इन जातिवादी नेताओं से नक्सली क्या बुरे हैं

देश में नक्सली हमलों का कहर जारी है .लेकिन सरकार यह तय नहीं कर पायी है कि नक्सली देश के दुश्मन है या दोस्त .देश के प्रधान मंत्री कहते है कि नक्सली आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है .लेकिन गृह मंत्री नक्सली के खिलाफ असफल अभियान छेड़ने के  वाबजूद यह कहने से कतराते है कि नक्सली देश का दुश्मन है .यानी यह तय करने में असमर्थ है कि इस मुल्क का, इस मुल्क के प्रगति का कौन दुश्मन है कौन दोस्त? .नक्सली बन्दूक के जोर पर व्यवस्था परिवर्तन की बात करते है .यानी देश के पिछड़े लोगों को ढाल बनाकर वो शासन पर कब्ज़ा करने की कोशिश मे लगे है .कही उनके समर्थन मे तो कही उनके विरोध में राजनीती का माहोल भी गर्म है .यानी ये बयान राजनीति में नफा नुकसान के आधार पर दिया जा रहा है .लेकिन जो लोग  सत्ता पर अपनी प्रभुसत्ता बनाये रखने के लिए देश को टुकड़े टुकड़े मे बाटने की कोशिश में लगे है वे हमारे राज  नेता के रूप मे स्थापित है .और हम यह पहचानने मे आज भी धोखा खा रहे है कि ये इस देश की प्रगति के दोस्त है या दुश्मन .यानी दुश्मन को पहचानने मे सरकार भी धोखा खा रही है और हम भी .
बाबा भीमराव आंबेडकर ने कहा था मुझे यह बात समझ मे नहीं आती कि हजारों जातियों -उपजातियों मे बटा समाज एक देश का स्वरुप कैसे  ले सकता है ? जाति तोड़ने उसे हतोत्साहित करने का काम सबसे ज्यादा काम बाबा भीमराव आंबेडकर और लोहिया जी जैसे नेताओं ने ही किया था .लेकिन जातिवादी नेताओं ने अपनी सियासत मे सबसे ज्यादा इस्तेमाल इन्ही लोगों को किया है .जातिवाद के आधार पर सत्ता पाने वाले लोगों ने कभी लोहिया जी को तो कभी आंबेडकर की  दुहाई देकर सत्ता जरूर हथिया लिया .लेकिन उसका हस्र समाज ने करीब से देखा .विकास के नाम पर आज उत्तर प्रदेश और बिहार का स्थान सबसे नीचे है तो सबसे ज्यादा सामाजिक विद्वेश्ता इन्ही राज्यों मे है .यानी ये राज्य आज भी विभिन्न जातियों का एक समूह है जहाँ कुछ लोग आरक्षण के नाम पर मलाय खा रहे है तो कुछ लोगों को फाके का सामना करना पड़ रहा है .यानि आरक्षण और सामाजिक समता के प्रयोग को ये राज्य आयना दिखा रहे है .
लोहिया जी के चेलों ने अपनी सियासी जमीन खिसकती देखकर पिछले दिनों संसद मे जनगणना मे जाति की गणना की जोरदार मांग की तो सरकार यह तय नहीं कर पायी कि यह फैसला देश हित मे है या यादव बंधुओ के हित मे .जनगणना मे जाति का समवेश के फैसले ने  जातिवादी नेताओं को गद गद कर दिया है .यानि ये नेता घडी को उलटी दिशा मे घुमाने मे काफी हद तक कामयाब होते हुए दिख रहे है .यानी मंडल के बाद मलाई पर अपना कब्ज़ा बरक़रार रखने का फ़ॉर्मूला इन्होने ढूंढ़ लिया है .सवाल यह उठता है कि १९३१ मे जनगणना मे जाति को शामिल करने का विरोध तत्कालीन सेन्सस कमिश्नर जे एच हन्त्तन ने क्यों किया था ?उन्होंने बताया था कि सुविधा लेने के नाम पर हर जगह लोग  अपनी फर्जी जाति लिखवायेंगे .अगर सुविधा हडपने का इस देश मे एक ही कामयाब फ़ॉर्मूला जाति है तो निश्चित रूप से इस मौके को पाना हरकी चाहत होगी और अगर इस बार के जनगणना मे जाति का कलम जोड़ा गया तो ७० फिसद से ज्यादा लोग अपने को पिछड़ी जाति बताएँगे और आरक्षण मे अपनी हक की मांग एकबार फिर जोरदार तरीके से करेंगे.
.जाति के नाम पर सत्ता हडपने वाले लालू जी ,मुलायम प्रसाद जी ,मायावती जी पर आज भी करोड़ों रूपये के नाजायज़ सम्पति इकठा करने के केस दर्ज है लेकिन फिर भी वे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए है .सामाजिक रूप से रामविलास पासवान जैसे दर्जनों नेताओ ने अपने को अग्रिम पंक्ति मे ला खड़ा किया है लेकिन आरक्षण की मलाई को हड़पने के लिए वे आज भी सबसे आगे है .यानी सत्ता और मलाय की राजनीति ने संविधान की धज्जिया उड़ा दी है .लेकिन हम फिर महान लोकतंत्र का गुणगान कर रहे है .
सामाजिक समानता लाने के लिए आंबेडकर ने संविधान मे महज दस साल के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी .लेकिन आज़ादी के  साठ साल बाद भी आरक्षण की मियाद बढ़ाने के लिए संशोधन  की प्रक्रिया जारी है .कभी यह भी नहीं पूछा गया कि जिनके तीन पुश्ते आरक्षण की मलाई खा रहे है और उच्च प्रशासनिक पदों से लेकर सरकार मे ख़ानदान दर ख़ानदान बने हुए है क्या उन्हें आज भी सामजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा कहा जायेगा .अगर यह आरक्षण सिर्फ इन्ही चंद मुठी भर लोगों के लिए है तो यह व्यवस्था समाज के अंतिम व्यक्ति के साथ गद्दारी कर रही है .
जनगणना मे जाति की वकालत करने वाले नेता  पटना के सुपर ३० से कुछ सबक जरूर ले सकते है .बिहार जैसे पिछड़े राज्यों मे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े परिवार के बच्चों को यह संस्था मुफ्त मे आई आई टी की कोचिंग प्रदान करती है और हर साल इसके बच्चे आई आई टी अब्बल दर्जे के साथ चुने जाते है .ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चों से उनकी जात नहीं पूछी जाति है बल्कि उनका आर्थिक परिवेश को सामने रखा जाता है और उन्हें देश की मुख्यधारा मे शामिल करवाया जाता है .ऐसा ही प्रयोग कभी इनफ़ोसिस के नारायणमूर्ति ने किया था  और पिछड़े -दलित परिवार के बच्चों को आई टी की कुशल ट्रेनिंग देकर उन्हें मुख्यधारा मे शामिल करने की पहल की थी .लेकिन जात की सियासत पर अपने ख़ानदान चलाने वाले लोगों को सिर्फ आरक्षण से मतलब है ताकि आरक्षण की मलाई का लाभ उनके ख़ानदान दर ख़ानदान को मिलता रहे .
लेकिन हैरानी की बात यह है १९३१ मे जनगणना मे जाति को शामिल करने की बात को इसलिए पुरजोर विरोध हुआ था आज किस आधार पर उसी जाति के जिन्न को जनगणना मे जोड़ने की बात की जा रही है .हर राजनितिक दलों के सामने अस्तित्व का संकट है देश के सबसे बड़ी पार्टी यह नहीं तय कर पा रही है क़ि वह किसके साथ जाय .यानी देश से नहीं सबको वोट बैंक से दरकार है .यह जाति की गणना राज्य स्तरीय जातिवादी पार्टियों के वोट बैंक बढा सकते है ,लेकिन इसका खामियाजा आख़िरकार इस देश को ही भुगतना पड़ेगा .इसलिए अगर अमिताभ बच्चन अपनी जाति की सूचि मे भारतीय लिखते है तो यह कर्तव्य हर हिन्दुस्तानी का है क़ि अपनी जाति भारतीय लिखकर अपनी सियासी  दूकान चलाने वाले लोगों के मनसूबे पर पानी फेरें .


टिप्पणियाँ

संजय शर्मा ने कहा…
किसी सरकार से न्यायोचित कदम की आशा बेमानी है .
पिछले २० साल से हम खिचड़ी बनाते रहे और भात
खाने का मन बनाते रहे. हमें पूर्ण बहुमत वाली सरकार
देनी चाहिए थी इस देश को .ये गड़बड़ आरक्षण नीति
से असंतुष्ट पब्लिक , नेता हर पार्टी में अपनी रोटी सेक रहे है.
ये वहां आरक्षित है.इनको आरक्षण से बाहर आने भर की देर है.
हम तो अपनी जाति अब तक हिन्दुस्तानी बताते रहे हैं।
बेनामी ने कहा…
सर नेम हटा दो ,सभी समस्या का समाधान है

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