अयोध्या के राम का मिथिला कनेक्शन : यह फेविकॉल से भी मजबूत है
हे पहुना अहाँ मिथिले में रहु ना ! मिथिला के लोक गीतों में अपनी जानकी के राम हर घर के अपना पाहून हैं.. प्रभु राम से लोगों का सरोकार सजीव और आत्मीय है। मिथिला की बुजुर्ग महिलाओं को आज भी यह गीत गाते सुना जा सकता है "साग पात तोडी तोड़ी गुजर करेबे यो ,मिथिले में रहियो"। वहीं नयी पीढ़ी की ललनाओं के गीतों में "सजा दो घर को गुलशन सा अवध के राम आये हैं।" अपने पाहून श्री राम को लेकर ऐसा अनुराग आपको शायद ही कही देखने को मिले ... यही नाता अयोध्या के राम लला के साथ भी रहा है । 5 अगस्त को जब राम जन्मभूमि का शिलान्यास हो रहा था तो आप यकीन करेंगे प्रधानमंत्री मोदी के साथ महत्वपूर्ण लोगों की सूचि में अयोध्या के शिलान्यास स्थल पर सबसे ज्यादा मिथिला के लोगों की उपस्थिति थी। श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के पूर्णकालिक सदस्य के रूप में कामेश्वर चौपाल और विमलेंद्र प्रताप मोहन मिश्रा (अयोध्या राज परिवार से सम्वद्ध लेकिन मिथिला से सरोकार ) अयोध्या के डी एम अनुज कुमार झा अयोध्या के एस पी दीपक कुमार और तो और प्रधानमंत्री को शिलान्यास कराने वाले पंडित श्री गंगाधर पाठक भी मिथिला से ही थे। अपने सिया के राम के इस ऐतिहासिक मंदिर निर्माण के साक्षी ये सभी मैथिल महत्वपूर्ण भूमिका में हैं।
500 वर्षो के राम जन्मभूमि विवाद में कई मोड़ आए हैं। हरी अनंत , हरी कथा अनंता की तरह इसका संघर्ष भी अनंत रहा है। देवराहा बाबा से लेकर सैकड़ों संतों की भूमिका इसे आज मुकाम पर पहुंचाया है। 1984 में पहलीबार दिल्ली के विज्ञान भवन में धर्म संसद की बैठक हुई थी जिसका मकसद इसे कोर्ट से बाहर जनता के बीच ले जाने का था । इसी धर्म संसद ने राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन का ऐलान किया था। लेकिन कमाल की बात यह है कि इस आंदोलन को जनता के बीच ले जाने की शुरुआत के लिए मिथिला को हीं चुना गया । मिथिलांचल से शुरू हुआ 4 महीने के जनजागरण अभियान की कामयाबी को इस तरह समझा जा सकता है कि अयोध्या जी में नागा साधुओं के आंदोलन के बाद पहलीबार यहाँ 5 लाख से ज्यादा लोग इस जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में शामिल होने अयोध्या पहुंचे थे । 1989 के प्रयागराज कुम्भ के धर्म संसद में यह निर्णय हुआ कि निषाद राज ,शबुरी जैसे समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों की आस्था के राम को पुनर्स्थापित किया जाय। इसलिए जब राम मंदिर शिलान्यास की बात आयी तो देवराहा बाबा ने एक दलित कार्यकर्ता कामेश्वर चौपाल का नाम दिया था और भव्य मंदिर निर्माण की नींव रखने का सौभाग्य मिथिला के एक दलित स्वयंसेवक को ही मिला।
संयोग देखिये राम लला विराजमान के पक्ष जब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया तो अपने पाहून के गृह जिला अयोध्या की जिम्मेदारी मिथिला के अनुज कुमार झा को ही मिला जो वर्तमान में वहां जिला अधिकारी हैं और दीपक कुमार एस पी।
500 साल पुराने इस राम मंदिर आंदोलन में गुरु गोविन्द सिंह से लेकर कई धर्म गुरुओं और हजारो साधु संतो का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। हज़ारों लोगों ने मंदिर और राम लला विराजमान की पुनर्स्थापना के लिए अपनी कुर्बानी भी दी है। लेकिन पिछले 70 वर्षो में अदालत के अंदर और बाहर राम मंदिर के मुद्दे को प्रभावी रूप से रखने में अशोक सिंहल ,विष्णु हरि डालमिया ,गिरिराज किशोर ,रामचंद्र परम हंस ,महंत अवेद्यनाथ ,ओमकार भावे ,सदानंद काकरे ,वामदेव जी महाराज ,देवकी नंदन जी ,देवराहा बाबा ,श्री चंद्र दीक्षित ,उमा भारती ,साध्वी ऋतम्भरा जैसे अनेकों विशिष्ट नाम ,जिसमे अधिकांश आज हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन यह भी सच है कि राममंदिर आंदोलन को जबतक लाल कृष्ण आडवाणी जैसे संकल्पित मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति वाले नेता नहीं मिला था तबतक इस आंदोलन की भूमिका अखिल भारतीय स्तर पर नहीं बनी थी। यानी पहलीबार इस देश में छद्म सेक्युलरवाद के नीचे हिन्दुत्व के अस्तित्व को मिटाने की साजिश को आडवाणी जी ने बेनकाव किया था।
1885 से शुरू हुआ राममंदिर का आंदोलन के क़ानूनी विवाद में कई मोड़ आये लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मान्यता उसी राम लला विराजमान को दिया जिस राम लला को मिथिला सहित पूरी दुनिया मूर्ति में भी सजीव राम को देखती है। 1989 में लाल नारायण सिन्हा (सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे थे) का सरोकार भी मिथिला और बिहार से था। उन्होने ने ही पहलीबार विश्वहिन्दु परिषद् के सामने रामलला विराजमान को एक सजीव पक्ष बनाने की पहल की थी। राम लला विराजमान के पहले वकील भी बिहार से ही रविशंकर प्रसाद (वर्तमान कानून मंत्री )थे। करोडो लोगों की आस्था को भारतीय कानून भी न्यायिक व्यक्ति मानता है। ऐसे कई मामले सामने आये हैं जिसमे प्रतिष्ठापित मूर्ति के खिलाफ मुकदमा चला है। यही वजह है कि तमिलनाडु के विद्वान वकील के परासरन ने धर्म ,अध्यात्म ,ऐतिहासिक साक्ष्य के साथ राम लला की जोरदार पैरवी की तो इनके तर्क और सबूत के सामने सुप्रीम कोर्ट में किसी पक्ष का तर्क टिक नहीं पाया । राम लला विराजमान के वकील परासरण जी के तर्कों और ठोस सबूत से हर दिन संविधान पीठ अचंभित होती थी।92 वर्ष की आयु वाले प्रतिष्टित्त वकील परासरण जी ने कहा था यह उनके जीवन की आखिरी ख्वाइस है। अन्ततः सुन्नी वक्फ बोर्ड के अलावा सभी पक्ष के दावे को सुप्रीम कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया था और सुन्नी वक्फ बोर्ड को मंदिर परिसर से बाहर 5 एकड़ जमीन देने की सिफारिश की । खास बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सर्व सम्मति से सुनाया और हर जज इस फैसले के लेखक बने।
विद्वान न्याधीशो ने शायद पहलीबार अपने विवेक और कानून को आधार बनाकर भारत का गौरव बढ़ाया।
2. 77 एकड़ जमीन का विवाद 135 वर्षो तक क्यों चला ? शायद इस मुल्क की सियासत और समाज के पास इसका जवाब नहीं है। 2009 में विवादित भूमि में लगभग 50 गज जमीन इलाहबाद हाई कोर्ट ने मुस्लिम पक्ष को भी दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में महज एक बेंच बनाने ,सबूतों को अनुवाद करने में वर्षों लग गए। कहते हैं न सब चीजे वक्त से ही तय होती है और यह सौभाग्य प्रधानमंत्री मोदी को ही मिला और उनके कर कमलो से मंदिर निर्माण का शिलान्यास हुआ।
सदियों से अयोध्या भारत के प्रमुख तीर्थ स्थानों में एक है। हर साल यहाँ लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचते है. जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि मंदिर निर्माण से यहाँ एक नए युग की यहाँ शुरुआत होगी। पहलीबार योगी सरकार ने दीपोत्सव का आयोजन करके अयोध्या के अर्थशास्त्र को भी पहचाना था । एक अकेली अयोध्या उत्तर प्रदेश के 8 जिलों के सबसे बड़े रोजगार के साधन बन सकती हैं। सेक्युलर कम्युनल की सियासत में उलझा कर इस मुल्क की सियासत ने यहाँ की मुस्लिम और हिन्दू आबादी को वर्षों तक विकास की रौशनी से दूर रखा। सियासत ऐसी के राम की अयोध्या में श्रीराम के मंदिर को लेकर 500 वर्ष बहस चली तो पडोसी मुल्क नेपाल में जहाँ इनदिनों सियापतिराम की गूंज हर घर में सुनाई दे रही है लेकिन नेपाल के प्रधानमंत्री एक नयी अयोध्या बनाने में लगे हैं। माओवादी ओली यह भूल जाते हैं राम के अस्तित्व को लेकर ऐसे सवाल यहाँ लेफ्ट लिबरल बुद्धिजीवी और सरकार भी उठाती रही है लेकिन भारत ने राम कृष्ण को अपने आराध्य से ज्यादा अपना पुरखा माना है अपनी संस्कृति माना है यही वजह है राम सबके हैं। लेकिन मिथिला के तो पाहुन ही रहेंगे।
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