भारतीय राजनीति में परिवार और उनके ब्रांड अब फीके पड़ने लगे हैं ?

दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित कहती हैं राहुल गाँधी अभी पॉलिटिक्स में नौशिखुआ हैं ,उन्हें कुछ और समय दीजिये। लेकिन बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी अपने बेटे तेजस्वी को अब मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहती हैं। वह दौर था जब लालू जी ने अपने घरेलु पत्नी को चाहा तो मुख्यमंत्री बना दिया ,राहुल गाँधी से कम उम्र में  उनके पिता राजीव गाँधी को  कांग्रेस पार्टी ने प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे योग्य माना। लेकिन आज क्या हो गया कि ओडिशा में ब्रांड बीजू धरासायी हो रहे है ,ब्रांड ठाकरे की हवा निकल रही है ,शरद पवार सही ठिकाना  तय नहीं कर पा रहे हैं। ब्रांड मुलायम को ब्रैंड अखिलेश ने  चुनौती देने की कोशिश की तो उसे मजबूरी में सहारे की जरूरत पड़  रही है।  मायावती हर चुनावी रैली में दुबारा पत्थर न लगाने की कसमे ले रही है। तो क्या भारतीय राजनीति में परिवार और उनके ब्रांड अब फीके पड़ने लगे हैं ?



 2014 ने भारतीय राजनीति को जो आईना दिखया था उसे सियासतदां आज भी झूठलाने की कोशिश कर रहे हैं। बिहार के चुनाव को आदर्श मानकर राजनितिक पंडित आज भी चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग को अहम् मानते हैं। ध्रुविकरण के गणित को चुनावी विज्ञानं बता रहे हैं ,शायद यह जानते हुए भी कि मतदाता इससे आगे निकल चूका है। आज जीत या हार प्रगतिशील  मतदाता तय कर रहे हैं और उनका मजहब /जाति से कोई लेना देना नहीं है। वो दौर था जब अदम गोंडवी को लिखना पड़ा था काजू भुने हैं प्लेट में, व्हिस्की गिलास में,उतरा है रामराज विधायक निवास में
 पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत,इतना असर है खादी के उजले लिबास में...

 अब इस दौर में विनय बिहारी तिवारी जैसे जनप्रतिनिधि सामने हैं जो अपने इलाके में रोड न बन पाने के कारण घुटनो के बल चल कर विधान सभा पहुँच रहे हैं। समाजवादी पार्टी में सबसे ज्यादा दौलत कमाने वाले गायत्री प्रजापति के मंच शेयर करने से आज अखिलेश और मुलायम परहेज कर रहे हैं।  धनवल और परिवार के नाम पर चुनाव जीतने की परंपरा अब ख़तम हो रही ,सिर्फ विकास मुद्दा बने या न बने लेकिन पढ़े लिखे नौजवान अपने  प्रतिनिधि में अपना चेहरा जरूर देखना चाहता है। 

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