सम्पूर्ण क्रांति वाले बिहार में सियासी भूमि बंजर क्यों हो गयी ?
एक मासूम सवाल मैंने बिहार के एक सामजिक कार्यकर्ता से पुछा था ! इस बार बिहार का सियासी एजेंडा क्या है ? उन्होंने कहा पैसा ! अब नया कुछ नहीं होता है ,कोई आईडिया नहीं है। हर चुनाव में यही एजेंडा होता है। मैंने कहा हर बार तो सामजिक न्याय का बोलबाला होता था कोरोना महामारी और आर्थिक तंगी के बीच पैसा कैसे एजेंडा बन गया। उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा किसी पांच उभरते हुए बिहारी सामाजिक/राजनितिक कार्यकर्त्ता का नाम बताये जिसे बिहार में हर तबके के लोग सोनू सूद की तरह आदर करते हों ? एक ही नेता यहाँ कभी जदयू से कभी बीजेपी से कभी आर जे डी से चुनाव लड़ता है ,दिल्ली में आप लोग लिखते हो कई विधायक इधर से उधर गए। अरे भाई कही नहीं गए ,कल भी वही थे ,हालात बदलने पर फिर वही आयेंगे सिर्फ एक जगह से दुकान बढाकर दूसरे मॉल में शिफ्ट हो गए है ।
सामाजिक न्याय की राजनीति में पिछले 30 वर्षों से कुछ लोग अपनी अपनी जात के ठेकेदार बन गए। ठीक चुनाव से पहले पार्टी में कैंडिडेट का रेट पता चलते ही यहां सामाजिक न्याय का असली खेल चल पड़ता है। यानी सट्टा बाजार जिस तरह एग्जिट पोल से भी बेहतर रिजल्ट देता है वैसे ही बिहार में कैंडिडेट और सीट की बोली से अंदाज़ा लगाया जाता है कि हवा का रूख क्या है ? तो क्या बिहार की सियासत कुछ लोगों और उनके गैंग के हाथों में गिरफ़्त है ? बिहार जैसे गरीब राज्य में एक एम् एल ए कैंडिडेट के लिए 40 -50 लाख के बोली आपको हैरान कर सकती है। पैसा कहाँ से आता है ? चुनाव की मर्यादा तार तार करते हुए जातीय पार्टियों ने फिर से बोली शुरू कर दी है। जबकि उन्हें यह नहीं पता कि उन्हें महागठबंधन में जगह मिलेगी या एन डी ए में ऑप्शन सबके लिए खुला है।
सियासत देखिये सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक पीठ ने पिछले दिनों निर्णय दिया है कि आरक्षण की शर्तो में सब क्लास और आर्थिक स्तर की समीक्षा कीजिये। अनुसूचित जाती और जनजाति में जो समुदाय ज्यादा वंचित है उन्हें मुख्य धारा में लाइए ... . बिहार में सियासी पार्टियों को सांप सूंघ गया है। सबकी बोलती बंद है। मधुमख्खी के छते में कौन हाथ डाले। पिछले असेंबली चुनाव में संघ प्रमुख मोहन भगवत ने आरक्षण में आर्थिक रूप से कमजोर पिछड़ी जातियों/दलितों का उल्लेख भर किया था ,नीतीश लालू जी के महागठबंधन ने आरक्षण बचाओ ,स्वाभिमान बचाओ का स्लोगन देकर सामजिक न्याय का एक बार फिर पताका फहरा दिया था ।
बिहार के गाँव अमूमन महिलाये ही संभाल रही हैं। कह सकते हैं कि ढप्प पड़े उद्योग -धंधे की बीच बिहार की सियासत में समाज के पढ़े लिखे तबके की भूमिका कम रह गयी है या फिर रोजी रोटी की चिंता में पलायन कर गए हैं। इसलिए
नीतीश कुमार जी के चुनावी एजेंडा वाले सात निश्चय महिलाओं के प्रति समर्पित है। मसलन नीतीश कुमार शराबबंदी का ढोल ज़बरदस्ती बजाये जा रहे हैं ,जबकि बिहार में शराब की खपत पहले से ज्यादा है । आप शौक रखते हैं , गुटका दबाये गाँव का कोई व्यक्ति मिनटों में आपके सामने ब्रांडेड शराब रख सकता है ।व्हाट्सअप पर शराब का आर्डर बिहार में आपको परेशान तो नहीं हैरान कर सकता है. हर थाना/ बीट का इस रैकेट में बराबर की हिस्सेदारी है ,लेकिन आप आला अफसर से बात कीजिये वो आपको झूठा साबित कर देंगे।
कायदे से बिहार में भ्रषचार के खिलाफ कड़े होने चाहिए लेकिन गरीब शराबी के खिलाफ इतने शख्त कानून बने हैं कि 5 वर्षों में लगभग 4 लाख से ज्यादा लोग बिहार के जेलों में बंद हैं उन्हें जमानत तक नहीं मिलती । नीतीश जी के भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन में पुलिस तफ्तीश में फसे किसी परिवार की हालत देख आइये बुद्ध बनने का कारण पता चल जाएगा।
क्योंकि बिहार की महिलाओं से यह वादा है। आजीविका का नाम आपने जरूर सुना होगा। बिहार में भागलपुर घोटाला को नज़रअंदाज़ करदें तो बिहार में यह एक सामजिक क्रांति से कम नहीं है। आंगनबाड़ी और दूसरी कई स्कीम बिहार में महिला स्वाभिमान के साथ साथ माइक्रोइकोनॉमिक्स को लेकर एक शानदार पहल है लेकिन भ्रष्टाचार के कारण यह प्रयास सामाजिक आंदोलन नहीं बन सका।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आज अनाज की कोई कीमत नहीं है।इसलिए किसान का मतलब अब किसान सम्मान योजना और फसल बीमा योजना तक सीमित है। हर टोले पर स्कूल है ,आंगनबाड़ी है लेकिन शिक्षा कहीं नहीं है।
शिक्षा और शिक्षक के गुणवत्ता के बहस के बीच बिहार में स्कूल भवनों के निर्माण और उसकी क्वालिटी चौकाने वाली है। ग्रामीण विद्यालयों में स्मार्ट ब्लैकबोर्ड से लेकर कंप्यूटर और स्कूलों में बड़े टीवी स्क्रीन देखकर कह सकते हैं कि बिहार में सिस्टम अभी जिन्दा है। सड़कों के निर्माण और ग्रामीण सड़कों के पक्कीकरण में बिहार सबसे आगे है। इस दौर में भी बिहार में टूटे सड़कों की मरम्मती हो जाती है। फुके हुए ट्रांसफार्मर बदल दिए जाते हैं तो माना जाएगा कि नीतीश जी का सात निश्चय चले न चले लेकिन जिस विभाग में काबिल ऑफिसर है उस विभाग में भारी भ्रष्टाचार के वाबजूद जमीन पर विकास दिख रहा है। कोरोना महामारी के बीच अपने संसाधन को लेकर सबसे ज्यादा एक्सपॉज बिहार ही हुआ है। पिछले तीस सालों में 12 करोड़ आबादी के लिए 12 अच्छे हॉस्पिटल नहीं बन पाए। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का मतलब मजाक से कम नहीं है...प्राथमिक शिक्षा का दारोमदार अब मुखियापति या फिर पंचायत प्रतिनिधि के ऊपर है।ग्रामीण विकास का मतलब लूट के कारोबार से है ,इस स्थिति में भी बिहार में नए लोगों की एंट्री नहीं है। जाति से आगे सोच विकसित नहीं हुई है तो माना जाएगा बिहार के उर्बर सियासी भूमि सामजिक न्याय के दौर में बंजर हो गयी है।
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