बीजेपी की नाकामयाबी पर रोएँ या कांग्रेस की कामयाबी पर इतराएँ

किस किस को याद कर्रें किस किस को रोये आराम बड़ी चीज है मुहं ढक के सोएये। मौजूदा सियासत की यही कहानी है । बीजेपी में मंथन का दौर जारी है । कांग्रेस अपनी जीत पर फूले नही समां रही है । राजनितिक पंडित जीत हार का विश्लेषण करने में व्यस्त है । हर का अपना तर्क है ,मनो यही अन्तिम है । राजनीती इतनी क्रूर है कि जो पीछे छुट गया उसे कोई पहचानने वाला नही है । खेल पॉवर का है खेल सुर्खियों में बने रहने का है खेल सुविधा हड़पने का है । भला इस खेल में विचारधारा कोई पहचान रख सकती है । लेकिन सत्ता के खेल में आज भी बीजेपी अपनी पहचान को छोड़ना नही चाहती या यूं कहे कि उसे इस पहचान से अलग नही होने दिया जाता । बीजेपी के अन्दर ही चुनावी मुद्दे को लेकर सवाल उठ रहे है । अफज़ल को फांसी भला ये कोई मुद्दा हो सकता है , शिव राज सिंह चौहान को मलाल है कि बीजेपी ने मुद्दे उठाने में नासमझी की । अरुण जेटली कहते है कि प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को बार बार कमजोर कहना नादानी साबित हुई । तो बीजेपी के कई वरिष्ठ लीडर नरेन्द्र मोदी और वरुण गाँधी को तरजीह मिलने से खफा है । यानि हार के कारणों को ढूंढने के वजाय बीजेपी में एक दुसरे को नीचा दिखाने का सिलसिला जारी है । १९८० में वजूद में आने के साथ यह कहा गया कि बीजेपी, आर एस एस के राजनितिक मंच बनने के वजाय अपनी अलग पहचान बनाएगी । डॉक्टर हेडगेवार के वारे में यह कहा जाता है कि वे गांधी जी के बड़े प्रशंशक थे तुर्रा यह कि वे कांग्रेसी भी थे । आर एस एस के गठन के पीछे उनका जो भी मकसद रहा हो लेकिन उन्होंने यह साफ़ कर दिया था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक सिर्फ़ एक सांस्कृतिक संगठन है । लेकिन जनसंघ के गठन के साथ ही यह बात भी साफ़ हो गई कि आर एस एस सिर्फ़ मूक दर्शक बनकर सत्ता के खेल को देखना नही चाहता बल्कि इस खेल में अपनी हिस्सेदारी भी चाहता है । पहली बार जनता पार्टी की सरकार में आर एस एस के कुछ कर्मठ कार्यकर्ताओं को सत्ता की सीढ़ी भी चदने का मौका मिला लेकिन समाजवादियों और पुराने कांग्रेसियों ने आर एस एस के उन कर्मठ कार्य कर्ताओं को मंजिल पाने नही दिया । फ़िर एक दौर आया १९९६ का बीजेपी एक बार फ़िर सत्ता के करीब पहुची लेकिन महज १३ के अन्दर ही उसे दुबारा संघर्ष करने के लिए मजबूर होना पड़ा । १९९८ मे बीजेपी को एक बार फ़िर यह मौका मिला और इस सिलसिले को बीजेपी ने २००४ तक जारी रखा । यह कामयाबी किसकी थी वाजपेयी की या आडवानी की या फ़िर आर एस एस की ? लोग कहते है कि यह वाजपेयी की छवि थी जिसने आर एस एस की पहचान से बीजेपी को अलग कर दिया था । लेकिन आर एस एस ने इस सच को कभी नही स्वीकार किया । एक जमाना था जब वीर सावरकर की पार्टी हिंदू महासभा आर एस एस को इसलिए आलोचना करती थी क्योंकि उसके पास हिंदुत्वा को प्रतिष्ठापित करने का कोई ठोस संकल्प नही है । आज आर एस एस अपने उग्र हिंदुत्वा के प्रदर्शन के लिए बीजेपी को उकसा रहा उसे प्रतारित कर रहा है । यही वजह है कि बीजेपी यह नही तय कर पा रही है कि उसका असली दफ्तर ११ अशोक रोड है या नागपुर का आर एस एस का मुख्यालय । विचारधारा और पहचान की इस संकट से बीजेपी पुरे चुनाव प्रक्रिया में उलझी रही । उसने कभी हिंदू ह्रदय सम्राट को आगे किया तो विकास के मॉडल के तौर पर रमन सिंह और शिव राज को आगे करने की कोशिश की । निर्णायक और मजबूत नेता के तौर पर आडवानी ख़ुद अगुवाई कर रहे थे । लेकिन कोई सिक्का नही चला ,चला भी तो अपने अपने सूबे में ॥लेकिन यह सिक्का पुरे देश में चलना चाहिए था । आर एस एस को शायद आज भी यह भ्रम है कि उसके हजारों स्वयंसेवक ही बीजेपी की लाइफ लाइन है । संघ के किसी भी शाखा में स्वयंसेवकों की तादाद ५ से ७ है जिनकी उमर ५५ -६० से ज्यादा है । इन शाखाओं में नौजवान आज दुर्लभ प्राणी बन कर रह गया है लेकिन फ़िर भी बीजेपी इस मोह से अलग नही हो पा रही है तो वजह समझना थोड़ा मुश्किल है

कांग्रेस की जीत का सेहरा कम ही लोग है जो मनमोहन सिंह को दे रहे है । राहुल बाबा की चरों ओर जे कार है । यानि सत्ता मे कांग्रेस को दुबारा लौटने वाले राहुल है । लेकिन यह समझना इतना आसन नही है कि राहुल की कौन सी छवि भारत के युवाओं को भा गया ? उसके कौन से फैसले लोगों को राहुल का दीवाना बना दिया । राहुल कांग्रेस के लिए आज तुरुप का पत्ता बन गए है लेकिन इसे आजमाना अभी बांकी है । महाराष्ट्र हो या आँध्रप्रदेश ,केरल हो या पश्चिम बंगाल या फ़िर राजस्थान कांग्रेस की जीत की वजह स्थानीय प्रतिक्रिया थी । न कि कांग्रेस की लहर । वोट फीसद में देखे तो कांग्रेस महज दो फीसद की बढोतरी दर्ज की है इसमे आप जिस की लहर माने । सरकार मे एक बार फ़िर वही पुराने चेहरे आए है । नौजवान भारत को एक बार फ़िर बुजुर्ग मंत्रियों का सहारा मिला है । एक दो को छोड़ कर मिसाल पेश करने का शायद किसी का रिकॉर्ड रहा हो । कुछ लोगों को मुह चिढाने के कारण भले ही सत्ता से बाहर कर दिया गया हो लेकिन नया कुछ भी नही है । नया सिर्फ़ राहुल की जे है और इसी जय के सहारे सरकार चलनी है । बदलने की जरूरत कांग्रेस को भी है और बीजेपी को भी क्षेत्रीय पार्टियों का गुमान टूट रहा है । दो राष्ट्रीय पार्टी को क्षितिज पर उगने का मौका मिला है । बीजेपी को भी चेहरा बदलने की जरूरत है तो कांग्रेस को भी मजबूत सरकार देने की चुनौती है । देश को दोनों से उम्मीदे है ।

टिप्पणियाँ

vaishali ने कहा…
मुझे इस इलेक्शन रिजल्ट में कांग्रेस की ना जीत दिखी और न ही बीजेपी की हार । भारतीये लोकतंत्र के इतिहास में ये पहलीबार है की लोगो ने विकाश को वोट दिया है चाहे वो गुजरात हो या फिर बिहार या छत्तीसगढ़ । लोगो ने दिखा दिया की हमें मन्दिर ,मस्जिद और भडकाव भाषण बाजी नही चलेगी जो आम तौर पर देखने को मिलता था और लोग वोट भी दिया करते थे। कभी कोई पार्टी सहानुभूति की रथ पर सवार हो कर ४०० से ज्यादा सीट जीत लेते थे। लेकिन इस इलेक्शन ने बताया की भारत में लोकतंत्र का स्वरुप बदल गया है । यानि आपको वोट चाहिए तो विकास कीजिये । थोथे नारे नही चलने वाले । रही आपके स्टोरी की बात तो इसमे न तो किसी राष्ट्रिये पार्टी की जीत हुयी है और न ही रिजनल पार्टी का वजूद खत्म हुआ है जैसा की आप कहना चाह रहे है । हकीक़त ये है की इसमे रत्ती भर भी सच्चाई नही है । आपको पता है की कांग्रेस की जो सरकार बनी है उसकी कुंजी इन्ही रीजनल पार्टी के पास है । चाहे कांग्रेस या राहुल बाबा जितना ख़ुद पर इतरा ले , लेकिन सरकार रीजनल पार्टी के बिना नही चल सकती । और इसे आप बखूबी जानते है ।
इस चुनाव में देसी बिदेसी पूँजी की जीत हुई है।

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