नक्सली हमले और लकीर के फ़क़ीर सरकार !

 2013 के झीरम घाटी नक्सली  हमले और  2021  के बीजापुर हमले में क्या कुछ बदला है. ?. मेरे पुराने लेख से आप खुद निर्णय ले सकते हैं।  


बस्तर के  टाइगर को किसने मारा ? क्यों इस टाइगर की मौत पर नक्सलियों ने जश्न मनाया ? वह टाइगर जिसने  पिछले 10   वर्षों में  40  बार मौत को हराया था ,वह टाइगर जिसने नक्सल के खिलाफ अपने 15  से ज्यादा अजीजो को खोया था आखिरकार नक्सली हमले का शिकार बन गया।  कोंग्रेसी विधायक .महेंद्र कर्मा बस्तर का  अकेला टाइगर जिसने दंडकारण्य के रेड कॉरिडोर में माओवादी अधिपत्य की चुनौती  दी थी. . जिसने न कभी केंद्र से न ही कभी राज्य सरकार से कोई मदद की दरकार की और माओवाद की छल -प्रपंच से आदिवासियों को आगाह कराया था .लेकिन आख़िरकार कांग्रेस के अंदुरुनी सियासत के प्रपंच में उलझ कर मारा गया .पिछले दिनों जगदलपुर के दरभा घाटी में अम्बुश लगाकर नक्सालियों ने महेंद्र कर्मा सहित 28 शीर्ष कोंग्रेसी नेताओं  को मौत के घाट उतार दिया। . 


 महेन्द्र कर्मा को  गोली मारने के बाद नक्सली उनकी डेड बॉडी पर नाच रहे थे। तो क्या यह नक्सल आइडियोलॉजी की जीत थी या फिर केंद्र की मनमोहन सरकार के  नक्सल  अभियान की हार थी .?  घटना की समीक्षा के लिए रायपुर में  आपात बैठक हुई जिसमे  प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने सीधे पूछा कि इस घटना के लिए जिम्मेदार कौन है? शायद इस यक्ष प्रश्न का उत्तर उनके पास भी नहीं था. .. .
पिछले वर्षों में नक्सल आतंक के खिलाफ  जोरदार हमले की तैयारी हुई थी . ऑपरेशन ग्रीन हंट की तैयारी मीडिया के द्वारा छन छन कर लोगों के बीच आ रही थी . नगारे बज रहे थे मानो सुरक्षाबल  जंगल में घुसेंगे और माओवादी नेता गणपति सहित  तमाम आला नक्सली लीडरों को कान पकड़ कर लोगों के बीच ले आयेंगे . लेकिन भारत सरकार यह अब तक यह नही तय कर पायी की इस जंग की कमान किसके हाथ मे होगी ?.अभियान के कप्तान  गृहमंत्री चिदंबरम को पार्टी और पार्टी से बाहर लगातार नसीहत  मिल रही थी कि नक्सली पराये नही है वे पार्टी के लिए पहले भी हितकर रहे है और उनका उपयोग कभी भी चुनाव मे हो सकता है .यही वजह है कि  चिदंबरम साहब नक्सल के खिलाफ जंग भी लड़ना चाहते थे  लेकिन सामने नहीं  आना चाहते थे .वो राज्य सरकारों को मदद देने  की बात कह रहे,  40  से 50  बटालियन सी आर पी ऍफ़  नक्सल प्रभावित राज्यों में भेजे गए  .लेकिन लड़ाई की जिम्मेदारी राज्य सरकार पर छोड़ दी गयी  .उधर  राज्य सरकार चाहती थी  कि यह लड़ाई चिदंबरम खुद लड़े.  यह देश का सवाल नहीं था ,यह  वोट का सवाल था. रणनीति सियासत में फसी रह गयी . 
  दंतेवाडा के हमले के बाद अपने गृह मंत्री का सुर और ताल दोनों बदल गए  .सीधे जंग की बात करने वाले गृह मंत्री चिदंबरम  इनदिनों यह मानने लगे है कि नक्सली हमारे दुश्मन नहीं है .अचानक बचाव की मुद्रा मे आचुके गृहमंत्री के हालिया बयानों के पीछे कई वजह है .खुद उनकी पार्टी कांग्रेस के कई आला लीडरों ने खासकर दिग्विजय सिंह ,मणि शंकर अय्यर और अजीत जोगी ने सार्वजनिक तौर पर चिदंबरम के स्टाइल और नीतियों को जमकर लताड़ा था।   .यानी इन नेताओं ने चिदम्बरम के स्टाइल को कांग्रेस संस्कृति के अनुरूप नहीं पाया था।   .हैरानी की बात तो यह है कि नक्सल के किसी भी मामले को लेकर सार्वजनिक रूप से बात करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय ने सिर्फ गृह मंत्री को अधिकृत किया था।  .पी एम् ओ से इस आशय के पत्र भी निर्गत किये गए थे .लेकिन फिर भी नक्सल समस्या को लेकर भ्रांतियां फैलाई जा रही है और कांग्रेस आलाकमान चुप है तो मना जायेगा की यह कांग्रेस के अंदर सत्ता के समीकरण की  सियासी चाल है।  
.बिहार के मुख्यमंत्री  नीतीश कुमार  नक्सल के खिलाफ सख्त बयानबाजी के कारण चिदंबरम को नसीहत  दे रहे थे .वे यह मान रहे थे कि बिहार मे नक्सली कोई बड़ी समस्या नहीं है और वे अपने लोग है. नीतीश यह बात इसलिए भी  कह रहे थे क्योंकि लालू यादव नक्सल के खिलाफ किसी जंग या  अभियान के खिलाफ थे .लेकिन उसी दौर में  नक्सलियों ने बिहार पुलिस के जवानों और अधिकारियों को अगवा करके नीतीश को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया था।    चुनाव की आहट के साथ ही छत्तीसगढ़ कांग्रेस खासकर नन्द कुमार पटेल जैसे लोग नक्सलियों को दुश्मन मानने से कतरा रहे थे जबकि दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेसी लीडरों ने चिदंबरम को खरी खोटी सुना रहे थे ..

सन 2005 से लगभग 10  मोके पर  प्रधान मंत्री  कह चुके है कि नक्सली  आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है लेकिन पार्टी के आलाकमान और दुसरे कद्दावर नेता नक्सलियों से नरमी बरतने पर जोर देते है .  प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कोई सियासी जोखिम नही उठाना नही चाहते है और न हीं ऐसा कोई जोखिम कांग्रेस पार्टी लेना चाहती है।   सो बिहार पुलिस के अगवा  मामले में केंद्र सरकार हर मदद का भरोसा देती है लेकिन करवाई के नाम पर चुप कर बैठी है .इस साल की बात करे तो 200    से ज्यादा पुलिस कर्मी मारे गए है 150   से ज्यादा आम आदमी नक्सल हमले के शिकार हुए है फ़िर भी यह कहा जा रहा है कि नक्सली सिर्फ व्यवस्था परिवर्तन की बात करते है देश की संप्रभुता पर कोई आंच नहीं पंहुचा रहे है तो यह माना जायेगा कि ऐसे लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नक्सलियों की मदद कर रहे हैं। दिल्ली में बैठे अर्बन नक्सली रणनीतिकार बनकर उपदेशक की भूमिका में सरकार को लगातार प्रभावित कर रहे हैं। .
यकीन मानिये  देश में अब तक नक्सल विरोधी अभियान मे 2000  से ज्यादा जवानों की मौत हो चुकी है .लेकिन भारत सरकार की यह जिद है कि यह लड़ाई राज्य सरकारे लड़ेगी केंद्र सरकार  सिर्फ उन्हें सहायता देगी। .सियासत ऐसी कि नक्सल के खिलाफ अभियान को राज्यों में ऑपरेशन ग्रीन हंट का नाम दिया जा रहा है लेकिन हमारे गृह मंत्रालय  ऐसे किसी ग्रीन हंट ऑपरेशन से इनकार करता है .
 
 देश  के तकरीबन 14   राज्यों में नक्सलियों का दबदबा कायम है .पिछले साल नक्सलियों ने 500  से ज्यादा वाकये को अंजाम देकर 400  से ज्यादा लोगों की जान ले ली थी ,जिसमें  से ज्यादा सुरक्षाबलों ने अपनी जान की कुर्बानी दी है .अरबों खरबों रूपये के निवेश नक्सली सियासत की भेट चढ़े है. 6  अप्रैल 2010 के  दंतेवाडा . भारत के आतंक विरोधी अभियान का  काला दिवस माना जा सकता है नक्सली हमले मे  एक नहीं दो नहीं 76  से ज्यादा जवानों को  मौत के घाट उतार दिए गए. .. नक्सली आतंकियों द्वारा किया गया यह सबसे बड़ा हमला था लेकिन केंद्र सरकार की जांच कमीशन इस के लिए मारे गए सुरक्षाबलों  को दोषी ठहराते है .इसे एक मजाक ही कहा जा सकता है कि जंगल मे नक्सलियों से जूझने के लिए ऐसे जवानों को भेजा जाता है जिनका न तो जंगल से सरोकार है न ही गुरिल्ला वार से लेकिन उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है . ..


झारखण्ड के पूर्व विधानसभा स्पीकर इन्दर सिंह नामधारी ने कभी राज्य की सरकार को यह सुझाव दिया था कि एक साल तक झारखंड मे सारे विकास के काम रोक दिए जाए. .सरकार और मीडिया में इसका माखौल उड़ाया गया था . नामधारी जी की यह दलील थी की आदिवासी इलाके में विकास के नाम पर जो पैसे का बंदर बाट हो रहा है उसमें सबसे ज्यादा फायदा नक्सलियों को ही हो रहा है .सरकार की हर योजना में नक्सलियों का 30  फीसदी देना तय तय था .यानी नक्सली आन्दोलन को बढ़ने से रोकना है तो तो उसके फंडिंग के इस सुलभ तरीके को रोकने होंगे।। सरकारी पैसा ,सरकारी हथियार लेकिन नक्सलियों के निशाने पर देश के जवान। .  .यानी पैसे उगाहने के लिए नक्सलियों ने कमोवेश वही प्रबंध किया है जो तरीका  राजनेताओ ने ठेकेदारों के साथ  मिलकर किया है .
दरअसल जो वोट की सियासत इस मामले में है वही सियासत नक्सलियों के मामले में भी है .छः साल पहले यु पी ऐ के शासन में मुल्क के 45  जिले नक्सली आन्दोलन से प्रभावित थे आज उसी कांग्रेस के नेतृत्व वाली यु पी ऐ सरकार के दौर में देश 210  जिलों पर नक्सलियों का दबदबा कायम है. .. .यानी 7  राज्यों के लगभग 320  विधान सभा क्षेत्रों और 94  लोकसभा क्षेत्रों में वोट के सारे समीकरण को नक्सली बना और बिगाड़ सकते है जाहिर है कांग्रेस पार्टी ऐसा रिस्क कतई नहीं लेना चाहेंगी ,यहाँ तक कि वे छत्तीसगढ़ के अपने शीर्ष नेताओं की मौत से भी समझौता करने को तैयार हैं। 
.कह सकते है कि .नक्सली आतंक का  समर्थन दिल्ली से मिल रहा  है न कि बस्तर के आदिवासी इलाके से .बुध्दीजीबी और मानवाधिकार संगठन के सियासी खेल का ताना बाना इसी दिल्ली से रचा जाता है..  माइनिंग  से लेकर पावर प्रोजेक्ट का ताना वाना  इसी दिल्ली में बुना जाता है यानी नक्सलियों की लाइफ लाइन इसी दिल्ली की सियासत है. .जाहिर है नक्सल समस्या की जड़ दिल्ली है न कि बस्तर के अबुझ्मार जंगल। बस्तर के टाइगर को शायद इंसाफ के लिए लम्बा इन्तजार करना होगा (26 मई 2013 )

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