहर तक फैली हुई थी। शिक्षा, प्रशासन से लेकर कृषि -बागवानी तक इनका प्रमुख योगदान था। आज भी बुरे हाल में 808 परिवार के तक़रीबन 2000 लोग कश्मीर में अपनी पुश्तैनी विरासत को संभाले हुए हैं। अजय भारती उनमे से एक थे और कश्मीर के सेक्युलर रिवायत को आगे बढ़ा रहे थे।
1990 हो या 2003 या फिर 2020 कश्मीरी पंडितों की बर्बरतापूर्ण हत्या और भारतीय जनमानस /मीडिया /एलिट वर्गों की ख़ामोशी एक सवाल जरूर खड़ा करता है कि जिस देश में हम गर्व से अपना नाम भारत /भारती रखना छोड़ दिए हैं उसी कश्मीर में मौत के खौफ के बीच एक हिंदुस्तानी अपने को आज भी भारती कहकर फक्र मह्शूश करता है लेकिन देश में बहस इस्लमोफोबिया को लेकर चल रही है।
अजय पंडिता की बेटी सवाल पूछने से क्यों चुप रहे? उसके बाप ने उसका नाम शेरा रखा था ,शायद वह अपनी बेटी को मानसिक रूप से मजबूत बनाकर सवाल पूछने के लिए तैयार कर दिया था। आखिर हमारे परिवार का कसूर क्या था ?जिसके कारण हमें बेसहारा कर दिया गया ? आखिर किस जुर्म की सजा पंडिता के परिवार को मिली है?
वह तो हर सांस अपने मुस्लिम पड़ोसियों की भलाई के लिए जीता था "
यही सवाल कश्मीर के सैकड़ो पंडित परिवार पिछले 30 साल से पूछते रहे हैं लेकिन किसीने शायद ही कभी इनके दर्द और आंसू पर गौर किया हो। लेकिन अजय पंडिता की हत्या उस विश्वास की भी हत्या है जो मजहब से ऊपर हजारों साल पुरानी वादी की संस्कृतिक पहचान से रिश्ते को मजबूत करता रहा है । जिस रिश्ते की सीख शेखुल आलम और लालदेत ने दी थी। मजहब के संकुचित दायरे में बटा समाज इन हलाकतो पर खामोश हो जाता है। साउथ कश्मीर में 1990 ,2003 और 2020 अल्पसंख्यक समुदाय पंडितो पर बार बार हमला क्यों? उन मासूम ग्रामीण परिवारों का क्या कसूर था। 2011 में जीत के आये पंच सरपंचों पर भी इसी साउथ कश्मीर में कायरना हमला हुए थे और 11 -12 में 50 से ज्यादा पंच सरपंच मारे गए थे। आतंकवाद के खौफ को चुनौती देकर तब भी 45000 पंच सरपंच चुनाव जीतकर ग्रास रूट्स डेमोक्रेसी में अपना योगदान देना चाहते थे लेकिन आर्टिकल 370 का हवाला देकर 33 साल बाद हुए पंचायती राज के चुनाव के उद्देश्य को ही ख़तम कर दिया गया और वे पंच सरपंच या तो डर के कारण रिजाइन कर गए या उन्हें जब कुछ काम नहीं मिला तो अपने घर बैठ गए।
मौजूदा पंचायती राज में संवैधानिक अधिकार मिलने से इस दौर में जम्मू कश्मीर की किश्मत बदल गयी है। पहली बार तमाम केदीय योजनाए 100 फीसद जमीन पर उतारी गयी हैं। ऐसी ही कोशिश अजय पंडिता भी अपने पिछड़े गाँव के लिए कर रहे थे लेकिन उन्हें बर्बर तरीके से मार डाला गया । दुःख की बात यह है कि इस निर्मम हत्या पर वादी के अलगाववादी और मानवाधिकार के तथाकथित चैम्पियन खामोश हैं तो देश के लेफ्ट लिब्रल बुद्धिजीवियों के लिए कश्मीर में पंडितो की हलाकत न तो 1990 में न ही 2003 में न ही 2020 में कोई मुद्दा बना। . देश के बुद्धिजीवियों ने भारती जैसे लोगों के बलिदान में अपनी रूचि नहीं दिखाई ,मानो इनकी कलम की चिंगारी खामोश हो गयी थी। हो सकता है इन्हे ऐसी हलाकत में अन्तर्राष्टीय एजेंडा नहीं लगा। लेकिन आज न कल इस देश को जवाब देना होगा कि अपने को भारती कहना क्या गुनाह है क्या
इस्लमोफोबिया को लेकर चल रही सोशल मीडिया की बहस में अजय पंडिता की बेटी के सवाल पर ख़ामोशी क्यों ?

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