हिन्दू फोबिया ,इस्लामोफोबिया और कबीर
बात 2017 की थी जब उत्तर प्रदेश के बिजनौर के जोगीरामपुरा के लोगों ने गांव छोड़ने की धमकी दी थी ,वजह सुनना चाहेंगे ? स्थानीय जिला प्रशासन में स्थानीय मंदिर पर लाउडस्पीकर बजाना मना कर दिया था । क्योंकि बहुसंख्यक मुस्लिम गाँव में हिन्दू मंदिर पर लाउडस्पीकर बजने पर कुछ लोग खून खराबे पर उतर आते थे। लेकिन ,स्थानीय मस्जिदों के ऊँचे गुम्बद पर बंधे लाउडस्पीकरों से सुबह शाम अनेकों बार उठती ऊँची आवाज़ से प्रशासन को कोई परेशानी नहीं थी । सच दिखाने और निष्पक्ष बोलने वाले आज के कबीर बने मीडिया क्लबों से ठीक वैसी ही हिदायत सुनने को मिल रही है। पत्रकार सबा नकबी के ख़िलाफ़ पुलिस ने हिन्दू धर्म के खिलाफ अमर्यादित प्रतिक्रिया पर केस दर्ज की है तो इकोसिस्टम इसे फ्रीडम ऑफ़ स्पीच के खिलाफ इसे गैरकानूनी कार्रवाई मान रहे हैं.उनके लिए देश जलना उतना गंभीर मामला नहीं है जितना सबा नकबी पर क़ानूनी करवाई की प्रक्रिया । दूसरी पत्रकार और पूर्व बीजेपी प्रवक्ता के खिलाफ देश दुनिया में चौथे स्तंभ बने प्रेस क्लब और उनकी इकाइयां क़ानूनी करवाई की मांग करती हैं।डॉ तस्लीम रहमानी पर मीडिया में कोई करवाई की बात नहीं हो रही है जिसने शिव लिंग के प्रति भद्दा मजाक करके नूपुर शर्मा को प्रतिक्रिया के लिए उकसाया था। नूपुर शर्मा सही नहीं हो सकती हैं तो रहमानी कैसे सही हो सकते हैं ?
" लिंग "का संस्कृत अर्थ प्रतीक ,सिंबल से है लेकिन जानबूझकर उसे उपहास करने के लिए कुछ लोगों ने इसे पुरुष जननांग बना दिया। नूपुर ने भी किसी दानिश्वर के सन्दर्भ को ही टीवी डिस्कशन में लायी थी।अपने धर्म के प्रति अनादर से आहत नूपुर की त्वरित प्रतिक्रिया कितना जायज है और कितना नाजायज इसकी व्याख्या संवैधानिक संस्था करेगी। लेकिन उसके खिलाफ जो गुस्सा की बात कह रहे थे, वही लोग शिवलिंग के खिलाफ अनर्गल कुविचार को फ्रीडम ऑफ़ स्पीच बताकर अपने को निरपेक्ष पत्रकार बता रहे थे।
नूपुर को कठघड़े में खड़ा करने की लेफ्ट लिबरल इकोसिस्टम मीडिया की साजिश पत्थर उठाने वाले और नूपुर शर्मा के पुतले जलाने वाले भीड़ से ज्यादा खतरनाक साबित हुए हैं । यह वही देश है जहाँ युसूफ खान दिलीप कुमार बन कर फिल्मों में ख्याति पाई लेकिन तब वे डरा हुआ मुसलमान नहीं थे लेकिन आज जब जुम्मे की नमाज के बाद शहर दर शहर जलाये जा रहे हों तो कहा जा रहा है कि मोदी के राज में मुस्लिम डरे हुए हैं। हेट स्पीच के खिलाफ यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। कश्मीर में एक पुरे समुदाय को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा लेकिन पूरी दुनिया में विक्टिम कार्ड किसका चला दुनिया जानती है। यानी सिर्फ वोट बैंक की सियासत के कारण इस देश में फेक नैरेटिव चलाकर बहुसंख्यक -अल्पसंख्यक वाद के सूत्र गढ़े गए। किसी ने कभी नहीं पूछा कि जब एक बार इस टर्मिनोलॉजी के नैरेटिव बनाकर देश का विभाजन हो चुका है तो और कितनी बार बांटोगे ?
कबीर के देश में किसी पत्रकार ने यह नहीं पूछा कि देश का हर बंदा मजहबी होने से पहले एक नागरिक क्यों नहीं हो सकता? लेकिन यह पूछने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनकी नजर में सांप्रदायिक है। हर समुदाय के भरण पोषण, शिक्षा ,स्वास्थ्य की जिम्मेदारी देश ढोता है,फिर मजहब प्रथम कैसे हो सकता है । भूखे भजन नहीं होत गोपाला। भूखे का कोई मजहब नहीं होता,जब शासन हर गरीब के बीच समान भाव से पहुँचता है फिर अल्पसंख्यक बहुसंख्यक का सवाल उठाने वाले लोगों की मंशा क्या है ?आज यह सच कहने वाला कबीर हमारे बीच नहीं है।
यह घिनौनी सियासत कबीर के उस देश में हो रहा जिसने कठ्ठमुल्लाओं को चुनौती देते हुए कहा करते थे "कंकर पत्थर जोड़ी के मस्जिद लई बनाई ,तो चढ़ी मुल्ला बांग दे ,क्या बहरे हुए खुदाय। कबीर हिन्दुओ को भी कहते थे पत्थर पूजे हरी मिले तो मैं पुजू पहाड़ ....भक्ति और आस्था ,जाति और मजहब में बटे समाज को आईना दिखाकर कबीर ने भारतीय संस्कृति में भक्ति और मोक्ष के लिए सबको आसान रास्ता बताया। आज तक किसी ने कबीर की जाति और मजहब नहीं पूछा। आज कल कुछ विद्वान पत्रकार और लेखक कहते हैं उन्हें बहुसंख्यकवाद पसंद नहीं हैं। मैं कहता हूँ उन्हें सच बोलने का साहस नहीं है ,उनसे अच्छा वह भाँट है जो चारण गीत को अपना रोजगार मानता है लेकिन विद्वान होने का दंभ कभी नहीं भरता
क्या मजहब के ठेकेदार बने टीवी डिस्कशन में बैठे लोगों से किसी ने पूछा है कि उसने धर्म की शिक्षा कहाँ से ली है। हम बड़ा और सब छोटा ,सिर्फ हम और कोई नहीं ये ज्ञान नहीं सिर्फ अहंकार हो सकता है। गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पांय ।बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय . .. कबीर को जानने के लिए उनके गुरु को जानना भी जरुरी है।
आज बोलने की आज़ादी या स्वच्छदंता टीवी चैनलों ने अपनी सुविधा इसे संवैधानिक अधिकार बना लिया है। लेकिन पारम्परिक मीडिया और इकोसिस्टम को आज सोशल मीडिया और न्यू मीडिया से चुनौती मिल रही है। जिसने उनकी ख़बरों और उसकी व्यख्या की क्रेडिबिलिटी पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है। कहते हैं कि "आधा सच" ,झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है। फिर आधा सच क्यों प्रसारित और प्रचारित हो रही हैं। क्या ये खबरें ,समाज में ज़हर नहीं घोल रही है ? देश की दिशा और दशा बताने वाले स्वधन्य पत्रकार और मीडिया हाउस अपने एजेंडे के अनुरूप सोशल मीडिया से ब्रेकिंग न्यूज़ उधार ले रहे हैं और उसका विश्लेषण भी कर रहे है। जबकि ऐसे नामी गिरामी चैनल का घटना पर कोई रिपोर्टर नहीं है। कॉस्ट कटिंग के दौर में ख़बरों की विश्वसनीयता की जाँच पैनल डिस्कशन में हो रही है लेकिन संविधान और देश की आज़ादी अक्षुण रखने का दावा भी वही लोग कर रहे हैं।आत्ममंथन करने के बजाय चैनल्स टी आर पी के नाम पर सिस्टम में गलतियां ढूंढ रहे हैं।
1990 हो या 2003 या फिर 2022 कश्मीरी पंडितों की बर्बरतापूर्ण हत्या पर भारतीय मीडिया /एलिट वर्गों की ख़ामोशी एक सवाल जरूर खड़ा करता है। कश्मीर फाइल्स की फिल्म जब एक समुदाय की उत्पीड़न ,उसकी अंतर्वेदना को दुनिया के सामने लाती है तो कहा जाता है इससे समाज में नफरत बढ़ेगी। तो क्या भारत औरंगजेब और मुगलों को इसलिए महान कहते रहे क्योंकि दुनिया उसे इस्लामॉफ़ोबिक न कहे। इस देश में हमने गर्व से अपना नाम भारत /भारती रखना छोड़ दिए हैं लेकिन कश्मीर में मौत के खौफ के बीच इस दौर में भी एक हिंदुस्तानी अपने को भारती कहकर फक्र मह्शूश करता था। कश्मीर से पंडितो के पलायन के वाबजूद वो अपने गाँव में डटा रहा,उसे इसलिए मार दिया गया कि वह अपने वजूद के लिए कश्मीर में संघर्ष कर रहा था । उसकी बेटी यह सवाल पूछती है कि उसके बाप को क्यों मारा ? कश्मीर में किसी के पास कोई जवाब नहीं लेकिन देश में आज बहस इस्लामोफोबिया को लेकर चल रही है।
भारत की चेतना को जगाने में कबीर दास ने अद्भुत काम किया और धार्मिक पाखण्ड को हतोत्साहित किया था । लेकिन आस्था को लेकर जो प्रदर्शन इनदिनों सड़कों पर हो रहा है वह कतई भारत का ज्ञान नहीं हो सकता,वह कतई कबीर, रसखान और रहीम का देश नहीं हो सकता है । अगर इस देश में हिन्दू बहुसंख्यक के साथ मुस्लिम समाज सुरक्षित नहीं है, उनका मजहब सुरक्षित नहीं है तो यकीं मानिये वे फिर न तो पाकिस्तान में सुरक्षित रह सकते हैं न ही सीरिया में।
इन हालातों के बीच बहुतेरे बुद्धिजीवी इन दिनों अपने को सेक्युलर राइटर/पत्रकार होने का दंभ भरते हैं लेकिन कश्मीर , केरल और पश्चिम बंगाल की हालात पर वे चुप्पी साध लेते हैं। नेता हो या पत्रकार जिन्हे मजहब में अवगुण सिर्फ सनातन परंपरा में ही दिखता है फिर उन्हें किसी धर्म की आलोचना करने का अधिकार नहीं है क्योंकि वे सिर्फ एक एजेंडे पर काम कर रहे हैं। संत कबीर दास के मजार और समाधि दोनों बने हैं। यह किसी के लिए फक्र की बात हो सकती है कि उन्होंने समाज को आईना दिखाकर उसे मजहबी मूढ़ता के बजाय प्रगतिशील होने के लिए प्रेरित किया था ।
विनोद
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