नीतीश कुमार के बिहार में मनुवाद !


 नीतीश के बिहार में मनुवाद !

तमसो मा ज्योतिर्गमय। अंधकार से दूर प्रकाश की कामना भारत के सनातन परंपरा का मूल मंत्र रहा है।दुर्गा पूजा में अपने गांव सतघारा ,मधुबनी में ट्रैफिक जाम का नजारा मुझे अचंभित कर रहा था। किसी भी रास्ते से सिर्फ पैदल निकला जा सकता था। गरीब, अमीर , कोइर,कुर्मी,यादव, ब्राह्मण,मोची ,पासवान,चौपाल या दूर टोले के डोम परिवार।भीड़ में सभी टोले ,जाति की पूजा में कोई पहचान नहीं रह गई थी। सबका मंजिल एक,सबके चेहरों पर लबालब उत्साह ,सबकी अंधकार से प्रकाश में आने की एक कामना।

 जातिवादी बिहार में यह कैसा मनुवाद है जिसने हर के हाथ में मिट्टी के एक छोटे से दीप देकर दुर्गा मंदिर के सामने हर वर्ग की महिलाओं के अंदर आत्मशक्ति की दिव्यता का एहसास कराया है।क्या यह सामाजिक न्याय वाले बिहार की सामाजिक क्रांति है? 

इस राष्ट्र का अस्तित्व इसी दिव्यता में कायम सदियों से रहा है। लेकिन मुझे सामाजिक न्याय के सवाल का जवाब भी मिला। रात में दुर्गा स्थान के अहाते में श्रद्धालुओं की उमड़ी भीड़ के बीच लाल धोती पहने एक भगत को मैने किसी बच्चे के सर पर हाथ रखकर उसके कल्याण होने जैसा कुछ आश्वासन देते देखा।मेरे लिए भगत जी अजनबी थे,मैंने पूछा कि ये नए महाशय कौन हैं।किसी ने कहा ये माट टोले के हैं पहले इनके चाचा भी भागता थे। मेरे मामा प्रो झा  ने मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए कहा कि ब्राह्मणों के गांव में इस दुर्गा स्थान कभी किसी की बपौती नहीं रहा है। इसी दुर्गा मंदिर में पासवान , चौपाल,मंडल जाति के भगत दुर्गा स्थान में उसी भाव से लोगों की तात्कालिक मुश्किलों से बाहर निकालने का जतन करते थे जैसे कोई नियम निष्ठा पालन करने वाले ब्राह्मण भगत।इस स्थान पर जाति का बंधन बहुत ही कमजोर हो जाता है।। यह भक्तों के चॉइस पर है कि वे किनके सामने अपनी बात रखते हैं।

आरएसएस के सरकार्यवाह दतात्रेय होसबाले जब कहते हैं कि गरीबी हमारे लिए दानवों जैसी चुनौती है।अभी भी देश में 20 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी रेखा के नीचे रहने को मजबूर हैं तो नैरेटिव में इसे मोदी सरकार पर संघ का निशाना बताया जाता है। लेकिन 32 साल के सामाजिक न्याय वाली बिहार सरकार में गरीबों की गणना के बदले अगर जाति गणना के शतरंज पर नीतीश और लालू शह और मात का खेल खेल रहे हैं तो माना जायेगा कि होसबाले की चिंता सही है। सामाजिक न्याय में नकली मनुवाद की अवधारणा को अपना सियासी ढाल बनाकर कुछ चालाक लोगों ने गरीबों के मनोबल को ही तोड़ दिया है। बिहार के गांव में गरीब दलित,पिछड़े परिवारों में आरक्षण का लाभ शायद ही किसी को मिलता है। मैने अपने किसी टोले में सरकारी नौकरी में जाते नहीं देखा।सिर्फ ब्राह्मणवाद की फेक नैरेटिव से जातीय विद्वेष पैदा करके  दर्जनों जातिवादी  नेता वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी सत्ता या विपक्ष मे कायम रहे है। 

अपने गांव में बच्ची सलमा को हिजाब पहने मैने एक ब्राह्मण परिवार में सब्जी काटते और किचन साफ करते देखा तो मैंने उसे पूछा था स्कूल जाती हो उसने कहा नहीं ! क्यों ? इसका जवाब उसके पास नहीं था। मेरी इस जिज्ञासा को भाई ने शांत किया।उन्होंने कहा कि गांव में जब मुस्लिम बस्तियों से दाहा ,मुहर्रम ताजिया जुलूस निकलता था तो अलग अलग टोले के हिंदू समुदाय के बच्चे,नौजवान उसमे शामिल हो जाते थे।यह उनके अपने  मुस्लिम टोले की ताजिया है। दूसरे टोले वाले  ताजिया में शामिल लोग उन्हे जानी दुश्मन लगते थे। आज उन टोले वालों ने अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश की है।उनके बच्चे,बूढ़े टोपी,दाढ़ी रखते हैं , बच्चियां हिजाब पहनने लगी है और ताजिया से हिंदू बच्चे गायब हो गए हैं। स्थानीय नेता और मौलवी ने उन्हे इंसान से ज्यादा एक मुश्त वोट बना कर रख दिया है।

बिहार में रोड इंफ्रा पर जबरदस्त काम हुआ है।पावर सप्लाई भी शानदार है लेकिन सलमा के लिए स्कूल नहीं है।मेरे घर पर दूध देने वाले बीकमशेर  के यादव जी से मैने पूछा था कि बच्चे पढ़ लिख रहे हैं।उनका जवाब था एक भैंस से परिवार नहीं चलता फिर पढ़ाएंगे कहा से।कुछ दिन बाद बाहर जाएगा कमाने।क्या इस भयानक गरीबी की वजह क्या है ,क्या बिहार में इसकी कभी जांच हुई कि इनके हिस्से की केंद्रीय सहायता किसने हड़प ली? नीतीश जी और लालू जाति गणना करके इसका दोष फिर मनुवाद पर डालने की तैयारी कर रहे हैं। अंधकार से प्रकाश में आने की जरूरत यहां के नेताओं को अधिक है।एक बार दुर्गा पूजा में ये लोग सतघरा आएं तो ये भी शायद कहेंगे "असतो मा सद्गमय "

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