उम्मीदों का हाहाकार !

उम्मीदों का हाहाकार ! हर तरफ निराशा ही निराशा। हर तरफ हिंसा का शोर ,किसान परेशान ,कारोबारी परेशान ,जज परेशान हैं ,मुल्जिम परेशान है।  दलित परेशान है सवर्ण परेशान है। कश्मीर परेशान ,कन्याकुमारी परेशान है । देशी अंदाज़ में इसे लोग  भसड़ कहते है। चारो ओर मनो भसड़ ही भसड़ है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेसन भी हाल में इस भसड़ के शिकार हुए हैं। सोशल मीडिया पर किसी ने उन्हें श्रद्धांजलि दी तो बड़े बड़े संपादक भी इसे कन्फर्म करने की जहमत नहीं उठाई और चल पड़ा उनके व्यक्तिव कृतित्व का पाठ। जीते जीते जी उनका राम नाम सत्य है ! कर दिया गया। लेकिन संपादक  नहीं मानेगे की वे फेक न्यूज़ फैला रहे हैं। क्योकि वे ज्ञानी है और लोकतंत्र ने उन्हें चौथा स्तम्भ माना गया  है। ऐसा कुछ लोगो का दावा है .. 
. हर हफ्ते अटल जी सोशल मीडिया पर दिवंगत होते हैं और हर बार उनका प्रोफाइल डॉक्यूमेंट्री चैनेलो के लाइब्रेरी से  बाहर निकल आता है। । याद है आपको सोशल मीडिया का चर्चित फ़ारूक़ अहमद डार। वही डार जिसका फोटो ह्यूमन शील्ड के नाम से पब्लिश्ड करके ओमर अब्दुल्लाह ने बवाल खड़ा कर दिया था। बड़गाम के इस टेलर को लेकर कश्मीर में महीनो बवाल चलता रहा। बड़गाम इलेक्शन  दौरान  एक बूथ पर पथरबाजों से पोलिंग पार्टी को बचाने लिए कर्नल गोगई ने एक पथरबाज को  जीप  के बोनेट से  बाँध दिया था और बगैर एक  गोली  चलाये सारे पोलिंग स्टाफ को सुरक्षित निकल लिया  था। लोकतंत्र और सोशल मीडिया के सिपाही ओमर अब्दुल्लाह को आज यह जानने की जरूरत नहीं है कि पुरे गांव वालों ने महीनो से फ़ारूक़ डार को बायकाट कर रखा है  वह कारीगर दाने दाने को तरस  रहा है। वजह गाँव के  लोग आज उसे इनफॉर्मर बता रहे हैं  . यह है सोशल मीडिया जब चाहे किसी को हीरो और  भक्त और किसी को देश द्रोही/खलनायक  बना सकता है। कुछ भी ! इस मीडिया में बड़ा भसड़ है भाई .... 

 
पिछले चार साल से लोकतंत्र और किसान कुछ बड़े पत्रकारों का  एजेंडा रहा है ,खबर हो न हो हाथ मसलने और मुहं बिचकाने से एंकर को कौन रोक सकता है। जो तथाकथित खबर सोशल मीडिया पर फैलाई जाती है वही शाम के प्राइम टाइम एजेंडे में  बड़ी खबर बड़ी चर्चा ,बड़ी बहस का दस्तक और प्राइम टाइम हो जाता है। इन ज्ञानियों की आलोचना करना सूरज को दिया दिखाने जैसा है। लेकिन खबरों को लेकर इनकी प्रस्तुति और भंगिमा बताती है कि ये हमारे श्रेणी के ही पत्रकार है लेकिन  हैसियत  इन्हे अलग इसलिए करता है कि ये  उम्दा क्लब से ताल्लुक  रखते हैं। किसान आंदोलन ,कर्ज माफ़ी ,आत्महत्या पर इन्होने महाकाव्य लिख डाला लेकिन यह बात आज भी समझ नहीं आयी कि किसान है कौन ? वह किसान  जो सैकड़ो मील चलकर मुंबई पहुंचे थे और कर्ज माफ़ी का आश्वासन  लेकर अपने घर गए। किसानो के पैरो में फफोले ऐसे दिखाया गया मानो देश ने इनके साथ बड़ी ज्यादती की है। लेकिन यह पता करने की कोशिश नहीं हुई कि वह मराठवाड़ा का पवार है या कृषक मजदूर जिसके खाते में  कर्जमाफी और सब्सिडी  का एक पैसा नहीं जाएगा।  बिजली माफ़ी उन किसानो के लिए मांगी जा रही रही  है जिनके पास सैकड़ो टूबवेल है या उन किसानो  जो कर्ज लेकर सिचाई की व्यवस्था  करते हैं। इन सवालो को लेकर कृषि  मंत्री  और एंकर दोनों भसड़ कर रहे होते है एक के लिए किसान वोट बैंक वो सच बोलेगें नहीं एक जिसे किसान और कृषि के बारे में कुछ नहीं पता उसे क्लब को खुश  करना है।  हद तो तब हो जाती है  जब  मीडिया में बैठे लोग उन जमींदारों की दलाली कर रहे होते है,  जब मीडिया किसान के नाम पर कर्ज माफ़ी ,बिजली माफ़ी ,खाद में सब्सिडी को लेकर सरकार को खटघरे में  खड़ा करता  है जिसका फायदा सिर्फ 5 फीसद किसान उठाते है बाकी 95  फीसद कृषक मजदूरों के पल्ले कुछ नहीं  आता। यह बेईमानी है जब कारोबारी को लेकर सोशल मीडिया माहौल बनता है और टीवी चैनल उसे रोजगार और महगाई को लेकर प्रवचन शुरू करता है।  भले आदमी कुछ ज्ञान अदालत के जिम्मे भी रहने दो।

देश बदल रहा है ,बाकई कुछ ज्यादा बदल रहा है  सोशल मीडिया पर लोगों का मनोवैजानिक प्रोफाइल बनाया जा रहा है ।  सोशल मीडिया पर नए नए हीरो का प्रादुर्भाव हो रहा है  । नए सामाजिक समीकरण बन रहे हैं। नए आंदोलन की रूप रेखा बन रही। लेकिन ये सब कुछ एजेंडे से चल रहा है।  ऐसा  क्यों होता है कि गुजरात इलेक्शन से पहले ऊना में दलित हिंसा को लेकर खबर वायरल होती है और चुनाव से पहले यह मीडिया की बड़ी चर्चा हो जाती है। ऐसा क्यों होता है कि कर्नाटक  चुनाव से पहले  सुप्रीम अदालत के फैसले को लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा किया जाता है और भारत बंद के नाम पर खुनी संग्राम खेला जाता है। ऐसा नहीं है  कि सरकार ने कुछ गड़बड़ नहीं की है लेकिन  प्रोपर संवाद न होने के कारण कन्फुजियन बढ़ा है। लेकिन भसड़ तो बिलकुल नहीं है। 

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