कश्मीर की सियासत की धारा क्यों बदल गयी ?


 

ओ नादान पडोसी आँखे खोलो .आज़ादी अनमोल न इसका मोल लगाओ 

 

पर तुम क्या जानो आज़ादी क्या होती है ,तुम्हे मुफ्त में मिली न कीमत गयी चुकाई 
मां को खंडित करते तुमको लाज न आई.अटल जी की संवेदना को आप इन पंक्तियों समझ सकते हैं। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से देश लहुलहान था। कश्मीर में पिछले कई वर्षों से हत्या ,आतंक  का सिलसिला रुक नहीं रहा था। कश्मीर की सत्ता मुख्यधारा और अलगवादी ग्रूपो में बंटी   हुई थी। जम्हूरियत  पुरे मुल्क में अपनी जड़ गहरी कर ली थी लेकिन कश्मीर में सिर्फ सत्ता पर काबिज होने के लिए इसे महज लोकतंत्र का नाम गया था। वह दौर था जब कश्मीर असेंबली से लेकर दिल्ली के संसद भवन पर हमला करके आतंकवादियों ने दुनियाभर में सुर्खियाँ बटोरी थी। लाल चौक पर उपद्रवियों द्वारा पाकिस्तान का झंडा फहराना आम बात थी। इस आतंक और कश्मीर की सत्ता की साजिश का   जवाब सोफ्ट डिप्लोमसी से  ढूंढने खुद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी  ने कश्मीर का दो दिनों का दौरा किया  था। 

2003 के अप्रैल  महीने मे  अटल जी  का कश्मीर दौरा कई मायने मे खास था। अटल जी के पांच साल के सत्ता के  सफ़र की यह एक अभूतपूर्व घटना थी जिसका प्रत्यक्षदर्शी मैं भी था। अटल जी के काफ़िले के साथ मैं भी  श्रीनगर पंहुचा था... . 20 साल बाद यानि यूँ कहे कि लहुलहान आतंकवाद से प्रभावित कश्मीर में  भारत के किसी प्रधानमंत्री की यह पहला दौरा था। .वर्षो बाद कश्मीर में साफ़ -सुथरी चुनाव का वायदा  पूरा करके अटल  बिहारी वाजपेयी जी सीधे  कश्मीर के आवाम से रूबरू होने आये थे .जख्मों पर मलहम लगाने वाले इस चुनाव में फ़ारूक़ अब्दुल्ला सत्ता से बाहर हो गए थे। वाजपेयी ने जैसा कहा वैसा ही फ्री एंड फेयर चुनाव की बात को साबित कर दिखा दिया था।
 . यह पहला चुनाव था जिसे अंतर्राष्ट्रीय  मीडिया और  दर्जनों पर्यवेक्षक ने कवर किया था। यानि यह बात अटल जी के मन में जगह बना ली थी कश्मीर समस्या  समाधान सिर्फ जम्हूरियत और सामजिक भागीदारी से  संभव है। पंचायतीराज मॉडल उनके जेहन था  लेकिन धारा ३७० सबसे बड़ी बाधा थी।  .यह कोई नहीं समझ रहा था कि श्रीनगर की जान  सभा को संवोधित करते हुए अटल जी  क्या ऐलान करेंगे.. उनके सबसे करीबी सलाहकार  ब्रजेश मिश्रा और कश्मीर प्रभारी दुल्लत साहब भी ब्लेंक थे क्या हो रहा है। अटल जी अपने चिर परिचित मुद्रा में मंच पर चढ़ रहे थे। स्टेडियम में जनता जिंदाबाद के नारे लगा रही   थी। अवाम को सम्वोधित करते हुए उन्होंने  गुलाम एहमद महजूर का मशहूर शेर पढ़ा :

"बहारे फिर से आयेंगी .... और लोग उनके गीत पर तालिया बजाने लगे थे।  उन्होंने लोगों का  दिल जीत लिया था  .नवाज शरीफ को कैद करके सत्ता कब्ज़ा कर बैठे  फ़ौजी तानाशाह परवेज मुशर्रफ भारत में आतंकवाद को लेकर काफी सक्रिय था। अटल जी ने श्रीनगर के मंच से  पाकिस्तान की तरफ एक बार फिर दोस्ती का हाथ आगे बढा दिया था .वहां हर के चेहरे पर हवइया उड़ रही थी।  प्रधानमंत्री के ऐलान से सभी अचंभित थे। पाकिस्तान से बातचीत का प्रस्ताव वो भी पब्लिक मंच से लेकिन अटल तो अटल थे। 
अगले दिन के प्रेसकॉन्फरेन्स में .वाजपेयी जी को किसी  पत्रकार ने पूछा हुर्रियत के लोग संविधान के दायरे मे बात नहीं करेंगे ,उन्होंने कहा " वे संविधान के दायरे मे नहीं तो इन्सानियत के दायरे मे तो बात कर ही सकते है ". ..हुर्रियत कांफ्रेंस के सरबरा मौलाना अब्बास अंसारी ने एक बार मुझे बताया था कि वाजपेयी का 2004 में  दुबारा न आना   कश्मी के लिए जबरदस्त झटका था।  .यही बात पाकिस्तान से लौटे एक पत्रकार ने मुझे कहा था कि "पाकिस्तान मे आप जहाँ भी जाय अगर लोग ये जान ले कि आप भारत से है तो पहला सवाल वाजपेयी के लिए पूछेंगे ... 
अटल जी कश्मीर में  नेता से ज्यादा अवाम को फ्रंट पर लाना चाहते थे ,तरक्की से हर गाँव और गली को  प्रधानमंत्री सड़क संपर्क से जोड़ना चाहते थे।  वे यह बात समझ गए थे कि पाकिस्तान का समाधान के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं है  बल्कि  पाकिस्तानी फौज के लिए कश्मीर  सत्ता पर काबिज रहने का जरिया है। दुबारा सत्ता में आने के साथ पी एम् मोदी ने वाजपेयी के कश्मीर फॉर्मूले को ही आगे बढ़ाया। याद कीजिये मोदी जी का लाल किले का भाषण जिसमे उन्हंने अटल जी के हीलिंग टच की पुरजोर वकालत की थी बम से न  गोली से बात बनेगी गले लगाने से। कश्मीर के जानकार इसमें  बातचीत  के दिल्ली दरबार की नयी कड़ी मान बैठे थे। 
लेकिन जानकर मोदी जी को पढ़ने में  धोखा खा गए   कि उनके संकल्प में अटल जी है लेकिन फार्मूला कुछ और है। मोदी जी भी कश्मीर में पूर्ण लोकतंत्र और जनभागीदारी की बात जमीन पर उतारना चाहते थे और यह संभव आर्टिकल ३७० के रहते संभव नहीं था। जो काम बहुमत  न होने के कारण अटल जी नहीं कर सके वह काम पी एम् मोदी ने संविधान संशोधन के तहत  भारत के तमाम संघीय कानून जम्मू कश्मीर में लागू करके लद्दाख को अपना केंद्र शासित प्रदेश दे दिया।  
मकसद था जनता का जनता के लिए जनतंत्र .. यु टी बनने के बाद कश्मीर  की जमीनी हकीक़त से देश को रूबरू होना जरुरी है। मानवाधिकार ,इक्वलिटी से जहाँ पहली बार हम भारत के लोग का एहसास यहाँ बढ़ा है वही पंचायतों और लोकल बॉडी के अकॉउंट  में केंद्रीय फण्ड सीधे पहुंचने से लोग अपने को अधिकार सम्पन्न समझ रहे हैं।
 क्या आप यकीं करेंगे कश्मीर का एक पंचायत इन दिनों २ से ३ करोड़ रूपये का काम करता  है। क्या आप यकीन करेंगे एक पंचायत अपने इलाके के २०० -४०० लोगों को प्रतिदिन रोजगार दे रहा है। जो विकास यहाँ के गलियों में पहाड़ों में ७० साल में नहीं हुआ वो सारे प्रोजेक्ट गाँव वालों ने मिलकर पूरा कर लिया। 
दो संविधान वाला जम्मू कश्मीर और एक झंडा एक विधान वाला आज का  जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र  और सिस्टम में    फर्क को  आप किसी भी गाँव में आज  देख सकते हैं ।   पंचायती राज की कल्पना को साकार करना गाँधी जी का सपना था ,अटल जी का सपना था  ग्रामीण भारत में  आर्थिक हलचल   बढे ,उस   सपने को  देश की संसद ने पिछले पांच अगस्त को साकार कर दिया। 

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